बदले हालात में पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण


इस चुनाव में अब तक मायावती की चुप्पी किसी के समझ में नहीं आ रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश कभी उसका गढ़ रहा है। इस इलाके में 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रचंड लहर के बावजूद बहुजन समाज पार्टी को भले ही दो विधानसभा सीट जीतने में ही सफलता मिली किन्तु वह 30 सीटों पर दूसरे नंबर की पार्टी भी बनी। इस क्षेत्र से दलितों और मुस्लिमों का पूर्व में बसपा को बड़ा समर्थन मिलता रहा है…



डॉ. विजय कुमार मिश्र

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और पहले चरण के नामांकन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद सभी राजनीतिक दल पूरे दमखम से इन सीटों पर जीत के लिए जुट गई है। 10 फरवरी कोपश्चिमी उत्तर प्रदेश के 11 जिलों के जिन 58 सीटों पर इसचरण मेंमतदान होना है, उसका खास सियासी महत्व है। इस पहले चरण से बनने वाली हवा का असर बाकी के चरणों पर भी पड़ेगा, दूसरा इन सीटों पर होने वाले मतदान के रुझान से पूरे उत्तर प्रदेश के रुझान के आकलन का सूत्र भी मिल सकेगा।पिछली बार पहले चरण की इन 58 में से 53 सीटें भाजपा को मिली थीं, इसलिए इस बार भी दांव पर सबसे ज्यादा उसी काहै।

मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद इस क्षेत्र के सियासी समीकरण में आए बदलाव ने यहाँ की राजनीति की दिशा बदल कर रख दी। पहले यह इलाका बसपा का मजबूत गढ़ माना जाताथा। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण और बदले सियासी समीकरण के बीच बसपा कमजोर होती गई और भाजपा का प्रभाव तेजी से बढ़ने लगा। हालाँकि इस इलाके में कमोबेश सभी प्रमुख दलों की मौजूदगी रही है।

पिछले कुछ वर्षों से यह क्षेत्र भाजपा के गढ़ के रूप में जाना जाने लगा है। मुजफ्फरनगर दंगा, कैराना में हिन्दुओं का पलायन, कानून व्यवस्था और अपराधियों पर नकेल जैसे मुद्दों ने भाजपा को इस इलाके में विस्तार का एक बड़ा आधार दे दिया। इसके साथ हीप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता, योगी की कट्टर हिंदुत्व की छवि और उनके हिन्दुत्व संबंधी एजेंडों ने भी इसको मजबूती ही प्रदान की।

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह इलाका पूरे उत्तर प्रदेश केलिए एक प्रयोगशाला की तरह है, जहाँ राजनीतिक दल अपना हर कदम वहां के जातीय समीकरण को साधने की दृष्टि से तो उठाते ही हैं, लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए अपने-अपने हिसाब से मुद्दों को उछालने का काम भीकरते हैं। इस चुनाव में वैसे तो इस इलाके का परिदृश्य कमोबेश पहले जैसा ही है लेकिन किसान आन्दोलनों के प्रभाव, समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय लोकदल के बीच हुए गठबंधन, ओवैसी के प्रत्याशियों को मिलने वाले समर्थन आदि केअसर का सटीक आकलन होना अभी शेष है। यह भी ध्यान रहे कि किसान आन्दोलन के उफान के दौरान भाजपा के लिए जैसी मुश्किलें लग रही थीं वैसी अब नहीं रही। किसानों की तल्खी काफी हद तक कम हो चुकी है। अब उनके लिए भी वहां का सामाजिक और सांप्रदायिक ताना-बाना ही धीरे धीरे चुनावी गोलबंदी का आधार बनने लगा है। भाजपा ने चुनाव की घोषणा से पहले ही मथुरा और कृष्ण जैसे मुद्दों से माहौल को अपने पक्ष में करने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। इस इलाके में किसानों के गन्ने की राशि के भुगतान में योगी सरकार में आई तेजी, टिकट वितरण के बाद सपा-रालोद के जमीनी कार्यकर्ताओं में पैदा हुए मतभेद, मायावाती और ओवैसी के द्वारा मुस्लिम प्रत्याशियों को बड़े पैमाने पर टिकट देने जैसी घटनाओं का भी भाजपा को फायदा ही होगा, ऐसा जान पड़ता है।

सपा ने कई आपराधिक मामलों के आरोपी और विशेष अदालत द्वारा भगौड़ा घोषित किए जा चुके नाहिद हसन को प्रत्याशी बनाने की भूल करके भी भाजपा को ही फायदा पहुंचाने का काम किया। भाजपा ने जिस तरह से इसे मुद्दा बनाकर सपा पर भारी दबाव बनाते हुए उसे अपना प्रत्याशी बदलने के लिए मजबूर कर दिया वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें कोई शक नहीं है कि किसान आन्दोलन का असर और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही इस क्षेत्र में इस चुनाव कामुख्य मुद्दा है। भाजपा ने किसान आन्दोलन के असर को लगभग समाप्त कर और हिंदुत्व को चुनावी मुद्दे के केंद्र लाकरअपनेप्रदर्शन को बेहतर करने की स्थिति ला दी है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के जो हालात थे और आज उसमें जिस तरह के बदलाव आएहैंउसका श्रेय भीभाजपा को मिलना तय है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश को दंगों और पलायन के लिए जाना जाता था लेकिन योगी सरकार में जिस तरह से दंगों पर रोक लगी और पलायन की जगह लोगों की घर वापसी हुई वह भाजपा के लिहाज से बहुत अहम है।पहले चरण के चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए अमित शाह ने जिस तरह से कैराना में पलायन के शिकार लोगों के घर जाकर औरउनसेमुलाक़ात कर इस मुद्दे को गरमाने की कोशिश की है, उसके भी अपने सियासी मायने हैं। अमित शाह ने पत्रकार वार्ता के दौरान कहा कि यही कैराना है जहाँ पलायन होता था लेकिन अब पलायन कराने वाले खुद पलायन कर गए हैं। उनके इस बयान से पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा की रणनीति का भी स्पष्ट संकेत मिलता है।

इससे पहले कांग्रेस को समर्थन की घोषणा करने वाले मुस्लिम नेता तौकीर रजा खान के हिन्दुओं के खिलाफ दिए गए भड़काऊ बयान संबंधी विडियो वायरल होने के बाद संबित पात्रा ने जिस तरह से प्रेस कांफ्रेस कर कहा कि कांग्रेस देश का नक्शा बदलने की चाह रखने वालों का समर्थन ले रही है, वह भी गौर करने लायक है।

इस चुनाव में अब तक मायावती की चुप्पी किसी के समझ में नहीं आ रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश कभी उसका गढ़ रहा है। इस इलाके में 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रचंड लहर के बावजूद बहुजन समाज पार्टी को भले ही दो विधानसभा सीट जीतने में ही सफलता मिली किन्तु वह 30 सीटों पर दूसरे नंबर की पार्टी भी बनी। इस क्षेत्र से दलितों और मुस्लिमों का पूर्व में बसपा को बड़ा समर्थन मिलता रहा है। 2012 के विधानसभा चुनावों में जब समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश में सरकार बनी, तब भी इस इलाके में बसपा को ही सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार के चुनाव में मायावती खुलकर अब तक मैदान में नहीं आ पाई है। चुनावी रैलियों पर चुनाव आयोग द्वारा प्रतिबन्ध लगाने से पहले सपा, भाजपा सहित अन्य दलों ने अपनी कई रैलियां इस इलाके में कीं लेकिन अपने इस गढ़ में बसपा सुप्रीमो मायावती की एक भीरैली नहीं हुई।और फिर बसपा ने जिस तरह से टिकट का वितरण किया है वह भीसमाजवादी पार्टी के लिए हीचिंता का कारण बन सकता है।

जाट बहुल इस इलाके में चौधरी चरण सिंह के परिवार की भी हमेशा कोई न कोई सियासी भूमिका रही है। इस बार किसान आंदोलन से बने माहौल में सपा और राष्ट्रीय लोकदल की सियासी साझेदारी को ख़ास माना जा रहा था, लेकिन टिकट वितरण के बाद इनके बीच जिस तरह का सिर फुटौव्वल देखा जा रहा है उससे वैसा माहौल नहीं बन पा रहा है। नरेश टिकैत के पहले समर्थन और फिर बयान वापस लेने से भी लोगों में भ्रम ही बढ़ाहै। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के कोर वोट बैंक के मिल जाने से जो नुकसान भाजपा को हो सकता था वह अब उस तरह से होता हुआ नहीं दिख रहा है। इधर ओवैसी की पार्टी भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों को एकजुट करने में लगी है। अगर उसका असर बिहार चुनाव के दौरान सीमांचल में हुए असर की तरह होता है तो सपा का खेल पूरी तरह से खराब भी हो सकता है।

ऐसी परिस्थिति में बदलेहालात में भी उत्तर प्रदेश के पहले चरण में भाजपा को ही स्पष्ट और निर्णायक बढ़त दिखाई देती है और आने वाले दिनों में उसका यह गणित और भी मजबूत हो सकता है।यदिअपने चुनाव अभियान सेभाजपा हिंदुत्व के एजेंडे को केंद्र में लाने सफल हो जाती है जिसकी पूरी संभावना दिखती है तो फिर समीकरण कमोबेश पिछले चुनाव जैसे ही बन सकते हैं। ऐसा पूरी तरह से नहीं हो पाने की स्थिति में भी भाजपा अन्य दलों से आज के दिन काफी आगे दिख रही है। आज के दिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यही सियासी गुणा गणित है।



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