राजस्थान। राज्य के सत्ता संग्राम में विजेता की तरह उभरे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बेशक कई कांग्रेस नेताओं के दुलारे बन गए हैं। लेकिन उनके हंसी-ठहाकों में रिसता दर्द साफ नजर आता है कि, ‘कभी-कभी सीने पर पत्त्थर भी रखना पड़ता है। पिछले एक महीने से गहलोत अपनी ही सरकार के नायब मुख्यमंत्री सचिन पायलट और उनके 19 समर्थक मंत्री, विधायकों के निशाने पर थे, जिन्होंने भाजपा की शह पर उन्हें अपदस्थ करने की मुहिम छेड़ रखी थी। सियासी दांव-पेच देखते हुए लगता था कि ‘पायलट के कंधे का इस्तेमाल करते हुए भाजपा कभी भी अपने खेल में सफल हो सकती है।
गहलोत के खिलाफ तूफान कितना मजबूत था? यह समझने के लिए यह तथ्य काफी है कि,‘एक तरफ तो पायलट सरकार गिराने के लिए आस्तीनें चढ़ाए हुए थे। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री बनने की लालसा में केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीष पूनिया गुट ने पेचीदा जाल बुन लिया था। लेकिन विष्लेशकों की मानें तो, ‘गहलोत ने वसुंधरा कार्ड का बखूबी इस्तेमाल किया। नतीजतन भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व में भगदड़ मच गई। सौदेबाजी छोड़ उसे अपना ही घर संभालने के लिए जूझने की नोबत आ गई। सूत्रों की मानें तो ‘इस मौके को राजनीतिक हाशिए पर ठिठकी हुई वसुंधरा राजे ने भी बखूबी भुनाया। राजे को भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने ज्यादा ही सहजता से ले लिया था। उन्होंने साबित कर दिया कि, राजस्थान की राजनीति में उनके अंगदी पांव उखाड़ना सहज नहीं है।
राजनीतिक विश्लेषक डा. सतीष मिश्रा की मानें तो, ‘अपनी कुछ गंभीर खामियों के बावजूद गहलोत ने यह सिद्ध कर दिया कि वे राजनीति के चतुर और मंजे हुए खिलाड़ी है। जरूरत पड़ने पर अपने विरोधियों से भी हाथ मिला सकते हैं। उन्हें बागी विधायकों को मनाने की मशक्कत नहीं करनी पड़ी। बल्कि भंवरलाल शर्मा समेत बागी विधायक यह कहते हुए गहलोत की झोली में टपक पड़े कि, ‘पार्टी एक परिवार की तरह है। मुख्यमंत्री गहलोत हमारे मुखिया है।’ सूत्रों का कहना है कि, ‘‘ये लोग पहले से ही भाजपा के साथ जाने के पक्ष में नहीं थे। अब उनका दबाव ज्यादा बढ़ गया तो पायलट के लिए आगे बढ़कर पार्टी के षिखर नेताओं से संपर्क साधना मजबूरी बन गया। इस बीच कांग्रेस में एक और कहानी शुरू हो गई।
सूत्रों का कहना है कि गहलोत का दम-खम परखने के लिए पार्टी महासचिव वेणुगोपाल ने जैसलमेर में पार्टी विधायकों से अलग-अलग बात कर फीड बैक लिया तो सभी विधायक पूरी निष्ठा से गहलोत के पाले में नजर आए। इस कहानी ने भी बागियों की हवा निकालने का काम किया। दिलचस्प बात रही कि, ‘मुख्यमंत्री बनाने का राजहठ पाले हुए पायलट ने वरिष्ठ नेताओं के सामने अपना दर्द तो साझा किया। लेकिन मुख्यमंत्री बनाने का जिक्र तक नहीं किया। शीर्ष नेताओं से मुलाकात का पुल तैयार करने में पायलट के ससुर शेख अब्दुल्ला ने भी कंधा लगाया। राजनीतिक विष्लेशकों का कहना है कि, ‘खुद को औकात से ज्यादा आंकने में यहीं गडबड़ होती है कि आप दूसरों को कम आंकने लगते हैं। पायलट ने यही किया। अहंकार को सहलाने में जुटे पायलट ऐसे कदम उठा बैठे, जो खुद उन्हीं के लिए आत्मघाती साबित हुए।
बहरहाल विरोध के घास-फूस को आगजनी से बचाकर मेल-मिलाप की खाद डालने का काम शुरू हो गया है। विश्लेषकों का कहना है कि, ‘पायलट के लिए पार्टी का अपरिहार्य बनने के अनेक अवसर थे। लेकिन अनुभवहीनता के चलते सब कुछ गंवा दिया। अपनी जल्दबाजी के चलते पायलट अपने दमदार साथियों को भी दूर कर चुके हैं। पायलट के लिए सबसे बड़ी विडंबना है कि, उन्होंने साख ही गंवा दी। भले ही वे पार्टी में लोट आए। लेकिन इस बीच जो शब्दयुद्ध चला उसकी गरमाहट जल्दी ही खत्म होने वाली नहीं।
इस पूरे विवाद को सुलझाने में प्रियंका की भूमिका को सियासतदान एक खास नजरिए से देखते है। उनका कहना है, ‘पायलट युवा है गुर्जर समुदाय से है। प्रियंका उत्तर प्रदेश के चुनावों में उनका उपयोग कर सकती है।’ इस संभावना में दम है तो फिलहाल पायलट को संगठन में महासचिव बनाया जा सकता है। पूरा राजनीतिक घमासान करीब 34 दिन तक ‘अनुभव’ और ‘महात्वाकांक्षा’ के बीच चला। इसमें बाजी ‘अनुभव’ के हाथ ही लगी।
(विजय माथुर वरिष्ठ पत्रकार हैं और राजस्थान के कोटा में रहते हैं।)