
नेपाल में सोमवार (8 सितंबर) को सोशल मीडिया बैन के खिलाफ Gen-Z युवाओं का गुस्सा फूट पड़ा। राजधानी काठमांडू से लेकर कई शहरों में हजारों युवाओं ने सड़कों पर उतरकर जोरदार प्रदर्शन किया। यह आंदोलन धीरे-धीरे हिंसक हो गया, जिसमें 19 लोगों की मौत और 300 से ज्यादा लोग घायल हो गए। हालात बिगड़ने पर देर रात सरकार ने सोशल मीडिया से प्रतिबंध हटा लिया।
प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने प्रदर्शनकारियों की मौत पर दुख जताया और कहा कि कुछ असामाजिक तत्वों ने शांतिपूर्ण आंदोलन को हिंसक बना दिया। उन्होंने साफ किया कि सरकार का इरादा सोशल मीडिया को बंद करने का नहीं, बल्कि उसे नियमों के तहत नियंत्रित करने का था। साथ ही उन्होंने 15 दिनों में रिपोर्ट देने के लिए एक जांच समिति गठित करने की घोषणा की।
हिंसा की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए गृह मंत्री रमेश लेखक ने पद से इस्तीफा दे दिया। वहीं सूचना मंत्री पृथ्वी सुब्बा गुरुंग ने कहा कि प्रधानमंत्री ओली इस्तीफा नहीं देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार मृतकों के परिवारों को मुआवजा देगी और घायलों का मुफ्त इलाज कराया जाएगा।
सोमवार शाम हालात काबू से बाहर हो गए तो सरकार ने काठमांडू में सेना बुला ली। संसद भवन और उसके आसपास के इलाकों का नियंत्रण आर्मी ने संभाल लिया। इसके साथ ही काठमांडू, ललितपुर, पोखरा, बुटवल और ईटहरी में कर्फ्यू लागू कर दिया गया। इस दौरान किसी भी तरह की सभा, जुलूस या रैली पर पूरी तरह रोक रहेगी।
प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सरकार सिर्फ सोशल मीडिया ही नहीं, बल्कि बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट जैसे मुद्दों पर भी फेल रही है। युवाओं ने सोशल मीडिया पर “Nepo Kid” ट्रेंड चलाकर नेताओं के बच्चों पर ऐश करने का आरोप लगाया, जबकि आम जनता बेरोजगारी और महंगाई से परेशान है।
हिंसक घटनाओं पर संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार इकाई ने गहरी चिंता जताई और निष्पक्ष जांच की मांग की। वहीं अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने हिंसा की निंदा करते हुए मृतकों के परिवारों के प्रति संवेदना जताई।
सरकार ने तीन दिन पहले फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, व्हाट्सऐप, रेडिट और X समेत 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर पाबंदी लगा दी थी। वजह यह बताई गई थी कि कंपनियां तय समय में पंजीकरण नहीं करा पाईं। सरकार का दावा था कि यह कदम सेंसरशिप नहीं, बल्कि नियमों के पालन को लेकर उठाया गया, लेकिन युवाओं ने इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला मानते हुए कड़ा विरोध किया।