भितरघात का शिकार बसपा


कांशीराम ने पार्टी को गढ़ा ही इसी तरह से था। उन्होंने बहुजन समाज की बिरादरी से नेतृत्व गढ़ा था। उसे पार्टी में जगह दी थी। संख्याबल के मुताबिक उनका प्रतिनिधित्व था। यही उनका दर्शन भी है। वे इसी सिद्धांत पर चले और पार्टी में बहुजन समाज को जगह दी।



लखनऊ। चुनावी परीक्षा का जो परिणाम आया है, उसमें बसपा फिसड्डी साबित हुई है। तकरीबन 19 फीसदी मतों के साथ वह तीसरे पायदान पर है। इसकी वजह भितरघात है। पर यह विश्लेषकों के विमर्श का हिस्सा कभी नहीं रहा। बात इधर-उधर की होती रही। हार के हजार कारण बताए गए। कोर वोट का खिसकना एक मसला रहा ही। उस पर लंबी-लंबी बहस चली। लेकिन भितरघात को लेकर राजनीतिक विश्लेषकों ने माथा-पच्ची नहीं की।

जब कि 21-22 फीसदी दलित मतदाता है। वे बसपा के साथ खड़े है, यह पार्टी का मत प्रतिशत बताता है। उसमें यदि एकाध प्रतिशत का बदलाव आ जाए तो उसे कोर वोट का खिसकना नहीं कहा जा सकता। मगर फिर भी बात उसी पर हो रही है। असल में यह एक तरह का प्रबंधन है, दलित वोट का बसपा से दूर करने का। उसी प्रबंधन का हिस्सा विश्लेषक बने हैं। अन्यथा विश्लेषण का विषय तो भितरघात है।

बसपा की यह सबसे बड़ी समस्या है। उसके कद्दावर नेता ही पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं। सात सीटों के उप चुनाव में यह बात स्पष्ट तौर पर देखने को मिली। उससे पहले भी कई मौके पर यह देखने में आया। मसलन 2017 में बसपा के एक कद्दावर नेता बिरादरी विशेष को जोड़ने में लगे थे। संगठन ने उसका दायित्व जो सौंपा था। वे उसमें लगे थे। बिरादरी विशेष का जगह-जगह सम्मेलन करा थे। लोग जान रहे थे कि वे बसपा को मजूबत करने में लगे हैं। उस समय चुनाव भी था। बहन जी की बड़ी-बड़ी रैलियों में वे बिरादरी विशेष को जुटा रहे थे।

पार्टी को भी यही लग रहा था कि वे उसका आधार मजबूत कर रहे हैं। लेकिन ऐन मौके पर वे भगवाधारी हो गए। इससे पार्टी के जनाधार को नुकसान पहुंचा। वे पार्टी के ब्राह्मण क्षत्रपों में शुमार थे। पश्चिम के कई क्षत्रपों ने बसपा को इसी तरह से नुकसान पहुंचाया। वे चुनाव में बसपा के साथ खड़े नहीं हुए। आश्वासन पूरा दिया, पर साथ किसी और का दे दिया। पश्चिम में तो यह बात पूरी तरह से सटीक बैठती है। इस इलाके में पार्टी के कई बड़े नेता है जो बिरादरी के क्षत्रप हैं, वे इन दिनों अपना रंग बदलने में जुटे है।। उन लोगों को नीला रंग नहीं भा रहा है। हाथी से भी परहेज हो गया है। अवसरवादी राजनीति का वे लोग नमूना है।

बसपा इससे जूझती रही है। इसमें कुछ नया नहीं है। पिछले दो दशक का इतिहास इस बात का गवाह है। 2017 में ही बसपा के एक और कद्दावर नेता बिटिया को टिकट न मिलने के कारण पार्टी से अलग हो गए। उसकी वजह से पार्टी को एक बड़े वोट बैंक का तत्काल नुकसान हुआ। पूर्वाचल और पश्चिम की कई सीटों पर उस बिरादरी का खासा प्रभाव है। तत्कालिक तौर पर उसका असर पड़ा ही। ऐसे ही कई लोग लोग अपनी-अपनी वजह से बसपा छोड़ते रहे। इसका नुकसान भी पार्टी को हुआ। लेकिन ऐसा नहीं है कि उसकी वजह पार्टी ठहर गई हो।

ऐसा होता भी नहीं है। पार्टी किसी के छोड़कर जाने से खत्म नहीं हो जाती। संगठन का स्वभाव भी यही होता है। वह तो धारा की तरह बहता रहता है। हां, किसी धारा मिलने या फिर उसके निकलने पर असर पड़ता है। लेकिन वह बहुत दिनों तक नहीं रहता है। हां, ये जरूर है कि कोई भी राजनीतिक संगठन विभिन्न बिरादरियों का मोजैक होता है। बसपा के लिए तो यह बात पूरी तरह से सटीक बैठती है।

कांशीराम ने पार्टी को गढ़ा ही इसी तरह से था। उन्होंने बहुजन समाज की बिरादरी से नेतृत्व गढ़ा था। उसे पार्टी में जगह दी थी। संख्याबल के मुताबिक उनका प्रतिनिधित्व था। यही उनका दर्शन भी है। वे इसी सिद्धांत पर चले और पार्टी में बहुजन समाज को जगह दी। हर बिरादरी को नेतृत्व देना बसपा का स्वभाव रहा है। यह कांशीराम की खड़ी की हुई क्रांति थी जिसने भारतीय राजनीति का व्याकरण बदल दिया था। दलित विमर्श कक्षाओं की बहस से बाहर निकलकर राजनीतिक प्रणाली का हिस्सा बन गया। बसपा उसका मूर्त रूप रही। उसने हर बिरादरी को हिस्सेदारी दी। कई नेता गढ़े। पर वे बसपा के लिए ही आत्मघाती साबित हुए। उन्होंने पार्टी की जड़ में ही मठ्ठा डालने का किया।

हालांकि पार्टी उससे अब उबरने के दिए तैयार है। उसने नए सिरे से संगठन को खड़ा को खड़ा करने का काम शुरू कर दिया है। भीम राजभर को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना, उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। इसका असर पूर्वाचल की दर्जनभर से ज्यादा सीटों पर पड़ेगा। फिर बसपा इसी लिए जानी भी जाती है। बहुजन समाज को नेतृत्व उसने ही दिया है। फिर चाहे वह किसी भी बिरादरी से क्यों न हो। हां, ये अलग बात है कि इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा है।



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