क्या जातीय गणित से आगे बढ़ पाएंगे बिहार के वोटर


मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तीन बार लगातार मुख्यमंत्री रहने से सत्ताविरोधी भावनाओं के शिकार हैं। उसमें देशबंदी के दौरान देश के दूसरे इलाकों से वापस आने वाले मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार का असर भी जुड़ गया है।


अमरनाथ झा
बिहार चुनाव 2020 Updated On :

पटना। बिहार विधानसभा के इन चुनावों में जातीय समीकरणों के टूटने के आसार बन रहे हैं। सभी पार्टियों और गठबंधनों ने सभी जातियों के उम्मीदवार दिए हैं। हालांकि परंपरागत वोटरों को महत्व देने का ख्याल भी रखा है। पहले चरण के मतदान अब मुश्किल से एक सप्ताह रह गए हैं और प्रचार अभियान चरम की ओर अग्रसर है। अब यह तो एकदम साफ हो गया है कि इसबार हार-जीत का फैसला कम अंतर से होगा। लेकिन ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।

वैसे चुनाव-अभियान शुरू होने के पहले जहां सत्ताधारी एनडीए बहुत आगे नजर आ रहा था, अब वह विपक्षी महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार तेजस्वी यादव की चक्रव्यूह में फंसता नजर आ रहा है। इस स्थिति के बनने में लोक जनशक्ति पार्टी के एनडीए से बाहर निकलकर अकेले चुनाव लड़ने के फैसले की बड़ी भूमिका है। 2015 की विधानसभा चुनाव में जदयू को करीब 17 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि भाजपा को करीब 24 प्रतिशत और लोजपा को 4.83 प्रतिशत।

इस करीब पांच प्रतिशत का निकल जाना बहुत मायने रखता है क्योंकि लोजपा इन चुनावों में दोनों पार्टियों के विद्रोही उम्मीदवारों को टिकट देकर उनके वोट काटने की स्थिति में है। फिरभी अभी एनडीए का जो गणित बना है, वह भाजपा के पक्ष में दिख रहा है। भाजपा की पैठ अगर सवर्ण जातियों में है तो जदयू का कुर्मी, कोयरी और महादलित जातियों में पकड़ समझी जाती है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तीन बार लगातार मुख्यमंत्री रहने से सत्ताविरोधी भावनाओं के शिकार हैं। उसमें देशबंदी के दौरान देश के दूसरे इलाकों से वापस आने वाले मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार का असर भी जुड़ गया है। इसलिए नीतीश कुमार लगातार लालू-राबड़ी के जंगल-राज की याद दिला रहे हैं, पर पंद्रह साल पहले के दिनों की याद दिलाने से आज के नौजवान वोटरों पर कितना प्रभाव पड़ेगा, यह सोचने की बात है।

बिहार में नौजवान वोटरों की संख्या राष्ट्रीय औसत से अधिक है, उनके नौजवान नेता की ओर आकर्षित होने की संभावना अधिक है। इसलिए कोई आश्चर्यजनक नहीं कि चुनाव परिणाम में महागठबंधन के पक्ष में चमत्कार हो जाए। समाजवादी पृष्ठभूमि की वजह से राजद और उसकी साझीदार पार्टियों ने जातीय गणित का पूरा ख्याल रखा है जिसमें पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियों को प्रथामिकता मिली है।

बीती लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर गौर करें तो पता चलता है कि किसतरह कुछ ही महीनों में चुनावी हवा बदल गई थी। इस बार सत्ताविरोधी लहर निर्णायक साबित होगी, इसकी पूरी संभावना है। बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में लहर थी। पर इस बार उनके खिलाफ नाराजगी दिखती है। कारण देशबंदी के दौरान हुई तबाही है। इसी तरह नीतीश कुमार की लोकप्रियता में बारी गिरावट आई है।

सुशासन बाबू की उनकी छवि न केवल विपक्ष के प्रचार, बल्कि जमीनी स्तर के सरकारी कर्मचारियों के बेतहाशा भ्रष्टाचार से लगातार खराब हुई है। लोजपा के चिराग पासवान आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। शहरी रहन-सहन में जन्मे, पले बढ़े चिराग नवागत भले हों, पर बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट का उनका नारा चल निकला है। उन्हें पिता रामविलास पासवान के निधन की वजह से कुछ सहानुभूति वोट भी मिल सकते हैं।

लोक जनशक्ति पार्टी का अकेले लड़ने के फैसले को दो तरह से समझा जा सकता है। भाजपा ने बहुत पहले समझ लिया था कि जमीनी स्तर पर नीतीश कुमार के खिलाफ भावनाएं पनप रही हैं और लोजपा का अकेले लड़ने से सत्ता विरोधी भावनाएं बंट जाएगी जिसके बीच से भाजपा के उम्मीदवार निकल जाएगे।

इस रणनीति से नीतीश कुमार की औकात को घटाकर अपना मुख्यमंत्री बनाया जा सकेगा। लोजपा के सभी जदयू उम्मीदवारों के खिलाफ लड़ने से इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि बाद में भाजपा को यह अहसास भी हो गया है कि इस रणनीति के उलटे नतीजे भी हो सकते हैं क्योंकि अब जदयू के लोग भी भाजपा उम्मीदवारों के खिलाफ काम करते बताए जा रहे हैं।

महागठबंधन में कांग्रेस को 70 और वामदलों को 29 सीट दिए जाना गौरतलब है। लगता है कि राजद नेता तेजस्वी यादव ने समझ लिया है कि छोटी-छोटी जाति आधारित पार्टियों को गठबंधन में बनाए रखने से बेहतर वामदलों को रखना है। चुनाव के बाद छोटी-छोटी पार्टियों के पाला बदलने की संभावना अधिक होती है जबकि वामदलों के बारे में इतना तो तय है कि वे भाजपा खेमे में नहीं जाएगी।

हालांकि यह भी संदिग्ध है कि जाति आधारित पार्टियों के नेता मसलन उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश साहनी का अपनी जाति पर सचमुच पकड़ है। पिछले चुनावों में कुशवाहा जाति के लोगों ने कुर्मी जाति के लोगों के साथ नीतीश कुमार को वेट किया या फिर शहरी कोयरी मतदाता भाजपा के समर्थक हैं। वहीं मुकेश साहनी की जाति मल्लाह परंपरागत रूप से भाजपा के वेटर रहे हैं।

यहां उल्लेखनीय है कि राजद, कांग्रेस और वामदलों ने पिछले चुनावों में 18.35 प्रतिशत, 6.6 प्रतिशत और करीब 7 प्रतिशत प्राप्त किया है। राजद के आधार यादव-मुस्लिम जातियों के वोटरों का कांग्रेस के साथ गठबंधन होने से बंटने की संभावना कम हो गई है। संभावना है कि कांग्रेस अपने परंपरागत आधार स्वर्ण जातियों में भी कुछ समर्थन जुटा लेगी जो पिछले कुछ वर्षों से भाजपा के साथ चली गई है।

वामदल अलग-अलग क्षेत्रों में सिमटी होने के बाद भी पूरे प्रदेश में मौजूद हैं और उनमें अपने वोट गठबंधन की दूसरी पार्टियों को दिलाने में सक्षम हैं। जमीनी स्तर पर राजद, भाजपा के बाद वामदलों के पास ही कार्यकर्ताओं की सक्रिय जमात है। चुनावों में कार्यकर्ताओं की सक्रियता भी बहुत मायने रखती है।

इन दोनों गठबंधनों के अलावा तीसरा मोर्चा भी भी चुनाव मैदान में मौजूद है। इसकी ओर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार उपेन्द्र कुशवाहा है और उन्हें असदुद्दीन ओवैसी( 2015 में 0.21 प्रतिशत) बहुजन समाज पार्टी (2.17 प्रतिशत) देवेन्द्र प्रसाद यादव की समाजवादी जनता दल (0.01 प्रतिशत) आदि का समर्थन प्राप्त है।

ओवैसी की पार्टी के पूर्वी बिहार के सीमांचल में कुछ वोट मिल सकते हैं जिसका नुकसान महा गठबंधन को हो सकता है। इसी तरह पिछड़ी जातियों और दलित वोटों में भी कुछ बिखराव हो सकता है। पर इनका अधिक प्रभाव होगा, ऐसा नहीं लगता।

इसतरह अनेक सक्रिय होने से चुनाव-परिणाम के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इतना तय है कि जीत-हार का अंतर कम वोटों से होगा। पर मौजूदा हालत में महागठबंधन आगे चलती दिख रही है।