महागठबंधन के सामने देश व संविधान को बचाने का है बड़ा मकसद-दीपंकर भट्टाचार्य

आज हमारे सामने मामला अलग है। जेपी आंदोलन की दो धारा हमारे सामने है। एक धारा जेपी से होते हुए बीजेपी तक की यात्रा वाली है। उस धारा वाले लागे इस सभागार में नहीं है, बाहर हैं और देश को बर्बादी के रास्ते धकेल रहे हैं। और दूसरी धारा जो उससे निकली , उसके साथ बीजेपी के खिलाफ लड़ने के लिए आज एक दूसरे तरह का गठबंधन बना है।

आज के ऐतिहासिक महासम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे हमारे नौजवान साथी तेजस्वी जी, महागठबंधन दल के तमाम नेतागण व सभागार में राज्य के कोने से कोने से आए तमाम संघर्षशील साथियो, आप सबको जय भीम – लाल सलाम!

आज एक ऐतिहासिक अवसर है। 74 आंदोलन यानि संपूर्ण क्रांति का उद्घोष आज ही के दिन हुआ था। 48 साल उसके हो गए। इसलिए आज कुछ बात इतिहास की होगी। हम भी कुछ करेंगे। लेकिन उससे पीछे के भी कुछ इतिहास का जिक्र करूंगा। बहुत पीछे नहीं जाना है बल्कि 1974 से ठीक सात साल पहले 1967 के दौर की बात करूंगा। जब देश की पूरी राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखा गया। सामाजिक बदलाव की लड़ाई में 1967 एक मील का पत्थर है, जब दो बड़ी बातें हुई थीं। पहली – बहुत सारे राज्यों में जो चुनाव हुए थे, पहली बार एक नहीं बल्कि 9 राज्यों में बदलाव के संकेत दिखे और गैर कांग्रेसी सरकार बनी। उन दिनों कांग्रेस की सरकार ही हुआ करती थी, और आज जितना भाजपा का कब्जा है, शायद उससे ज्यादा कांग्रेस का कब्जा था।

देश में संसदीय विपक्ष व संसदीय धारा में एक बड़ा बदलाव दिखा। दूसरी बात, जहां से हमारी पार्टी निकली – नक्सलबाड़ी आंदोलन की बात करूंगा। नक्सलबाड़ी का किसान उभार आजादी के बाद गरीबों का राज स्थापित करने, उन्हें पूरा हक दिलाने तथा सत्ता पर मजदूर-किसानों के कब्जे की लड़ाई थी। नक्सलबाड़ी की चिंगारी पहले बिहार के मुजफ्फरपुर के मुसहरी और फिर भोजपुर के एकवारी में गिरी। 1974 से पहले 1972 की बात कर लें। एक महान शहादत का 50 साल होने जा रहा है। वह शहादत कॉ. जगदीश मास्टर की है। जिस लड़ाई को काॅ। रामनरेश राम, काॅ। जगदीश मास्टर, रामेश्वर यादव, बूटन राम आदि ने शुरू की थी, वह कोई चुनाव वाली लड़ाई नहीं थी, बल्कि सामंती सत्ता को बदलकर गरीबों का मान-सम्मान स्थापित करने वाली लड़ाई थी।

उसी कड़ी में 74 का भी आंदोलन आता है। शहरों में छात्र-नौजवानों का उभार था और गांवों में गरीबों का उभार। दोनों लड़ाई अलग-अलग थी। राजनीतिक- वैचारिक बात करें तो तीनों कम्युनिस्ट पार्टी 74 के आंदेालन में नहीं थी। आज 48 साल बाद हम एक जगह पर हैं। इस बीच गंगा-कोसी-सोन में बहुत पानी गया है। सत्ता ने जेपी आंदोलन को कुचलने के लिए भी दमन का सहारा लिया और हमारे आंदोलन को भी कुचलने के लिए जबरदस्त दमन अभियान चलाया। यदि 74 के आंदोलन के नेता जेल में बंद किए गए तो हमारी पार्टी के दूसरे महासचिव कॉ. सुब्रत दत्त 75 में भोजपुर आंदोलन में शहीद हो गये। दोनों आंदोलन अलग-अलग थे, लेकिन राजसत्ता ने दोनों को दबाने का काम किया। लेकिन वह दमन चला नहीं। आपातकाल खत्म होने के बाद बिहार में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर बनते हैं और एक बड़ा बदलाव सामने आता है।

आज हमारे सामने मामला अलग है। जेपी आंदोलन की दो धारा हमारे सामने है। एक धारा जेपी से होते हुए बीजेपी तक की यात्रा वाली है। उस धारा वाले लागे इस सभागार में नहीं है, बाहर हैं और देश को बर्बादी के रास्ते धकेल रहे हैं। और दूसरी धारा जो उससे निकली , उसके साथ बीजेपी के खिलाफ लड़ने के लिए आज एक दूसरे तरह का गठबंधन बना है। इस महागठबंधन में फिलहाल चार दल हैं। हो सकता है कि महागठबंधन के लिए और भी पार्टियां चाहे। तीन कम्युनिस्ट पाटियों में माले का रिश्ता बहुत नया है। 15 साल राजद की सरकार के दौरान हम विपक्ष में थे। हमलोगों का खट्टा-मीठा रिश्ता रहा है। पिछड़े डेढ़ साल से एक साथ चल रहे हैं तो आज यह वक्त की जरूरत है। 75 का आपातकाल तो खत्म हो गया, लेकिन आज अघोषित आपातकाल है। यह अघोषित आपातकाल कुछ समय के लिए नहीं बल्कि स्थायी प्रकृति का है।

आज का आपातकाल अच्छे दिन के नाम पर है। उस समय कुछ लोगों को जेल में डाला जाता था, लेकिन आज उनके सामने दमन के नए-नए औजार हैं। ऐसा दमन इस देश ने कभी नहीं देखा, जब आज संविधान को रौंदा जा रहा है। हिंदुस्तान रहेगा कि नहीं रहेगा आज यह सबसे बड़ा सवाल है। 1992 में बाबरी मस्जिद जब गिराया जा रहा था, तो कुछ लोग उसे केवल सांप्रदायिकता कह रहे थे। कह रहे थे कि हमलोग भाईचारे से इससे निपट लेंगे। हमने उस वक्त भी कहा था कि यह महज सांप्रदायिकता नहीं है, बल्कि सांप्रदायिक फासीवाद है जो पूरे देश की परिभाषा व पहचान बदल देने पर आमदा है। बाबरी मस्जिद से होते हुए ताज महल, कुतुबमीनार तक आज निशाने पर आ गए हैं। भारत की पहचान ताजमहल पर सवाल खड़ा किया जा रहा है। आज बच्चों को सिखाया जा रहा है कि ये सब गुलामी के प्रतीक हैं। देश के इतिहास की जो खुबसूरती है, जिसपर हमें गर्व रहा है आज उसे विदेशी कहा जा रहा है। आजादी के अमृत महोत्सव के नाम पर जहर परोसा जा रहा है, तो आज की तारीख में हमारे सामने ये सबसे बड़े सवाल हैं।

इसलिए आज बड़ी लड़ाई की जरूरत है। इसकी नौबत पहले कभी नहीं आई थी। अंबेदकर ने संविधान बनाते वक्त कहा था कि इस देश की मिट्टी लोकतांत्रिक नहीं है, संविधान तो दे रहे हैं लेकिन असली जरूरत देश की मिट्टी को लोकतांत्रिक बनाने की है। उन्होंने कहा था कि यदि भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा तो इससे बड़ी कोई विपत्ति नहीं हो सकती है। आज वह खतरा हमारे सामने है। इस बड़े खतरे के लिए बड़ी लड़ाई की जरूरत है। हम इसे आजादी की दूसरी लड़ाई कह सकते हैं। उससे कम कुर्बानी नहीं देनी होगी।

हम आज एक आरोप पत्र केंद्र व राज्य सराकर के खिलाफ दे रहे हैं। हमारे सामने किसानों के मुद्दे हैं। तीन कृषि कानून के खिलाफ देश की राजधानी में लंबी लड़ाई चली। उसे लोगों ने दिल्ली वाली लड़ाई कहा। उसे पटना वाली लड़ाई बनाने का सवाल हमारे सामने है। चंपारण से लेकर दक्षिण बिहार के गांव-गांव तक एमसएपी की गारंटी को लेकर बड़ा किसान आंदोलन खड़ा करने का सवाल हमारे सामने है। विधानसभा चुनाव में 10 लाख रोजगार के बरक्स नीतीश कुमार ने 19 लाख रोजगार का वादा किया था। लेकिन आज पोस्ट खत्म हो रहे हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनका सीना 56 इंच का है। लेकिन होमगार्ड में भर्ती के लिए 62 इंच का सीना चाहिए। क्या मजाक है?

हमने रेलवे के निजीकरण व विश्वासघात के खिलाफ छात्र-युवाओं का गुस्सा देखा। इसलिए रोजगार कोई नारा नहीं बल्कि आज के दौर की सबसे बड़ी मांग है। हम सरकार के खिलाफ आरोप पत्र दे रहे हैं तो हमारा भी संकल्प पत्र है। और उस संकल्प को अमलीजामा पहनाने के लिए बड़े पैमाने पर लोगों का भरोसा जीतना होगा व ऊर्जा का संचार करना होगा। लेकिन हमारा महागठबंधन जिस रफतार से चल रहा है, उस रफतार व ढंग से तो बात नहीं बनेगी। इस गठबंधन को केवल चुनाव या बड़े आयोजनों का गठबंधन नहीं बल्कि रोजमर्रे के आंदोलनों का गठबंधन बनना होगा। इसे छात्र, नौजवान, अल्पसंख्यक, स्कीम वर्कर, मजदूर-किसान, तमाम मेहतकश समुदाय का गठबंधन बनना होगा।

यूपी जीतने के बाद भाजपा वाले, बिहार को यूपी बनाना चाहते हैं। बिहार में भी बुलडोजर राज लाने की कोशिश है। पहले बुलडोजर से लोग डरते थे, लेकिन यदि मोदी का वश चले तो शासन के साथ- साथ उसे अपना चुनाव चिन्ह भी बना दें। इसके खिलाफ साहस व उम्मीद व व्यापक एकता का गठबंधन चाहिए। संपूर्ण क्रांति व नक्सलवाडी की विरासत की यही मांग है।

आज देश में विरोध की कोई आवाज हो, उसे अर्बन नक्सल कहकर प्रताड़ित किया जा रहा है। हर विरोध की आवाज को नक्सल कहा जा रहा है, तब तो वास्तव में यह मानना होगा कि नक्सबाड़ी आंदोलन में कुछ तो बात थी। वह आंदोलन महज सत्ता परिवर्तन का नहीं बल्कि नीचे से आमूलचूल बदलाव की कोशिश थी। इसलिए भगत सिंह, अंबेडकर, किसान आंदोलन, नक्सलबाड़ी, 74 की जो हमारी विरासत है, वह महज चंद सीटों के लिए नहीं है। यह गठबंधन किसी छोटे मकसद का नहीं हो सकता है। महागठबंधन बना है तो चलेगा महामकसद के लिए, देश को बचाने व बदलने के लिए। 74 आंदोलन बिहार से शुरू हुआ था। आज सुपर आपाताकाल है। इसलिए आंदोलनों की रफ्तार तेज करनी होगी। महंगाई, बेरोजगारी ,राशन कार्ड छीने लिए जाने के खिलाफ बड़े आंदोलन की जरूरत है। हम 7 अगस्त से इसकी शुरूआत कर सकते हैं।

आज हम एक नई शुरूआत की उम्मीद करते हैं। इस महासम्मेलन को इसी रूप में देखना चाहिए। यह महागठबंधन चुनाव 2020 के समय बना। उसके पहले अलग गठबंधन था, गठबंधन तो बदलता रहा है, बदलता रहेगा, लेकिन सामने बड़ी लड़ाई है, उसके लिए आंदोलन की ऊर्जा का सृजन करना होगा। कुछ लोग कहते हैं कि नीतीश जी में अभी भी उर्जा बची हुई है। एक बार फिर वे इधर आ सकते हैं। हमें पता नहीं कि उनके भीतर कितनी ऊर्जा बची है, इधर आयेंगे या नहीं। यह सवाल नहीं है। सवाल आंदोलनों का है, जनता का है। हमें अपनी उर्जा के बल पर 2024 आते-आते इस फासीवादी सरकार को खत्म करना होगा। यह केवल वोट से नहीं बल्कि गांव-गांव में व्यापक अभियान चलाकर, व्यापक आंदोलन खड़ा करके ही किया जा सकता है। हमें पूरी ईमानदारी से कोशिश करनी होगी ताकि लोग फिर सच्चाई के चश्मे से हिंदुस्तान को देख सकें। इस बड़ी लड़ाई में सभी को कदम से कदम मिलाकर चलना होगा। इस गठबंधन में भाकपा-माले सबसे नौजवान व नई पार्टी है, हम अपनी पूरी उर्जा के साथ इस लड़ाई को लड़ने को तैयार हैं।

(सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य का 5 जून का भाषण)

First Published on: June 6, 2022 12:59 PM
Exit mobile version