बैजू बावरा: दत्तक परिवार ने जिसे ‘बावरा’ बना दिया


एक बार जब उनकी अनुपस्थिति में उनके दत्तक पुत्र का परिवार उनको छोड़ कर कहीं चला गया तब वो दीवानगी की हद तक अपने दत्तक परिवार को खोज में दर-दर भटके को मजबूर हो गए थे। इसीलिए बैजू, बैजू बावरा कहलाने लगे।



सन 2020 का यह साल एक अजीबोगरीब किस्म का साल बन गया है। एक तो पिछले साल के आखिरी महीने के आखिरी दिनों में चीन के वूहान शहर से फैले संक्रामक रोग कोरोना ने पूरी दुनिया में तबाही का आलम बना दिया है उस पर हर रोज कुछ न कुछ ऐसा होते ही रहता है जिससे मौजूदा साल में किसी न किसी रूप में तरह -तरह के संयोगों का संयोग भी बना रहता है। संक्रामक रोगों से दुनिया का सामना पहले भी हुआ है लेकिन कोरोना ने जो कहर बरपा है वो इससे पहले कभी नहीं बरपा है।

अतीत में हैजा, प्लेग और चेचक, मलेरिया जैसी महामारियों का सामना भी दुनिया के देशों ने किया है लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि ये बीमारियाँ पूरे विश्व को ही एक साथ और एक ही बार में अपना शिकार बना लें। दुनिया के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग समय पर इन रोगों ने स्थानीय स्तर पर लोगों को अपना शिकार जरूर बनाया पर महामारी का ऐसा वैश्विक और व्यापक असर पहले कभी नहीं देखा गया जैसा इस बार कोरोना नामक महामारी ने दिखाया है।

ऐसे और भी कई संयोग इस एक साल के दौरान हुए हैं जिनमें तीन अलग-अलग मजहबों के पर्व और त्यौहार एक दिन ही हुए हैं। इस लिहाज से शुक्रवार 30 अक्टूबर भी एक ख़ास दिन माना जा सकता है। इतिहास की इस तारीख को साल 2020 की शरद पूर्णिमा का त्यौहार था, हिन्दू धर्म में शरद पूर्णिमा का ख़ास महत्त्व है क्योंकि मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की चांदनी रात में चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है। उधर शुक्रवार का दिन इसाई धर्म में सप्ताह का एक विशेष पुन्य और पवित्र दिन माना जाता है।

इस वर्ष कितना अद्भुत संयोग बना कि शरद पूर्णिमा वाले शुक्रवार के दिन इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब का जन्म दिन भी ईद-मिलाद-उल नबी के नाम से मनाया जाता है। इसी दिन के बारे में एक तथ्य यह भी है कि शरद पूर्णिमा की रात को ही क्रोंच पक्षी के वध से आहत होकर लुटेरे से भक्त और कवि बने रामायण महाकाव्य के रचयिता महर्षि वाल्मीकी भी प्रकट हुए थे इस खुशी में अगले दिन यानी कार्तिक माह की पहली तिथि को प्राकट्य दिवस के रूप में मनाने का प्रावधान भी हमारे समाज में है।

संयोगों का यह सिलसिला इस बार 30 अक्टूबर से भी आगे बढ़ा और इसके अगले दिन यानी शनिवार 31 अक्टूबर को भी धर्म, दर्शन, संगीत, साहित्य और राजनीति के क्षेत्र के अनेक महानायकों की पुण्य तिथि और जन्म तिथि ने इस संयोग को यादगार बना दिया। 31 अक्टूबर इतिहास की एक ऐसी तारीख है जिस जिन देश के प्रथम उप प्रधानमंत्री और प्रथम गृह मंत्री लौह पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल, राजनीति में समाजवादी विचारधारा के पोषक आचार्य नरेन्द्र देव का जन्म हुआ था और महान संगीतज्ञ बैजू बावरा, कृष्ण भक्त कवियित्री मीराबाई और रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकी और कृष्ण भक्त कवियित्री मीरा बाई का जन्म हुआ था।

इतिहास गवाह है कि इसी तारीख को अलग-अलग वर्षों में आर्य समाज के संस्थापक संत और समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती, राजनीतिज्ञ और देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी तथा साहित्यकार अमृता प्रीतम का निधान हुआ था। इस दिन जिन लोगों को उनकी जन्म अथवा पुण्य तिथि के जिस विशेष सन्दर्भ में याद रखा जाता है उनमें स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर अमृता प्रीतम, इंदिरा गाँधी, आचार्य नरेन्द्र देव, सरदार बल्लभभाई पटेल महर्षि वाल्मीकी और मीराबाई को देश-दुनिया के लोग अच्छी तरह से जानते हैं।

इनमें एक नाम ऐसा है जिसका नाम तो लोग जानते हैं लेकिन ज्यादातर लोग उनके बारे में या तो कुछ भी नहीं जानते हैं, अगर जानते भी हैं तो बहुत कम। आज के दिन पैदा हुए इस संगीतकार का नाम है बैजू बावरा। बैजनाथ मिश्र से बैजू बावरा बने इस दरबारी संगीतज्ञ की कहानी भी बहुत दिलचस्प है।

बावरा शब्द दीवानगी के सन्दर्भ में इस्तेमाल किया जाता है बैजनाथ उर्फ़ बैजू के साथ इसके उपयोग को लेकर दो तरह के मत हैं एक मत के अनुसार बैजू संगीत के दीवाने थे इसलिए उनके नाम के साथ बावरा शब्द भी जोड़ दिया गया जबकि इसके विपरीत दूसरे मत का मानना है कि एक बार जब उनकी अनुपस्थिति में उनके दत्तक पुत्र का परिवार उनको छोड़ कर कहीं चला गया तब वो दीवानगी की हद तक अपने दत्तक परिवार को खोज में दर-दर भटके को मजबूर हो गए थे। इसीलिए बैजू, बैजू बावरा कहलाने लगे।

बैजू बावरा को इस देश में ज्यादातर लोग उनके जीवन पर 1952 में इसी शीर्षक से विजय भट्ट के निर्देशन में प्रकाश पिक्चर्स के बेनर तले बनी फिल्म से जानते हैं। जिसमें एक संगीतकार के जीवन को केंद्र में रख कर शास्त्रीय संगीत के तमाम पहलुओं पर चर्चा के साथ यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है।

लेकिन जैसा आम तौर पर होता है कि कोई भी फिल्म इतिहास के किसी चरित्र को उसकी समग्रता में प्रस्तुत नहीं करती, फिल्म की तमाम तरह की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कहानी में बदलाव भी किये जाते हैं उसी तरह अभिनेता भारत भूषण और भिनेत्री मीना कुमारी अभिनीत इस फिल्म की मूल कहानी में भी बहुत बदलाव किया गया है।

शास्त्रीय संगीत पर केन्द्रित होने की वजह से इस फिल्म को इस क्षेत्र से जुड़े कला और संगीत की दुनिया के तमाम लोगों का तो भरपूर प्यार मिला लेकिन आम लोगों में यह दिलम अपनी लोकप्रियता कायम नहीं रख सकी बावजूद इसके कि यह फिल्म समीक्षकों को बहुत पसंद आयी और इस फिल्म ने व्यापार भी अच्छा किया था। लोकप्रियता का पैमाना चाहे जो भी हो लेकिन इस फिल्म का एक गीत बहुत प्रसिद्द हुआ।

दिलचस्प बात है कि भजन के रूप में इस्तेमाल किये गए इस गीत के लेखक, गायक और संगीतकार तीनों ही मुस्लिम हैं। शकील बदायुनी के लिखे, “मन तड़पत हरी दर्शन को आज…” शीर्षक इस गीत को आवाज दी है पार्श्व गायक मोहम्मद रफ़ी ने और और इसे संगीत से सजाया है संगीतकार नौशाद ने।

इस फिल्म की एक खासियत यह भी थी कि इसकी बदौलत ही मीना कुमारी को 1954 में पहली बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था और फिल्म के संगीत निर्देशक को पुरस्कार से सम्मानित करने का सिलसिला भी यहीं से शुरू हुआ था। संगीतकार नौशाद को यह पुरस्कार देकर इस सिलसिले की शुरुआत की गई थी।

बैजू बावरा ध्रुपद सांगीतज्ञ थे और 15वीं-16वीं शब्दी के दौर में ग्वालियर के तत्कालीम महाराजा मानसिंह तोमर के दरबार से जुड़े थे। उनका जन्म गुजरात के चंपानेर में एक गरीब ब्राहमण परिवार में हुआ था और बचपन में ही अपनी कृष्ण भक्त माँ के साथ वृन्दावन आ गए थे। यहाँ उनकी भेंट गुरु स्वामी हरिदास से हुई जिन्होंने अपने गुरुकुल में बैजू को शिक्षा दी और संगीत में पारंगत कर दिया।

संगीत के क्षेत्र में प्रसिद्धि मिलने के साथ ही वो अपनी माँ के साथ मध्य प्रदेश के चंदेरी में स्थापित हो गए। यहाँ उन्होंने गोपाल नामक एक बच्चे को गोद लिया और संगीत के क्षेत्र में पारंगत किया, इसी बीच उनको तत्कालीन ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर ने अपने यहाँ आमंत्रित किया और उसके बाद वो वहीँ स्थापित हो गए थे।

इस बीच उनके दत्तक बेटे ने अपनी शिष्य प्रभा के साथ विवाह कर लिया और उन दोनों की एक संतान भी हुई जिसका नाम मीरा था। एक दिन बैजू बावरा की अनुपस्थिति में गोपाल और उनका परिवार ग्वालियर दरबार से कहीं और चला गया तब से अपने दत्तक परिवार की खोज में उन्होंने पागलों की तरह दर-दर भटकना शुरू कर दिया था। इसी वजह से लोग उन्हें बैजू बावरा भी कहने लगे। बैजू बावरा इतने महान संगीतज्ञ थे कि ग्वालियर नरेश की महारानी मृगनयनी ने भी संगीत की शिक्षा लेने ले लिए उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था।