बुरा दौर और नेतृत्व संकट का सामना करती अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी


कांग्रेस के बारे में एक ख़ास बात यह भी है कि जब कभी पार्टी के नेतृत्व को दोषी ठहराने की बात आती है सारा ठीकरा नेहरु गाँधी खानदान के सर पर फोड़ दिया जाता है आज भी वही हो रहा है।



समय किसी का भी खराब हो सकता है, वो इंसान हो या बेजान समझी जाने वाली कोई संस्था, कांग्रेस भी इसका अपवाद नहीं है। किसी जमाने में चारों तरफ इसी का डंका बजता था लेकिन आज अपनों ने भी दूरी बनानी शुरू कर दी है। कोई भी साथ खड़े होता दिखाई देना नहीं चाहता जबकि एक समय हर पार्टी कांग्रेस के साथ मंच साझा करते हुए खुद पर गर्व करती थी।

इससे ऐसा लगता है कि आज निश्चित ही कांग्रेस इस वक़्त अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और कांग्रेस का यह बुरा दौर 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद से ही जारी है यूँ तो 2014 के लोकसभा चुनाव की हार से ही कांग्रेस के गर्दिश का दौर शुरू हो गया था लेकिन बीच-बीच में कभी मध्य प्रदेश, राजस्थान-छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव की जीत उसके घाव भरती रही तो कभी पंजाब विधान सभा के चुनाव जीत से उसे राहत मिली ।

संजीवनी के रूप में झारखंड और महाराष्ट्र में अपनी जीत से ज्यादा, भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सत्ता से बाहर करने और इन राज्यों में कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनने की खुशी कांग्रेस नेताओं के चेहरे पर साफ़ देखी जा सकती थी लेकिन इसी दौर में पार्टी के कुछ बड़बोले नेताओं की बदजुबानी से मध्य प्रदेश की सत्ता हाथ से खिसक जाने के साथ ही हरियाणा, गोवा, कर्णाटक, असम और उत्तर पूर्व के कई राज्यों में सत्ता से बाहर होना देश की इस सबसे पुरानी पार्टी के लिए किसी भी लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता , उस पर बिहार विधान सभा के चुनाव में शर्मनाक प्रदर्शन ने गर्दिश के इस दौर को और गहरा कर दिया है।

कांग्रेस के गर्दिश का यह तौर चुनाव में हार तक ही सीमित नहीं है बल्कि पार्टी के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं का नेतृत्व के प्रति बढ़ता आक्रोश और कुछ विश्वास पात्र नेताओं का एक एक कर इस दुनिया को छोड़ कर चले जाना भी पार्टी के बुरे दौर को और बुरा बना रहा है। 48 घंटे के अंतराल में तरुण गोगोई और अहमद पटेल के निधन ने अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के दुर्दिन की यह खाई और चौड़ी कर दी है।

राजनीति में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं और ऐसा कमोबेस हर पार्टी के साथ होता है कि कभी वो हारती है तो कभी उसकी जीत होती है। कई बार लगातार हार का भी राजनीतिक दलों को सामना करना पड़ता है तो कई बार लगातार जीत भी होती है। अतीत में कांग्रेस ने भी लगातार कई बार जीत का आनंद लिया है और भाजपा समेत अनेक दलों को लगातार हार का भी सामना करना पड़ा है।

आज राजनीतिक परिस्थितियाँ बदली हुई हैं और् बदली परिस्थितियों में भाजपा का परचम लहरा रहा है और कांग्रेस जबरदस्त मायूसी के दौर से गुजर रही है । यह मायूसी लगातार मिलने वाली हार की वजह से है और यही मायूसी कांग्रेस के बुरे दिन का प्रतीक भी बन गई है। हार-जीत के आंकड़ों की बात करें तो कांग्रेस 1977 से पहले लोकसभा का कोई चुनाव जरूर नहीं हारी थी लेकिन विधान सभाओं के चुनाव में आजादी से पहले भी और आजादी के बाद भी कांग्रेस को कई बार हार का सामना करना पड़ा था।

आजादी से पहले अविभाजित बंगाल में कांग्रेस की नहीं मुस्लिम लीग के सहयोग से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समर्थक हिंदूवादी पार्टी की सरकार थी। बंगाल की इसी गैर कांग्रेस सरकार के एक मंत्री श्यामा प्रसाद मुख़र्जी भी थे जो आजादी के पंडित जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में गठित देश की पहली अंतरिम सरकार के भी मंत्री बनाए गए थे ।इसके अलावा आजादी के बाद केरल में भी पहली गैर कांग्रेस सरकार कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में गठित हो चुकी थी।

इसके साथ ही 19 इसलिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि 19 65 के बाद भी उत्तर भारत के कई राज्यों में गैर कांग्रेस सरकारों का गठन होने की प्रक्रिया शुरू हो ही गई थी इसी दौर में कई राज्यों में संयुक्त विधायक दल सरकारें वजूद में आईं थीं इसलिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि 1977 से पहले कांग्रेस के पास विपक्ष में बैठने अनुभव नहीं था। उस दौर से पहले कांग्रेस राज्यों में तो विपक्ष की राजनीति करती आई थी लेकिन जनता पार्टी की जीत और कांग्रेस की हार ने उसे 1977 में केंद्र की राजनीति में विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करने के लिए भी तैयार कर दिया था।

पहले की हार और आज की हार में बहुत बड़ा फर्क है। 1977 की हार से भी कांग्रेस ने सबक लिया था और तीन साल में ही जबरदस्त वापसी की थी। इसके बाद 1989 की हार का कांग्रेस ने 1991 में बदला लिया और वापसी की। 1996 में कांग्रेस फिर सरकार से बेदखल हुई लेकिन 2004 में फिर केंद्र में सरकार बनाई। इसके बाद 2014 में मिली हार कांग्रेस के लिए नासूर बन गई। विधान सभा चुनाव में कहीं जीत तो कहीं हार का सिलसिला जारी है पर लोकसभा चुनाव अपने बूते बहुमत लाना उसके लिए एक सपना बन कर रह गया है । हार से भी ज्यादा चिंता जनक बात यह है कि कांग्रेस मायूस हो गई है, उसके नेता हतप्रभ रह गए हैं और वो वोट से भी ज्यादा लोगों का भरोसा खोती जा रही है ।

किसी पार्टी के लिए यह स्थिति सबसे बुरी होती है जिसका सामना कांग्रेस कर रही है। कोई भी पार्टी जब बुरे दौर से गुजरती है तब उसकी गर्दिशी के लिए पार्टी के नेताओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है ऐसा ही कांग्रेस के साथ भी हो रहा है। कांग्रेस के बारे में एक ख़ास बात यह भी है कि जब कभी पार्टी के नेतृत्व को दोषी ठहराने की बात आती है सारा ठीकरा नेहरु गाँधी खानदान के सर पर फोड़ दिया जाता है आज भी वही हो रहा है।

माना कि मौजूदा नेतृत्व इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी की तरह परिपक्व नहीं है लेकिन एक बात तो स्वीकार करनी होगी कि उन नेताओं के समय में भी कांग्रेस को चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा था। वहीं दूसरा सत्य यह भी है कि सोनिया गाँधी द्वारा नेतृत्व संभालने के बाद भी कांग्रेस ने सत्ता में जबरदस्त वापसी भी की है।

इसलिए कांग्रेस के नेतृत्व के बारे में यह कहना भी सही नहीं है कि नेहरु-गाँधी परिवार के मौजूदा नेतृत्व से ही कांग्रेस रसातल में जा रही है । आज जिस तरह के हालात हैं उनमें कांग्रेस का नेतृत्व जिसके भी पास होता पार्टी की स्थिति कमोबेस वैसी ही होती क्योंकि सवाल नेतृत्व का नहीं बल्कि नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह के अभाव का भी है।

इधर कुछ लोगों को आलोचना के नाम पर यह कहने से फुर्सत नहीं है कि नेहरु-गाँधी खानदान ने पार्टी की हालत खराब कर दी है इस परिवार के अलावा बाहर के किसी अन्य व्यक्ति को नेतृत्व करने का मौका ही नहीं दिया जाता। ऐसा कहने वाले इस परिवार को कांग्रेस की मजबूरी कहने से भी संकोच नहीं करते जबकि असलियत यह है कि यह परिवार कांग्रेस पर बोझ नहीं है अपितु इस परिवार की वजह से ही कांग्रेस अभी तक जिन्दा है। जो लोग इस तरह की बात करते हैं उन्हें या तो इतिहास का बिलकुल ज्ञान नहीं है या फिर जानते -बूझते हुए भी अनजान बने रहते हैं।

इतिहास के जानकार अच्छी तरह बता सकते हैं कि 1885 में स्थापित इस पार्टी के अभी तक बने अध्यक्षों में कितने नेहरु-गाँधी परिवार के थे और कितने इस खानदान से बाहर के। वैसे भी इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि जब 1991 में आतंकवाद का शिकार होकर इस पार्टी के एक अध्यक्ष राजीव गाँधी को अपनी जान देनी पड़ गई थी उसके बाद तो यह परिवार पूरी तरह से राजनीति से विमुख हो गया था फिर उसे आगे कौन लाया।

राजीव गाँधी मृत्यु के समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे लेकिन उनकी हत्या के बाद पूरे आठ साल तक इस परिवार का कोई भी सदस्य न तो पार्टी के किसी पद पर रहा और न ही कोई सदस्य सांसद या विधायक रहा पर जब दबाब बनाया गया तब पार्टी नेतृत्व का दायित्व स्वीकार जरूर किया।

इस पार्टी को वंशवाद का शिकार भी कहा जाता है लेकिन यह आरोप लगाने वाले भी वही लोग हैं जो क्षेत्रीय दलों के नाम पर खानदानी पार्टी ही चला रहे हैं और जब कभी इन क्षेत्रीय पार्टियों को राज्यों में सरकार बनाने का मौका मिलता है तब एक ही खानदान के लोग मंत्री भी होते हैं विधान सभा अध्यक्ष और सांसद भी। इसके विपरीत राजीव गाँधी की हत्या के बाद उनके परिवार के किसी व्यक्ति ने मंत्री बनने कोशिश तक नहीं की।