बिहार की राजनीति : नेता बदले हैं लेकिन नीयत नहीं!

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बिहार Updated On :

जब नरेंद्र मोदी ने गुजरात की बागडोर संभाली, तो उनके पास एक ठोस ब्लूप्रिंट था-औद्योगिक गलियारे, निवेश सम्मेलन, बिजली-सड़क-पानी पर युद्धस्तर पर काम, और नौकरियों का सृजन। आज वही गुजरात देश को प्रधानमंत्री और गृह मंत्री देने वाला राज्य बन गया है।

बिहार में भी 2005 में नीतीश कुमार ने सत्ता संभालते ही देर रात तक बैठकें, जिला योजनाएँ, और पंचायती स्तर तक बदलाव के लिए नीतियाँ बनाई थीं। भले ही परिणामों को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन यह कहना गलत होगा कि उनके पास “योजना” नहीं थी।

रामविलास पासवान की भी यही समस्या थी-उनके पास बिहार को बदलने की स्पष्ट “नीति” नहीं थी। इसलिए जब जंगलराज का अंत हुआ, तब भी उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूरी बनाए रखी।

आज हर कोई मुख्यमंत्री बनना चाहता है-बिना सोच, बिना नीति, बिना विकास के विज़न के। प्रशांत किशोर एकमात्र नाम थे जिन्होंने थोड़ी उम्मीद जगाई, लेकिन सिंगापुर मॉडल की बात करके उन्होंने खुद को हास्यास्पद बना लिया। 60 लाख की आबादी वाले देश की तुलना 13 करोड़ की आबादी वाले राज्य से करना वही कर सकता है, जो ज़मीन की हकीकत से अनजान हो। उनकी चुनावी नियमों की समझ की कमी, “कैश फॉर वोट” जैसी बातों को सार्वजनिक रूप से कहना, और टिकट बाँटने की अराजक शैली ने उन्हें गंभीर विकल्प बनने से रोक दिया।

BJP की स्थिति बिहार में पूरी तरह भ्रमित करने वाली है। ना तो वे नीतीश से अलग हो पा रहे हैं, ना ही अकेले चलने की हिम्मत दिखा रहे हैं। यादव और मुस्लिम वोटों के पीछे भागते-भागते वे अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। जो वर्ग BJP को वोट नहीं देता, उसी के पीछे वे पागलपन की हद तक दौड़ रहे हैं।

बिहार का पढ़ा-लिखा, प्रोफेशनल तबका बाहर जाकर सेटल हो चुका है। जो वोट करता है, वह आज भी जाति के नाम पर वोट देता है। कुल मिलाकर, बिहार में सरकार जाति से बनेगी, जाति के लिए बनेगी, और जाति पर चलेगी- विकास पर नहीं। नीतीश कुमार के आखिरी बजट में कुछ योजनाएँ ज़रूर थीं, जो ज़मीनी हकीकत को ध्यान में रखकर बनाई गई थीं:

  • ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तकनीकी संस्थान
  • बागवानी और जैविक कृषि को बढ़ावा
  • हर घर जल, हर गली नाली योजना का विस्तार
  • इंटर पास छात्रों के लिए स्किल डेवलपमेंट मिशन
  • स्वास्थ्य उपकेंद्रों को अपग्रेड करने का रोडमैप

यदि उन्हें फिर से मौका मिला (BJP के साथ या बिना), तो उनका ‘पैचवर्क मॉडल’ आगे बढ़ सकता है। लेकिन बाकी सभी नेता और दल अभी सिर्फ सोशल मीडिया के पोस्टर ब्वॉय बने हुए हैं। बिहार में नेतृत्व का संकट सिर्फ चेहरों का नहीं, सोच का है। यहाँ सवाल यह नहीं है कि कौन जीतेगा, सवाल यह है-क्या बिहार कभी बदलेगा?