अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम निषेध दिवस : बाल श्रमिकों की ज़िम्मेदारी किसकी ?


भारतीय संविधान में भी अनु 23 (जो मानव व्यापार, बंधुआ मजदूरी का निषेध करता है) तथा अनु 24(जो फैक्ट्री में कार्य करने या खनन उधयोगों के लिए बच्चों का प्रतिषेध करता है) जैसे प्रावधान पहले से ही मौजूद रहे हैं। इन प्रावधानों का समय-समय पर सरकार द्वारा पालन करवाए जाने का प्रयास किया जाता रहा है। दरअसल बाल श्रम की समस्या का हल सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों से ढूँढना संभव नहीं है। यह एक सामाजिक एवं आर्थिक समस्या है।


अमित कुमार
मत-विमत Updated On :

बच्चे किसी भी समाज के सबसे महत्वपूर्ण मानव संसाधन माने जाते हैं क्योंकि, किसी भी समाज का भविष्य उन्हीं पर निर्भर करता है। अतः यह समाज की ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने बच्चों के पोषण, शिक्षा एवं सुरक्षा कि समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करे। सरकार भी इस दिशा में निरंतर प्रयासरत रहती है। परंतु, यह भी सत्य है कि जिस भविष्य कि नींव को मजबूत बनाने की आवश्यकता है वह, बाल-श्रम जैसे दीमक से खोखला हो जाने की समस्या से लगातार जूझ रहा है।

बाल-श्रमिकों की संख्या का बढ़ना किसी भी सभ्य एवं सुशिक्षित समाज के निर्माण के लिए घातक है। यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यह समस्या विश्वव्यापी हो चुकी है जबकि, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लंबे समय से इसे रोकने के लिए  प्रयास होते रहे हैं। समान्यतः बाल-श्रमिक वे हैं जो किसी खतरनाक कार्य में शामिल किए जाते हों या उन्हें स्कूली शिक्षा से दूर एवं कार्य बोझ अथवा दोनों को सम्हालने में संलग्न कर दिया जाता है। वैसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार वैसे बच्चे जो राष्ट्रीय कानून द्वारा परिभाषित न्यूनतम कानूनी उम्र से पहले किसी व्यापारिक कार्य में संलिप्त हों, ‘बाल श्रमिक’ कहे जाते हैं। स्वाभाविक है कि ये, समाज के लिए उत्पादक वयस्क सदस्य के रूप में निर्मित होने में बाधा उत्पन्न करती है। यूनिसेफ के अनुसार, बच्चों का किसी संस्था में नियोजन इसलिए किया जाता है ताकि उनका आसानी से शोषण किया जा सके।

‘अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ के अनुसार बाल- श्रमिकों कि अनुमानित संख्या विश्व में लगभग 22 करोड़ है जबकि, भारत में लगभग 1 करोड़ 25 लाख है। बाल श्रमिक मुख्य रूप से कृषि कार्य में संलग्न है जिसने लगभग 71% बाल श्रमिक कार्यरत हैं। वास्तव में बाल श्रमिकों के निश्चित मानदंड के अलावे भी अनेक प्रकार के बाल श्रमिक हमें अपने समाज के हर हिस्से में दिख जाते हैं। घरों में काम करने वाले नौकर, चाय दुकान, होटल, ढाबा, एवं अन्य छोटे-छोटे व्यापारिक प्रतिष्ठान में बाल-श्रमिकों की अत्यधिक संख्या होती है।

संगठित क्षेत्रों में बाल-श्रमिकों की सुरक्षा एवं उनकी नियुक्ति के प्रतिषेध के लिए अनेक प्रावधान हैं जिसे ही हमारे संवैधानिक प्रावधानों द्वारा पूर्ण रूप से लागू कर पाना संभव नहीं हो पाया है। जबकि, देश में  90% से अधिक रोजगार असंगठित क्षेत्र में उपलब्ध हैं, उसमें नियंत्रण कर पाना कहाँ तक संभव हो सकता है? संगठित क्षेत्रों के लिए कुछ अंतर्राष्ट्रीय मानक भी तय होते हैं।

1989 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा “बाल अधिकारों के संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेन्शन” (UNCRC) को अपनाया गया जिसमें 18 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को किसी भी व्यवसाय में लगाने से प्रतिबंधित कर दिया गया। भारत में भी “गुरुपद स्वामी” की सिफ़ारिशों के आधार पर केंद्र सरकार द्वारा “बल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम 1986” लाया गया जिसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक कार्यों समें प्रतिषेध एवं 2006 में इसे संशोधित कर 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को किसी भी व्यावसायिक कार्य में निषिद्ध कर दिया गया। इन्हीं प्रयासों में 12 जून 2002 से अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) द्वारा प्रतिवर्ष “विश्व बल श्रम निषेध दिवस” मनाने की शुरुआत की गयी।

भारतीय संविधान में भी अनु 23 (जो मानव व्यापार, बंधुआ मजदूरी का निषेध करता है) तथा अनु 24(जो फैक्ट्री में कार्य करने या खनन उधयोगों के लिए बच्चों का प्रतिषेध करता है) जैसे प्रावधान पहले से ही मौजूद रहे हैं। इन प्रावधानों का समय-समय पर सरकार द्वारा पालन करवाए जाने का प्रयास किया जाता रहा है। दरअसल बाल श्रम की समस्या का हल सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों से ढूँढना संभव नहीं है। यह एक सामाजिक एवं आर्थिक समस्या है। इसके लिए जब तक बाल श्रमिक तैयार करने वाले कारकों को जब तक नियंत्रित नहीं किया जा सकेगा तब तक इसे समाप्त नहीं किया सकता है।

अशिक्षा एवं बढ़ती जनसंख्या के कारण अभिभावक एवं बच्चे दोनों को कम उम्र में कम करने की आवश्यकता पड़ जाती है। छोटे स्तर पर व्यापार करनेवाले व्यापारियों को जहां कम आर्थिक लागत पर मजदूर  उपलब्ध हो जाते हैं वहीं उन अविभावकों एवं बच्चों को भोजन एवं लालन पालन करने की व्यवस्था करने से मुक्ति मिल जाती है। आर्थिक संकट से घिरे बच्चों को अगर उस अवस्था में पैसे की जगह शिक्षा की व्यवस्था करा भी दी जाए तो वे उसे स्वीकार नहीं करते और ये स्वभाविक भी है।

ऐसे भी कई घर हैं जिनके घर का खर्च इन बाल मजदूरों की कमाई से चलता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति और भी गंभीर है। अधिकांश अभिभावक जो शराबी होते हैं उनके घर के लिए ये ही बच्चे एकमात्र आर्थिक स्रोत होते हैं। इसी क्रम में में बाल तस्करी, बंधुआ मजदूरी, देह व्यापार एवं इसी तरह की कई अन्य बुराइयाँ समाज में फैल जाती है। ये सब किसी एक पीढ़ी की नहीं बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाले चक्र की तरह है। इन बच्चों को मुख्य धारा की ओर आकर्षित कर पाना भी एक बड़ी चुनौती है।

समाज का एक वर्ग इसे पनपने में सहायक हो जाता है पर, अपने निजी स्वार्थ के लिए। जिसके कारण यह और भी अनियंत्रित है। हालांकि इन परिस्थितियों के लिए कुछ हद तक सामाजिक प्रतिबद्धताएँ, वर्ग-भेद, जीवन स्तर को ऊपर उठाने की चाह इत्यादि भी उत्तरदायी रहे हैं। आर्थिक स्थिरता किसी भी व्यक्ति के जीवन में स्थायित्व एवं भविष्य की योजना बनाने में सहायक होती है। हर स्तर पर यह मानसिक अवस्था कार्य करती है, यही कारण है कि थोड़ी भी आर्थिक संवृद्धि कि उम्मीद किसी भी बच्चे को आसानी से बाल- श्रम के दलदल में धकेल देती है, जहां से निकलना उनके लिए भी दूभर हो जाता है।

सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले प्रयास भी उतने महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं, जितने कि सरकारी प्रयास। सरकार की मजबूरी है कि, असंगठित क्षेत्रो में उसके प्रावधानों का नियमन करा पाना व्यावहारिक रूप में संभव नहीं हो पता वह अधिक- से-अधिक संगठित क्षेत्रों में ही नियमन करा पाती है।

यहाँ समाज कि भूमिका बहुत प्रभावी हो सकती है क्योंकि, सरकार दो स्तर पर प्रयास कर सकती है। पहला, लघुकालीक प्रयास जिसके अंतर्गत कड़े प्रावधानों एवं अन्य नियमों के माध्यम से व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर बाल श्रमिकों के खिलाफ “शून्य सहिष्णुता” (Zero tolerance) की नीति अपनाकर एवं दूसरा, दीर्घकालिक प्रयास के अंतर्गत बाल- श्रमिकों के पुनर्वास, उनकी शिक्षा की व्यवस्था, एवं उनका कौशल विकास कर स्वरोजगार के लिए आर्थिक मदद की व्यवस्था करना । जिससे कि वे समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकें।

सामाजिक स्तर पर बाल-श्रमिकों एवं उनके अभिभावकों के बीच जागरूकता फैलाना, उन्हें बच्चों पर आर्थिक दबाब बनाने से रोकने का प्रयास करना बाल श्रम करवाने वाले लोगों पर सामाजिक प्रतिबंध लगाना बच्चो की शिक्षा एवं उनके कल्याण के लिए चलाये जा रहे योजनाओं से जोड़कर उन्हें लाभान्वित एवं प्रेरित करने जैसे कई कदम शामिल किए जा सकते हैं। यह सत्य है कि बाल श्रम जैसी समस्या के निदान का कोई एक उपाय या तरीका तय नहीं किया जा सकता है लेकिन, एक सम्मिलित और लगातार किए जाने वाले प्रयास निश्चित रूप से कारगर साबित होंगे। बाल श्रम जैसे अभिशाप से मुक्त होना समाज के लिए अत्यंत ही आवश्यक है जिससे, मानव सभ्यता के बेहतर और प्रगतिशील  भविष्य की आधारशिला का निर्माण किया जा सके।

(अमित कुमार स्वतंत्र लेखक हैं और पटना (बिहार) में रहते हैं।)