पंजाब की फिजाओं में आप लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयाँ करती है

दिल्ली के बाद आम आदमी पार्टी की सबसे मजबूत स्थिति यदि कहीं है तो वह पंजाब में बताया जाता है।

दिल्ली के बाद आम आदमी पार्टी की सबसे मजबूत स्थिति यदि कहीं है तो वह पंजाब में बताया जाता है। क्यों है, यह अलग चर्चा का विषय है लेकिन फिलहाल पंजाब में आप की जमीनी हकीकत क्या है, उसकी पड़ताल जरूरी है। इससे पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर पंजाब में आम आदमी पार्टी का संसदीय इतिहास क्या है?

मसलन, वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में पंजाब में आम आदमी पार्टी के कुल 20 विधायक जीते थे। इनमें सुखपाल सिंह खैहरा, नाजर सिंह मानशाहियां, कंवर संधू, एचएस फुल्का, पीरमल सिंह खालसा, रूपिंदर कौर रूबी और जगदेव सिंह कमालू किसी न किसी कारण पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी छोड़ चुके आप के सात विधायक में से चार, सुखपाल सिंह खैहरा, रूपिंदर कौर रूबी, पीरमल सिंह खालसा, जगदेव सिंह कमालू फिलहाल कांग्रेस में हैं।

वोट के मामले में देखें तो वर्ष 2017 में आम आदमी पार्टी को 23.7 प्रतिशत वोट मिले थे। यह तब मिला था जब कई पार्टियों से आए प्रभावशाली नेता आप में शामिल हुए थे और पंजाब में आम आदमी पार्टी की हवा चलने लगी थी। लोकसभा चुनाव की यदि बात की जाए तो 2014 में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन पदेश में बहुत बढ़िया रहा और पार्टी सिंबाॅल पर लड़े धर्मवीर गांधी पटियाला संसदीय सीट से, भगवंत मान संगरूर संसदीय सीट से और हरिंदर सिंह खालसा फतेहगढ़ साहिब संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीते।

याद कीजिए जब पंजाब के तीन संसदीय क्षेत्र पर आप का कब्जा हो गया तो कहा जाने लगा कि अब अगली सरकार आप की ही बनेगी। पार्टी को सरदार प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाले शिरोमणि अकाली दल एवं भारतीय जनता पार्टी गठबंधन का मुख्य प्रतिद्वंद्वी तक बताया जाने लगा।

प्रेक्षक यह अनुमान लगाने लगे कि 2017 के विधानसभा चुनाव में आप की न केवल जीत होगी अपितु 117 विधानसभा सीटों में से 70-80 सीटों पर पार्टी फतह हासिल करेगी। लेकिन प्रेक्षकों का अनुमान धरा का धरा रह गया और कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस बाजी मार ले गयी। पूरे देश में मोदी लहर के बावजूद पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन बुरी तरह चुनाव हारा।

तकरीबन साढ़े तीन महीने बाद 2022 में पंजाब में एक बार फिर से विधानसभा का चुनाव होना है। इस बार राजनीतिक समिकरण 2017 से बिल्कुल भिन्न है। जिस कैप्टन के नेतृत्व में कांग्रेस पंजाब विधानसभा का चुनाव जीती थी वे इस बार अपने कुन्बे के साथ पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं।

आम आदमी पार्टी के अधिकतर पुराने साथी या तो चुनावी राजनीति से अलग हो चुके हैं या फिर पार्टी छोड़ चुके हैं। अकाली, भाजपा की राह अलग हो चुकी है। विगत लंबे समय से इकट्ठे रहे अकाली, भाजपा इस बार के विधानसभा चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकेंगे। हालांकि दोनों के संबंधों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है लेकिन फिलहाल तो दोनों के रास्ते अलग दिख रहे हैं।

ऐसे में किसका पलड़ा भारी है और किसका हल्का यह कहना बहुत कठिन है लेकिन वर्तमान स्थिति और जातीय समिकरणों से कुछ अनुमान जरूर लगाया जा सकता है।

सबसे पहले तो सत्तारूढ़ कांग्रेस की बात की जाए। पंजाब में कैप्टन के चले जाने के बाद भी कांग्रेस फिलहाल अपरहैंड है। कांग्रेस पार्टी से अलग कैप्टन का कोई राजनीतिक आधार नहीं है। कैप्टन अमरिंदर पहले भी अपनी ताकत आजमा चुके हैं। इसलिए यह कहना कि कैप्टन के चले जाने के बाद कांग्रेस का भविष्य अधर में है यह गलत होगा।

भारतीय जनता पार्टी और बादल गुट वाले शिरोमणि अकाली दल की स्थिति प्रदेश में बहुत बुरी है। दोनों इकट्ठे हो जाएं तो थोड़ी बात बने लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ दिख नहीं रहा है। रही बात आप की तो निःसंदेह आप प्रदेश में संघर्ष करती दिख रही है। पंजाब के मानस के अनुकूल आप युवा और जीवंत दिख रही है लेकिन आप के साथ एक बड़ी विडंवणा खुद पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल हैं।

केजरीवाल पार्टी को मोदी-भाजपा की तरह अपने पर केन्द्रित करना चाहते हैं। यह पंजाब में नहीं चलेगा और केजरीवाल को चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा सार्वजनिक करना ही होगा। 2017 के विधानसभा चुनाव में पंजाब के अधिकतर दलित आप को अपना वोट दिए लेकिन इस बार कांग्रेस ने दलित कार्ड खेल कर आप के लिए चुनौती खड़ी कर दी है।

जानकारी में रहे कि पंजाब के राजनीतिक इतिहास में पहली बार कोई दलित समाज का नेता मुख्यमंत्री बना है। सरदार चरणजीत सिंह चन्नी दलित समाज से आते हैं और पंजाब में अनुसूचित जाति का वोट प्रतिशत 35 के करीब है। इसका लाभ कांग्रेस को जरूर मिलेगा। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया है लेकिन आम आदमी पार्टी में इसको लेकर भी भारी मतभेद है।

जानकार सूत्रों की मानें तो खुद अरविन्द केजरीवाल की पत्नी ने बठिंडा से अपना मतदाता पहचा-पत्र बनवाया है। जानकारों का कहना है कि अरविन्द केजरीवाल पंजाब में अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। इस बात की चर्चा यदि जोर पकड़ती है तो पार्टी 20 सीट भी नहीं जती पाएगी।

पिछली बार पार्टी जीतते-जीतते कैसे हार गयी? इसके पीछे हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण सबसे बड़ा कारण था। पंजाब में हिन्दू वोटरों की संख्या भी अच्छी खासी है। कुल 67 ऐसे विधानसभा हैं जहां का जीत-हार हिन्दुओं के वोट पर पर आधारित है। चूंकि केजरीवाल की पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में गरमपंथी सिखों के हाथ मिला लिया इसलिए हिंदुओं ने एकमुश्त कांग्रेस को अपना वोट दे दिया। बाद में जब कैप्टन के नेतृत्व में सरकार बनी तो हिन्दुओं का खासा ध्यान रखा गया।

कई मामले सुलझाए गए और पंजाब में नए ढ़ंग से पनप रहे खालिस्तानी आतंकवाद को भी लगभग समाप्त कर दिया गया। इसलिए केजरीवाल की पार्टी को यदि इस बार सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना है तो दो बातों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा-पहला, पंजाब के किसी जाट सिख नेता को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रस्तुत करना होगा और दूसरा, पंजाब में सक्रिय गरमपंथी सोच रखने वालों से दूरी बना कर रखनी होगी। ऐसा करते हैं तो सी-वोटर की भविष्यवानी सही साबित होगी अन्यथा आप का हस्र 2017 से भी बुरा होगा।

First Published on: December 12, 2021 5:11 PM
Exit mobile version