
एफिल टॉवर के बाद आज फ्रांस की अगर कोई सबसे बड़ी पहचान है तो वो चार्ली हाब्दो है। चार्ली हाब्दो एक कार्टून पत्रिका है जिसका प्रकाशन 1970 से हो रहा है। चार्ली हाब्दो लेफ्ट विंग समर्थक है और स्वयं को सेकुलर विचारों का समर्थक मानता है। चार्ली हाब्दो किसी भी प्रकार की धार्मिक मान्यता और कट्टरता के खिलाफ लगातार कार्टून बनाता और छापता रहा है लेकिन बीते एक दशक से चार्ली हाब्दो अपने जिन कार्टूनों के कारण चर्चा में आया है वो इस्लाम से जुड़े हुए हैं।
2011 में चार्ली हाब्दो ने अपने संपादकों की लिस्ट में मोहम्मद का नाम प्रकाशित कर दिया था जिसके कारण उसके आफिस पर बम से हमला हुआ था। इसके बाद 2015 में चार्ली हाब्दो ने मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद का कार्टून प्रकाशित किया था जिसके कारण मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा चार्ली हाब्दो के पांच कार्टूनिस्टों सहित 11 लोगों की हत्या कर दी थी।
इस हत्याकांड की पूरे विश्व में निंदा हुई थी और इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताया था। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रैंकोस होलांद ने इस बर्बर इस्लामिक आतंकवाद बताया था। इस हत्याकांड के बाद भी चार्ली हाब्दो कमजोर नहीं पड़ा और अगला अंक समय पर प्रकाशित किया। पूरे यूरोप से चार्ली हाब्दो को पैसा मिला। स्वयं फ्रांस सरकार ने दस लाख यूरो की मदद की।
लेकिन ये सारा प्रकरण पांच साल पुराना था। साल 2020 में एक बार फिर चार्ली हाब्दो चर्चा में तब आ गया जब एक अध्यापक ने अपनी क्लास में चार्ली हाब्दो में छपे कार्टून को दिखा दिया। स्कूल में उस समय अभिव्यक्ति की आजादी पर क्लास होनी थी और अध्यापक ने क्लास शुरु होने से पहले छात्रों से कहा कि अगर कोई मुस्लिम छात्र हो तो वह क्लास से बाहर जा सकता है क्योंकि वो जो कार्टून दिखाने जा रहे हैं उससे उनकी भावनाएं आहत हो सकती हैं। लेकिन एक मुस्लिम छात्र क्लास में ही रहा और इस बात को जाकर अपने परिवार में बताया।
ये बात फैलते ही एक 18 साल के मुस्लिम सिरफिरे ने उस अध्यापक सैमुअल पैटी की गला काटकर हत्या कर दी। सिरफिरा हत्यारा चेचेन शरणार्थी था। इस हत्याकांड का फ्रांस में तीव्र विरोध हुआ। अध्यापक के अंतिम संस्कार में स्वयं राष्ट्रपति इमैनुएल मर्कोन मौजूद रहे। उन्होंने इस हत्याकांड को बर्बर इस्लामिक आतंकवाद का उदाहरण बताया। इस हत्याकांड के बाद फ्रांस में जगह जगह प्रोजेक्टर लगाकर मोहम्मद के कार्टून दीवारों पर दिखाये गये। सैकड़ों की संख्या में इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ प्रदर्शन हुए।
फ्रांस के राष्ट्रपति का अध्यापक के अंतिम संस्कार में जाने की फ्रांस में उतनी तीखी प्रतिक्रिया तो नहीं हुई लेकिन एशियाई देशों के मुसलमानों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में हजारों का संख्या में सड़क पर उतरे मुसलमानों ने फ्रांस के राष्ट्रपति की निंदा की, उनके मौत की कामना की और फ्रांस के सामानों का बहिष्कार का आह्वान किया। सवाल ये है कि एशियाई देशों के मुसलमानों ने फ्रांस के राष्ट्रपति का विरोध क्यों किया?
क्या इसलिए कि उन्होंने इस्लामिक आतंकवाद का नाम ले लिया था। नहीं। ऐसा नहीं है। इस्लाम में एक सर्वमान्य धारणा है कि अगर पैगंबर मोहम्मद का अपमान करनेवाले को कोई मुसलमान जान से मार देता है तो यह उसके लिए सम्मान की बात होती है। उसे गाजी की उपाधि दी जाती है। ऐसे में अध्यापक पैटी की हत्या करके उस सिरफिरे ने जो किया वो इस्लामिक नजरिए से अच्छा किया। उसने कोई अपराध नहीं किया था। इस काम के लिए उसे इस्लाम में सर्वोच्च सम्मान हासिल होता लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति शायद इस बात को नहीं समझते थे। इसलिए उन्होंने हत्यारे को आतंकवादी कहा। यह इस्लामिक नजरिए से सही नहीं है। इसलिए एशियाई देशों में हजारों लोग शुक्रवार को जुमे की नमाज के बाद सड़कों पर उतर आये।
मुंबई के भिंडी बाजार में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मर्कोन का फोटो सड़कों पर चिपकाकर उस पर गाड़ियां दौड़ाई गयी। भोपाल में भी फ्रांस के राष्ट्रपति के विरोध में एक बड़ी रैली हुई जिसका नेतृत्व कांग्रेस पार्टी के विधायक आरिफ मसूद ने किया। उधर मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने अत्यंत विवादास्पद ट्वीट करते हुए कहा कि पैगंबर मोहम्मद के अपमान के लिए फ्रांस में लाखों लोगों को मरना पड़े तो भी कोई चिंता नहीं करनी चाहिए।
हालांकि इस विवादास्पद ट्वीट को ट्विटर ने अपने यहां से हटा दिया लेकिन ट्विटर सिर्फ ट्वीट हटा सकता है, महातिर मोहम्मद जैसे लोगों की सोच कैसे बदल सकता है जो ये मानकर बैठे है कि पैगंबर के अपमान का बदला सिर्फ मौत ही हो सकती है?
चार्ली हाब्दो ने सिर्फ मुसलमानों की भावनाओं का मजाक उड़ाया हो ऐसा भी नहीं है। चार्ली हाब्दो जीजस का मजाक भी उड़ाता रहता है। एक नास्तिक से ये उम्मीद करना कि वो किसी की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करेगा, मूर्खतापूर्ण होगा। सवाल है कि एक सभ्य समाज ऐसी आलोचनाओं पर कैसी प्रतिक्रिया देगा?
बौद्धिक विमर्श या आलोचना प्रत्यालोचना में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता। यही अभिव्यक्ति की आजादी होती है जहां सब अपनी बात कह सकते हैं। एक नास्तिक भी और एक आस्तिक भी। लेकिन ऐसे विमर्श में किसी की हत्या कर देना सीधे तौर पर मुर्खता और जाहिलपना ही होती है। बौद्धिक आलोचनाओं का जवाब बौद्धिक तरीके से ही दिया जाता है। इस मामले में भी ये किया जा सकता था। या ऐसे किसी भी मामले में ऐसा ही किया जाना चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से फ्रांस में ऐसा नहीं हो रहा।
आश्चर्य की बात तो ये है कि फ्रांस में इस्लाम के नाम पर हत्याकांड करनेवाले मुसलमानों में एक भी फ्रेन्च मुस्लिम का नाम सामने नहीं आया है। यहां तक कि वहां के मुसलमानों ने कोई विरोध प्रदर्शन तक नहीं किया। फिर क्या कारण है कि दुनिया में होनेवाली ऐसी घटनाओं पर भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान ही सबसे ज्यादा उबलता है?
क्या फ्रांस के मुसलमानों से ज्यादा जागृत मुसलमान भारतीय उपमहाद्वीप में निवास करते हैं या फिर यहां के मुसलमान अनायास एक ऐसे समाज में हस्तक्षेप कर रहे हैं जिसने सत्रहवीं सदी में चर्च समर्थित राजा के शासन को सिर्फ इसलिए उखाड़कर फेंक दिया था क्योंकि वो ये कहता था कि उसका कहा ही कानून है। उसके मत के विपरीत कोई और विकल्प हो ही नहीं सकता। तो क्या ऐसा समाज इक्कीसवीं सदी में आकर एक समुदाय के दबाव को सिर्फ इसलिए स्वीकार कर लेगा क्योंकि उस समुदाय की धार्मिक भावनाएं जुड़ी हुई हैं?
नहीं। कम से कम यूरोप में ऐसा नहीं होगा। फ्रांस में तो बिल्कुल नहीं होगा। कला और अभिव्यक्ति के शिखर पर बैठे फ्रांस को समझे बिना उससे उलझनेवाले लोग अंतत: घाटे में ही रहेंगे।