द्विविवाह: महिलाओं के खिलाफ एक अनुचित परंपरा: पारुल खेड़ा


नई दिल्ली। सामाजिक एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता पारुल खेड़ा ने कहा कि हममें से ज्यादातर लोग ऐसी दुनिया में पले-बढ़े हैं जहां शादी सिर्फ एक व्यक्ति के साथ की जाती है। हालांकि ऐसी दुर्भाग्यााली महिलाएं भी हैं जिनके पति ने अन्य महिला के साथ शादी की है। किसी महिला के लिए इस तरह की स्थिति से जूझना बेहद अपमानजनक और दुखद होता है जब उन्हें अपने पति को किसी अन्य महिला के साथ साझा करना पड़ता है।

यह स्थिति महिला के लिए बेहद निरााशाजनक और लगातार संघर्षों से जूझने वाली होती है। बाइगेमी का मतलब किसी व्यक्ति द्वारा एक समय में दो लोगों के साथ शादी कर लेना होता है। इसलिए, जब व्यक्ति पहले से ही शादीशुदा हो और शादी वैध हो, तो वह किसी अन्य के साथ दूसरी शादी करता है तो उसे बाइगेमी यानी द्विविवाह कहा जाता है।

अलग अलग कानूनी व्यवस्थाओं के साथ कई देशों में कानून किसी व्यक्ति को बहुविवाह की अनुमति देता है और वर्तमान पत्नी को अपने पति की नई महिला से शादी पर आपत्ति करने से रोकता है। यह परंपरा महिला को अपने परिवारों के कमजोर सदस्यों और पुरुषों के मुकाबले महत्वहीन दर्जे के तौर पर दर्शाती है।

पारुल खेड़ा ने कहा कि महिलाओं को द्विविवाह/बहुविवाह के बोझ का सामना करना पड़ता है। इसकी मुख्य वजह यह भी है कि पुरुष आधिकारिक तौर पर संबंध विच्छेद के बगैर ही शादी करने का निर्णय ले लेते हैं और फिर उनकी पत्नी को कई तरह के मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, क्योंकि मुस्लिम लाॅ उन्हें चार पत्नियां रखने की अनुमति देता है। यह मौलिक और महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। वे अपनी पत्नियों को चल संपत्ति के तौर पर समझते हैं।

अध्ययनों में भी यह पाया गया है कि जिस परिवार में द्विविवाह हुआ हो, वहां अवसाद, चिंता, आक्रामकता, मनोविकृति और मनोविकारों का उच्च अनुपात देखा जाता है। पत्नियों को भी घटती जिंदगी, वैवाहिक संतुष्टि के अभाव, असंतुष्ट परिवार और अपमान का सामना करना पड़ता है। यह सब इस तथ्य की वजह से होता है कि एक महिला के लिए अपने पति को वासना से बहुविवाह करते हुए देखना, या उसे अपने कार्य को वैध बनाने के लिए शरीयत का लाभ उठाकर हिंदुओं की तुलना में तेजी से बच्चे पैदा करने की मानसिकता के साथ यह देखना बेहद दुखद होता है।

पारुल खेड़ा के मुताबिक मुस्लिम धर्म के सम्मान में, बाहरी शादियों की परंपरा लिंग-केंद्रित होनी चाहिए, जिनमें महिलाओं को अपने दम पर आगे बढ़ने या निर्णय लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। सती, तीन तलाक, बाल विवाह और कन्या भ्रूण हत्या जैसी पुरानी अनुचित परंपराओं की तरह ही द्विविवाह को भी समाज से अलग किए जाने की जरूरत होगी, क्योंकि यह मौजूदा समय में बेहद जरूरी है। साथ ही यह बदलाव भारत में मुस्लिम महिलाओं के सशक्ति करण के लिए बड़ा कदम होगा, इससे उन्हें एक सुरक्षित और उज्जवल भविय मिलेगा।

जब बात द्विविवाह की हो तो हिन्दू विवाह अधिनियम पुरूष और महिला, दोनों पक्षों के लिए अनिवार्य है और यह उन्हें समान अधिकार एवं अवसर प्रदान करता है। द्विविवाह को दूर करने में मदद के लिए इसी तरह की जरूरत अन्य धर्मों और रिवाजों के लिए जरूरी होगी। यह अनगिनत महिलाओं की गरिमा, क्षमता, स्वतंत्रता को पुनर्जीवित करने के लिए एक बड़ा कदम होगा। महिलाओं की मदद के लिए कानून पर सख्ती से अमल की जरूरत है।

इस तथ्य पर ध्यान देने की जरूरत है कि महिलाएं गुलाम नहीं हैं और उन्हें विवाह के संदर्भ में, विवाह के दौरान और तलाक के बाद भी समान अधिकार दिए जाएं। द्विविवाह हिंदुओं, ईसाइयों और पारसियों में प्रचलित नहीं हैं, लेकिन मुस्लिम समुदाय में इसे मान्यता हासिल है, जहां मुस्लिम महिलाओं को पीड़ित किया जाता है। द्विविवाह/बहुविवाह को भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत भारत में अपराध समझा गया है।

हालांकि यहां कानून में दोष यह है कि संबंधित व्यक्तिगत कानूनों, रीति-रिवाजों और समुदायों की प्रथाओं के आधार पर दूसरे या बाद के विवाह के लिए आपराधिकता या अभियोग को लेकर कानून में अंतर है। चूंकि देश प्रति एक हजार पुरुाों पर 900 महिलाओं के अनुपात की समस्या से पहले से ही जूझ रहा है। ऐसे में जब कोई एक व्यक्ति कई शादियां करने का निर्णय लेता है तो यह अनुपात और ज्यादा प्रभावित हो रहा है। इससे समुदाय के अन्य युवा सदस्यों पर भी प्रभाव पड़ रहा है।

समाज को तब तक ऐसे मामलों की खुले तौर पर आलोचना करनी चाहिए, जब तक कि ये लोग यह अहसास न करें कि वाकई महिलाओं के प्रति ऐसा व्यवहार सही नहीं है। अब समय आ गया है कि हम एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर इस मुद्दे को किचन टेबल से आगे ले जाकर सार्वजनिक एजेंडे में शामिल कराएं। बता दें कि @Parul_Khera पारुल खेड़ा एक उद्यमी और नए जमाने की युवा सामाजिक एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं। वह द्विविवाह के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ रही हैं, क्योंकि इससे मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।

वह ऐसे मामले में मूल याचिकाकर्ता भी हैं। वह एक स्व-निर्मित महिला हैं और महिलाओं को पहले से ज्यादा सक्षम तरीके से आवाज उठाने में मदद करती हैं और महिलाओं के कल्याण के लिए बदलाव लाना चाहती हैं। महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले एनजीओ के साथ काम करने के अलावा वे लिंग समानता, महिला सशक्तिकरण , सामाजिक अन्याय, जातिवाद, सांप्रदायिकता, और भेदभाव के अन्य स्वरूपों से संबंधित विभिन्न बहस और चर्चाओं में राट्रीय समाचार चैनलों पर भी दिखती हैं। वे हमारे देश में प्रचलित मौजूदा पितृसत्तात्मक आर्थिक और सामाजिक समानता की हकदार हैं।



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