पटना । भारतीय संविधान यद्धपि जनतांत्रिक मूल्यों की वास्तविक निधि है परन्तु बहुलतावाद को किनारे करके कभी कभी बहुसंख्यक समाज के आधिपत्य का शास्त्र गढ़ा जाता है, यह लोकतंत्र की जड़ों को खोदने जैसा है। सामाजिक और आर्थिक असमानता जनतंत्र को कमज़ोर करने के सबसे घातक हथियार हैं और समाज में बिना वैज्ञानिक सोच और दृष्टिकोण के विकास के हम अपने देश और संविधान की रक्षा नहीं कर सकते।
बज़्मे सदफ़ इंटरनेशनल, पटना द्वारा आयोजित प्रथम शफी जावेद स्मृति व्याख्यान में भारतीय लोकतंत्र : वर्त्तमान चुनौतियाँ विषय पर बोलते हुए प्रख्यात उपन्यासकार, पुलिस प्रसाशक एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विश्विद्यालय विभूति नारायण राय ने ये बातें कहीं।
उन्होंने आधुनिक विश्व में लोकतंत्र के इतिहास के रेखांकित करते हुए यूरोपीय समाज को याद किया जहाँ लोकतंत्र की आधारशिला अब से 800 वर्षा पूर्व रखी गयी थी। उन्होंने बताया की लोकतंत्र की स्थापना के लिए जो आंतरिक तैयारी भारतीय समाज को करनी थी वो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी के गहन प्रयासों के बावजूद नहीं हो सकी थी।
सामाजिक और आर्थिक स्तर पर असमानता की रुकावटें अपनी जगह, धार्मिक समाज के जटिल बंधन, विकास की गति के लिए हमेशा अवरोधक बने रहे।
राय ने वर्ण व्यवस्था को बड़ी बाधा के तौर पर रेखांकित किया जिसके प्रभाव में हमारा जनतंत्र रह रह कर तबाह होता रहा है। उन्होंने कहा कि आस्था और धार्मिकता के मुक़ाबले वैज्ञानिकता को जब तक विवेकशील समाज का निर्धारक नहीं बनाएँगे तब तक जनतांत्रिक संस्थाओं पर ख़तरे मंडराते रहेंगे।
बज़्मे सदफ़ इंटरनेशनल, पटना के निदेशक प्रो. सफ़दर इमाम क़ादरी ने सत्र आरम्भ करते हुए उर्दू के ख्याति प्राप्त कथाकार शफ़ी जावेद के योगदान की चर्चा की और उन्हें जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हेतु समर्पित लेखक स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि इसी कारण उनकी पुण्य तिथि पर इस विषय पर विभूति नारायण राय का व्याख्यान रखा गया।
व्याख्यान की अध्यक्षता करते हुए मूर्धन्य कवि आलोक धन्वा ने उर्दू हिंदी भाषाओं और हिन्दू मुस्लिम साझा समाज को पूर्ण रूपेण संरक्षित किये बिना जनतंत्र को पचा पाना मुश्किल क़रार दिया। उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि भारतीय समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए वे संघर्ष हेतु सामने आएँ।
इस आयोजन में कई लब्ध प्रतिष्ठ लेखक, पत्रकार एवं बुद्धिजीवी मौजूद थे। उर्दू पत्रकार डॉ. रैहान गनी ने अनेकता में एकता को भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति माना। उनका कहना था की इसके बिना लोकतंत्र की आकाश पर छाए अंधेरों से हम मुक़ाबला नहीं कर सकते।
अंग्रेजी लेखक प्रो. कुमार चंद्रदीप ने लोकतंत्र की बाधाओं में आर्थिक असमानता और मेहनत कश लोगों को पिछले पायदान पर डाल देने की घटना को प्राथमिकता दी। उन्होंने किसान आंदोलन को उद्धृत करते हुए यह चिंता व्यक्त की कि जनतांत्रिक समाज में किसी भी सरकार की ओर से ऐसी बेरुख़ी नहीं होनी चाहिए।
विख्यात उर्दू उपन्यासकार अब्दुस समद ने बौद्धिक समाज की ख़ामोशी पर चिंता व्यक्त की और ख़तरे समय उन्हें उग्रता से अपनी बात समाज के सामने रखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि भारतीय जनतंत्र की जड़ें मज़बूत हैं मगर रह रह कर जो षड़यंत्र होते रहते हैं उनका मुखर विरोध होना चाहिए।
वयोवृद्ध लेखक एवं पूर्व प्रशासक शफ़ी मशहदी ने कहा कि भारतीय जनतंत्र पर जो ख़तरे दिखाई दे रहे हैं उनसे यद्धपि मैं बहुत चिंतित हूँ परन्तु निराश नहीं। हमारे बीच जनतंत्र और उसके मूल्यों को दिल से मानने वाले बड़ी संख्या में हर समाज में मौजूद हैं। इसलिए जो ख़तरे हैं, वे तात्कालिक हैं मगर उनसे संघर्ष किये बिना समाज को सही दिशा पर नहीं लाया जा सकता।
स्मृति व्याख्यानमाला के आयोजक प्रो. सफ़दर इमाम क़ादरी ने अतिथियों को धन्यवाद देते हुए आलोक धन्वा की चर्चित कविता सफ़ेद रात पढ़ कर जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास के माहौल के विकास के लिए प्रयासरत रहने का आह्वान किया।