एक चित्रकार की अमूर्तन की यात्रा…

मनोज मोहन मनोज मोहन
मत-विमत Updated On :

अभी हाल में दक्षिण कोरिया के सियोल में हैग्युमगांग थीम म्यूजियम (Haegeumgang Theme Museum) के इंटरनेशनल आर्ट एक्जीबिशन 2020 के लिए गोकर्ण सिंह की पेन्टिंग चुनी गई है। गोकर्ण पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा अपने चित्रों में अमूर्तन को लेकर चित्ररत हैं। इधर के उनके चित्रों में भारतीय अध्यात्म के विरल चिह्न देखने को मिले हैं। यह चित्रकार के आंतरिक उदार पक्ष को उजागर करता है। आज के समय की ज़रूरत भी है कि हम कला और संस्कृति के क्षेत्र में हम भारतीय अध्यात्म की उदात्तता को सामने लाएं। देश के कई महत्त्वपूर्ण शहरों में इनके चित्रों की एकल प्रदर्शनियां लग चुकी हैं। 2018 में अमेरिका के हाल गैलरी, सारामोटा में हुए समूह प्रदर्शनी में भी इनके चित्र प्रदर्शित और प्रशंसित हो चुके हैं। गोकर्ण सिंह से मनोज मोहन की बातचीत का प्रमुख अंश :

प्रश्न: आपको कब ऐसा लगा कि आप अपने को पेंटिंग के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकते हैं?

गोकर्ण सिंह: मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम सिर्फ पेन्टिंग नहीं है। हां! ये जरूर कहूंगा कि मेरी स्व-अभिव्यक्ति का माध्यम पेन्टिंग है। पेन्टिंग के माध्यम से मैं खुद से बातें करता हूं। क्योंकि मेरी अभिव्यक्ति का अन्य माध्यम लेखन, फोटोग्राफी, थियेटर भी रहा है। लेकिन पेन्टिंग को मैं अपने सबसे क़रीब पाता रहा हूं। अन्य माध्यमों में मैं खुद से और दूसरों से भी बातें करता हूं, और अपने विचारों को अभिव्यक्त करता हूं। लेकिन पेन्टिंग के ज़रिये मैं खुद से बात करता हूं। पेंटिंग मेरे निजी विचार, सोच और दर्शन को अभिव्यक्त करती है। जीवन के कुछ पक्ष ऐसे हैं जिन्हें दूसरे माध्यमों में व्यक्त करना मुश्किल हो रहा था। इसलिए उस अनकहे को कहने के लिए मैंने इस माध्यम को चुना। लेकिन सवाल है कि कैसे कहना है, कब कहना है? क्योंकि तमाम ऐसे सवाल हैं, ऐसे विचार हैं जो मेरे मन मस्तिष्क में पनपते रहते हैं। कभी धुंधले से तो कभी एकदम साफ दिखाई पड़ते हैं। जब तक ये सवाल मन में साफ नहीं हो जाते हैं, तब तक उनकी अभिव्यक्ति हो पाना मुश्किल होता है। और हां, ये सवाल रंगों के माध्यम से प्रकट रूप में आते हैं। ये विचार स्वयं अपने रंगों को चुनते हैं। मैं सिर्फ उन्हें अभिव्यक्त करने या भाषा देने के लिए रंगों को कागज या कैनवस पर लगाता हूं। लेकिन मैं इस बात का हमेशा ख्याल रखता हूं कि रंगों का संस्कार बदलने न पाए। क्योंकि रंगों का अपना संस्कार है। उन संस्कारों से मैं छेड़छाड़ नहीं करना चाहता। या यूं कहें कि उनके संस्कारों के साथ खुद को भी संस्कारित करता रहता हूं।

प्रश्न: एक प्रश्न सहज ढंग से सामने चला आता है कि चित्र में शिक्षित होकर रमना संभव है या कलाकार अपनी अनुभूति से चित्र बनाता जाता है? या इसे यों कहें कि प्रकृति से रिश्ता बनाए बग़ैर तृप्ति का अहसास संभव नहीं होता?

गोकर्ण सिंह: ये सवाल कुछ पेचीदा है। शिक्षित होकर चित्र में रमना और स्वत: अनुभूति से चित्र बनाना। ये दो अलग अलग बातें हैं। और मैं इसे खुले मन से स्वीकार भी करता हूं कि चित्रकार अपनी अनुभूति से चित्र बनाता है। अगर आपके पास स्व: अनुभूति नहीं है तो आप सिर्फ नक़ल कर सकते हैं। और चित्र बनाना बेहद निजी अनुभूति है। शिक्षित होकर कोई भी कलाकार चित्रकारी के गुर सीख सकता है। टेकनीक को जान सकता है। लेकिन चित्रकारी के लिए स्व: अनुभूति बेहद जरूरी है। जैसाकि मैंने पहले कहा कि जिन विचारों को मैं दूसरे माध्यमों में अभिव्यक्त नहीं कर पाता, उन विचारों को मैं रंगों के माध्यम से व्यक्त करता हूं। रंग, ब्रश और कैनवस उन विचारों को व्यक्त करने के माध्यम बनते हैं। विचारहीनता को कैसे अभिव्यक्त करेंगे। विचार शून्यता को तो अभिव्यक्त किया भी जा सकता है, लेकिन विचारहीनता को रूपायित करना कम से कम मेरे लिए तो मुश्किल है। मैं तो जब भी अपने को जानने समझने की कोशिश करता हूं तब खुद को प्रक़ृति के करीब पाता हूं। मैंने प्रकृति के साथ बहुत सारे प्रयोग किए हैं। जिन्हें आप पागलपन कह सकते हैं। इसकी चर्चा मैं आपसे फिर कभी अलग से करूंगा। क्योंकि ये अनुभव व्यक्तिगत और निजी हैं। जिसे मैंने महसूस किया है, भोगा है, जाना है। हां, प्रकृति से रिश्ता बनाए बगैर तृप्ति का अहसास संभव नहीं है। क्योंकि मैं खुद को कभी प्रकृति से अलग नहीं कर पाता। प्रकृति में ही मैं अपने अक्स देखता हूं। और बार बार उसी में खुद को खोजता भी हूं।


प्रश्न: अभी हाल में दक्षिण कोरिया में होने वाले चित्र-प्रदर्शनी में आपके चित्र शामिल किये गये … आप इसे किस तरह लेते हैं, एक कलाकार को पहचान की तलाश तो रहती ही है न!

गोकर्ण सिंह: इस सत्य से इनकार करने का मतलब खुद को नकारना है। हो सकता है कि आप भगवद्गीता का उदाहरण देकर इस सत्य को नकारने की कोशिश करें। लेकिन उसके सन्दर्भ को समझना होगा। तृप्ति और लिप्सा में फर्क है। दोनों के बीच एक पतली रेखा है। लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगा कि अगर मैं अपने किसी चित्र से संतुष्ट हूं, तभी उसे दर्शकों के सामने लाना चाहूंगा। हो सकता है कि आप ये कहें कि जरूरी नहीं है कि जो मुझे अच्छा नहीं लग रहा है, वो दूसरों को भी अच्छा न लगे। ये दीगर बात है। लेकिन मुझे लगता है कि जिसमें मैं पूर्णता महसूस नहीं कर रहा हूं। वह मेरी दृष्टि में अपूर्ण ही है। जिसे मैं खुद ही नहीं समझ पा रहा हूं, उसे दूसरों को समझाने का दावा कैसे कर सकता हूं। दक्षिण कोरिया के सियोल में हैग्युमगांग थीम म्युजियम (Haegeumgang Theme Museum) में इंटरनेशनल आर्ट एक्जीबिशन 2020 के लिए मेरी पेन्टिंग चुनी गई है। जाहिर-सी बात है कि इससे खुशी तो जरूर होगी। इसलिए नहीं कि वहां मेरी पेन्टिंग लगी है, बल्कि इसलिए कि मेरे काम को लोगों ने पहचाना। और मैं इसे जरूरी भी समझता हूं कि अगर आप चित्रकारी कर रहे हैं तो उसे लोगों के बीच जाना चाहिए। क्योंकि किसके जीवन में कब और कहां से बदलाव शुरू होगा, यह कोई नहीं जानता। यह भी पता नहीं कि कौन आपका इन्तजार कर रहा है, या आपकी पेन्टिंग किसका इन्तजार कर रही है।

प्रश्न: भारतीय चित्रकला में अमूर्त चित्रों की एक परंपरा रही है। गायतोंडे से लेकर रामकुमार तक, आप अपने को उस परंपरा से कैसे जोड़ना पसंद करेंगे ?

गोकर्ण सिंह: जिन दोनों महान कलाकारों का आपने जिक्र किया। बेशक उन दोनों मूर्धन्य कलाकारों से मैं बेहद प्रभावित हूं। लेकिन एक बात मैं बहुत साफगोई से कहना चाहता हूं कि सबसे ज्यादा मैं एस. एच. रज़ा साहब से प्रभावित रहा हूं। हालांकि मैं जब रज़ा साहब को जानता भी नहीं था, तब भी मैं कुछ ऐसा ही सोचता था। अपने शुरुआती दिनों में जब मैंने पेन्टिंग बनाना शुरू किया तो मित्रों को लगा कि मेरे चित्रों में कुछ-कुछ रजा साहब के चित्रों के प्रभाव हैं। तब मैं उन्हें जानता नहीं था। कुछ दोस्तों ने बताया कि ऐसी पेन्टिंग रज़ा साहब बनाते हैं। तब मैंने रज़ा साहब के कुछ चित्रों को देखा। उसके बाद से वे मेरे प्रिय और बेहद नजदीक रहे। मुझे रज़ा साहब को आमने सामने भी एक बार देखना का मौका मिला। मैं उन्हें सिर्फ देखता रह गया। कोई बात नहीं हो सकी। लेकिन गायतोंडे और रामकुमार जी को देखने का अवसर कभी नहीं मिला। इन दोनों महान कलाकारों की कलाकृतियां मुझे बेहद आकर्षित करती हैं। जब मैं इनके बनाए चित्रों को देखता हूं तो बहुत देर तक देखता रह जाता हूं। और उनके अर्थों को खोलने की कोशिश करता हूं।


प्रश्न: आपने फिगरेटिव चित्र न के बराबर बनाए हैं…शुरुआती दौर के अमूर्त चित्रों में हरे रंग की प्रधानता रही, लेकिन पिछले तीन-चार वर्षों से लाल रंग की प्रधानता बढ़ती जा रही है। क्या कहना चाहेंगे?

गोकर्ण सिंह: फिगरेटिव चित्र मैंने बनाने की कभी कोशिश नहीं की। क्योंकि एक फोटोग्राफर होने के नाते मुझे फिगरेटिव चित्रों ने कभी आकर्षित नहीं किया। मुझे ये हमेशा लगता रहा कि फोटोग्राफ्स से ज्यादा अच्छे फिगरेटिव चित्र नहीं हो सकते। हां, कुछ ऐसे फिगरेटिव चित्र मैंने बनाए हैं, जिसे आप सेमी फिगरेटिव कह सकते हैं। क्योंकि जब मैं सेमी फिगरेटिव चित्रों को बनाता हूं, तो उसमें मैं अपनी बातों को कह पाता हूं। अपने विचारों को उसमें डाल पाता हूं। हो सकता है कि आप ये सोच रहे हों कि फोटोग्राफ्स में भी तो ऐसा हो सकता है। लेकिन उसमें आपको तकनीक का इस्तेमाल करना पड़ेगा। लेकिन जब आप सेमी फिगरेटिव चित्रों को बनाते हैं तो सामाजिक प्रेम, द्वन्द्व, घृणा, द्वेष, अराजकता आदि तमाम विषयों को समाहित कर देते हैं। और ये सबका अपना कहने का तरीका होता है। जैसाकि मैंने पहले कहा कि प्रकृति से मैं बेहद निकट महसूस करता हूं। मैं उसी में जन्मा हूं और आखिर में उसी में मिल जाऊंगा, समाहित हो जाऊंगा।

इसीलिए कभी-कभी मिट्टी को मैं अपने शरीर पर लगाकर उसकी गंध को महसूस करता हूं। अपने शरीर के रंग से उस रंग को मिलाता हूं और देखता हूं कि क्या एक दिन शरीर का रंग भी ऐसा ही हो जाएगा। लेकिन मेरा दृष्टिकोण हमेशा से आशावादी रहा है। जब मैं ऐसा करता हूं कि मेरे भीतर एक अजीब आनंद का संचार होता है। लगता है जैसे में हवा में उड़ रहा हूं। मेरा शरीर बिल्कुल हल्का हो गया है। हवा के झोंकों के साथ मैं भी मन्द मन्द हिल रहा हूं। और प्रकृति में जो हरा है मेरे मन को खुशी से भर देता है। मुझे लगता है कि पूरा संसार अगर इसी तरह से हो जाए तो कितना अच्छा हो। इसलिए मेरे शुरुआती दौर में हरे रंग की प्रधानता देखने को मिलती है। लेकिन जैसे जैसे यात्रा आगे बढ़ती गई, आध्यात्मिकता की तरफ मेरा रुझान भी बढ़ता गया। और धीरे धीरे हरे रंग की जगह लाल और ऑरेन्ज लेने लगा।

लेकिन मेरा रुझान हरे रंग से कम नहीं हुआ है। उसका प्रयोग मैं अक्सर करता रहता हूं। और कभी-कभी हरे रंग को बरतते-बरतते ब्रश थम जाता है। लगता है जैसे कोई रोक रहा हो। हरे रंग में मैं ठहराव देखता हूं, वहीं लाल और ऑरेन्ज में आध्यात्मिक उड़ान देखता हूं। लेकिन जो मुझे सबसे आशावादी रंग लगता है, वो है ब्लैक यानी काला। काले रंग में मैं असीम संभावनाएं देखता हूं। मुझे लगता है कि अगर मैं काले रंग को भेद दूं तो सृष्टि के रहस्य को भेद सकता हूं। काला रंग मुझे हमेशा अपनी ओर आकर्षित करता है। और हर बार अलग तरह से पेश आता है। इसी तरह से पीला रंग भी मेरे चित्रों में बहुतायत देखने को मिलेगा। और ये स्वाभाविक है कि हर कलाकार या आम इंसान का अपना अलग-अलग रंग होता है। लेकिन मैं कभी-कभी देखता हूं कि रंग मुझे ख़ुद ही बुला लेते हैं। बोर्ड पर कैनवस लगाने के बाद मैं रंगों को उसके आसपास रख भर देता हूं। कभी कैनवस को देखता हूं तो कभी रंगों को। ये क्रम घंटों चलता रहता है। जब कोई रंग कैनवस पर बरतने को बोलता है, तभी मैं उसका इस्तेमाल करता हूं। और अगर मुझे लगता है कि मेरा और रंगों के बीच संवाद नहीं हो रहा है, तो तब तक के लिए मैं उन्हें छोड़ देता हूं।

प्रश्न: दृश्यकला में संगीत, नृत्य, नाट्य, साहित्य सभी समाहित हो रहता है। मैं समझता हूं जैसे-जैसे चित्र में अन्य कलाओं की झलक मिलती है वैसे-वैसे चित्र का आध्यात्मिक पक्ष सघन होने लगता है। आप इसे किस तरह देखते हैं ?

गोकर्ण सिंह: मैंने आपको पहले भी बताया कि मैं थियेटर करता रहा हूं। मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के वार्षिक समारोह भारत रंग महोत्सव में भागीदारी कर चुका हूं। जब मैं इलाहाबाद में था तो सक्रिय रंगमंच से जुड़ा रहा। दिल्ली आने के बाद भी कुछ सालों तक निरन्तर नाटक करता रहा। लेकिन यहां की आपाधापी में धीरे धीरे ये कम होता चला गया। संगीत में मेरी अभिरुचि है। मैं अकसर वाद्य संगीत सुनता हूं। उसमें भी खासकर तारों से बजने वाले वाद्य यंत्रों को। जब तारों पर उंगलियां पड़ती हैं और उसकी झंकार धीरे– धीरे हवा में फैलते हुए कानों तक पहुंचती है, तो ये मुझे रोमांच से भर देती है। मुझे लगता है कि इन्हीं तारों के सहारे मेरे अस्तित्व की खोज पूरी होगी। कभी कभी मैं संगीत सुनते सुनते स्ट्रोक्स मारता हूं। जैसे जैसे संगीत बजता है उसी तरह से ब्रश को घुमाता हूं। ये एक अलग तरह का रोमांच है। लेकिन प्राय: पेन्टिंग करते समय मैं बहुत ही एकान्त चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि उस वक्त मुझसे कोई बात न करे। क्योंकि पेन्टिंग बनाते समय मैं रंगों से बात करता हूं। और इस बीच कोई टोका-टाकी करता है, तो संवाद में खलल पड़ती है और वो क्रम बार बार टूटता है। मैं समझता हूं कि जो मैं कह रहा हूं आप मेरा इशारा समझ रहे होंगे। यही वह यात्रा है जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं।


प्रश्न: वायरस के इस शोर में मनुष्य को आत्मकेंद्रित होकर सोचने का अवकाश मिल गया है कि वह प्रकृति से अपनी निकटता बचाये और बनाये रखे। पिछले दिनों आपका जो चित्र देखने का अवसर मिला है उसे देख मैं कह सकता हूं कि आप प्रकृति के निकट जाकर उसके रहस्यों के भेद समझना चाहते है ?

गोकर्ण सिंह: हां, कोरोना काल में मनुष्य को आत्मकेंद्रित होकर सोचने का अवकाश मिला है। लेकिन मुझे लगता है कि जैसे ही इस संकट से मुक्ति मिलेगी, फिर वही आपाधापी और भाग दौड़ शुरू हो जाएगी। मैं पेड़ों और वन संपदा के लगातार कटान से बहुत क्षुब्ध हूं। मैं किसी से नहीं सुनता हूं कि उसने दो चार पेड़ लगाए। जैसे किसी को बागवानी का शौक ही नहीं रह गया है। मुझे याद है बचपन में मैंने जो पेड़ लगाए, वो अब बड़े हो चुके हैं। फल देने लगे हैं। हालांकि अभी भी मैं पेड़ों को लगाने की कोशिश करता हूं। अगर ऐसा संभव नहीं हो पाता है, जो घर में किसी को सहेजता हूं। लेकिन देखता हूं कि उसमें न तो उनका कर्तव्य बोध दिखता है, और न ही कोई लगाव। ये मेरे मन को व्यथित करता है।

पिछले दिनों जब लॉकडाउन हुआ तो इधर उधर का आना जाना बंद हुआ। मैं पिछले 20-25 सालों से कबीर को पढ़ता रहा हूं। कबीर के दोहों पर चित्र बनाने की सोचता रहता था। लेकिन वो मौका नहीं मिल पा रहा था। क्योंकि कबीर के दोहों पर चित्र बनाने के लिए मैं एकान्त और एकाग्रता चाहता था। इसके पीछे मेरी सोच ये थी कि जैसा कबीर सोचते थे। कबीर में जो पवित्रता थी। अगर मैं उसे नहीं ला पाया तो कबीर के साथ बेमानी होगी। मैं ऐसी किसी सामग्री का इस्तेमाल नहीं करना चाहता था, जिसके कबीर विरोधी थे। खैर, कोरोना काल में वो वक्त आ ही गया। और कबीर के दोहों को लेकर मैंने 40 चित्र बनाए।

जिसमें से कुछ को आपने भी देखा है। मैं पहले ही कह चुका हूं कि मेरी ये जानने की कोशिश हमेशा से रही है कि प्रकृति का रहस्य क्या है, उसके अपने नियम क्या हैं? प्रकृति के रहस्यों को मैं अपनी पेन्टिंग के माध्यम से समझना चाहता हूं।

प्रश्न: हालांकि दर्शक/प्रेक्षक तो कलाकार के देखने में ही अपना देखना शामिल कर लेता है, और तादात्म्य स्थापित होते ही वह उस चित्र को पा लेना चाहता है। एक चित्र के पूरा होने पर जो भाव मन में आता है, उसे बताएं?

गोकर्ण सिंह: किसी चित्र के पूरा होने पर जो अनुभूति होती है, उसे कलाकार ही समझ सकता है। लेकिन ये कह पाना मेरे लिए अब भी मुश्किल है कि चित्र मुझसे जन्म पाता है, कि चित्र से मेरा जन्म होता है। कौन किसको जन्मता है, मेरे लिए ये रहस्य है। हां, अक्सर ये देखता हूं कि दर्शक चित्र के पसंद आने पर कलाकार को खोजते हैं। उससे बातचीत करना चाहते हैं। उससे पेन्टिंग और कलाकार के मन को भी समझना चाहते हैं। रंगों के बारे में पूछते हैं। उस कलाकृति को बनाने के पीछे उसका उद्देश्य पूछते हैं। दर्शकों के मन में ऐसे बहुत सारे सवाल होते हैं। मैं आपके इस प्रश्न से काफी हद तक सहमत हूं। क्योंकि मैंने पहले ही कहा कि किसके जीवन में कब और कहां से बदलाव शुरू होगा, ये कोई नहीं जानता। और जब कोई पेन्टिंग पूरी होती है, उसके बाद भी मैं काफी देर तक उसे देखता हूं और जानना चाहता हूं कि मुझसे कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई।

प्रश्न: आप के चित्र के अंतर्राष्ट्रीय चित्र-प्रदर्शनी में शामिल होने के इस अवसर पर मैं आपको बधाई देता हूं…

गोकर्ण सिंह: बहुत बहुत धन्यवाद। आप जैसे मित्रों और शुभचिंतकों की वजह से यात्रा के इस पड़ाव तक पहुंचा हूं।