
सरकारी कर्मचारियों के लिए आठवें वेतन आयोग की घोषणा तो हो गई, लेकिन सरकार के सौतेले कर्मचारियों, असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों और देश के मजदूरों और किसानों को देश की आजादी के 75 साल बाद भी अपने पहले वेतन आयोग या न्यूनतम आय आयोग का इंतज़ार है। मीडिया आठवें वेतन आयोग की घोषणा का स्वागत करता है, इसे सरकारी कर्मचारियों के लिए तोहफ़ा बताता है। लेकिन नियमित कर्मचारियों के इस छोटे से तबके के बाहर जो बहुसंख्यक लोग काम कर रहे हैं, उनकी आवाज़ कहीं नहीं उठती। देश के अधिकांश लोगों की आमदनी का सवाल डूब जाता है।
पहले देखें कि आठवें वेतन आयोग का फ़ायदा देश के कितने लोगों को मिलेगा? आज भारत 142 करोड़ आबादी में से 60 करोड़ कमाऊ कामकाजी लोग हैं। इनमें एक प्रतिशत से भी आधा यानी सिर्फ़ 30 लाख केंद्र सरकार के नियमित कर्मचारी हैं। इसमें सेना, अन्य सरकारी उपक्रमों और राज्य सरकारों के उन कर्मचारियों को जोड़ दें जिन्हे आठवें वेतन आयोग का फायदा मिल सकता है तो भी कुल संख्या डेढ़ करोड़ के क़रीब बैठेगी।
सरकारी कर्मचारियों के अलावा कोई 12 करोड़ और ऐसे कर्मचारी हैं जिन्हे नियमित वेतन मिलता है, लेकिन उन्हें इस वेतन आयोग से कोई फायदा नहीं होगा। इनमें से सिर्फ 4 करोड़ की पक्की नौकरी है, बाकी लगभग 8 करोड़ की नौकरी कच्ची है, जिसमे लिखित कांट्रैक्ट, छुट्टी और पीएफ की सुविधा नहीं है। कुल मिलकर बात यह कि देश के कुल 60 करोड़ कमाऊ लोगों में से 58 करोड़ का इस वेतन आयोग से कोई लेना देना नहीं है।
अब जरा देखें की इस छोटे से वर्ग को कितना फायदा मिलेगा? और उसका सरकार के बजट पर कितना बोझ पड़ेगा? पिछले साल के बजट के मुताबिक केंद्र सरकार अपने हर कर्मचारी पर औसतन 76 हज़ार रुपए प्रतिमाह खर्च करती है जिसमें वेतन के अलावा अन्य सुविधाएं भी शामिल हैं। केंद्र सरकार की नियमित नौकरी करने वाले चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी का न्यूनतम वेतन आज लगभग 32 हज़ार रुपए प्रति माह है, जबकि सरकार के सबसे बड़े अफ़सर को प्रति माह लगभग 4 लाख 75 हज़ार रुपए का वेतन मिलता है। ऐसा अनुमान है कि अगर आठवाँ वेतन आयोग लागू हुआ तो न्यूनतम वेतन बढ़कर प्रति माह 45 हज़ार हो जाएगा जबकि सबसे बड़े सरकारी अफ़सर का मासिक वेतन 6 लाख 25 रुपए हो जाएगा। कर्मचारियों के वेतन पर केंद्र सरकार का सालाना खर्च लगभा 1 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाएगा, अगर राज्य सरकारें इसे लागू करेंगी तो वह अलग से।
अब जरा इसपर नज़र दौड़ते हैं कि इनकी तुलना में बाकी देश के कामकाजी लोगो की क्या स्थिति है? पहले उन्हें देखें जिन्हे सरकार के सौतेले कर्मचारी कहना चाहिए। यानी वो सब कर्मचारी जो सरकार के लिए नियमित काम करते हैं लेकिन जिन्हे सरकार वेतन आयोग के मुताबिक नियमित वेतन नहीं देती। इनमें आशा और आंगनवाड़ी कर्मी हैं जिनके सहारे बच्चों और स्वास्थ्य से लेकर बाकी सारे सरकारी काम चलते हैं। लेकिन सरकार इन्हें स्वयंसेवी कहती है। काम पूरा लेती है लेकिन नियमित वेतन की जगह सिर्फ मानदेय देती है-फ़िलहाल आंगनवाड़ी कर्मी को भारत सरकार सिर्फ़ 4500 रुपए माह देती है, और सहायक को सिर्फ़ 2250 रुपए ।
आशाकर्मी को केंद्र सरकार सिर्फ़ 2000 रुपए महीना देती है, अगर इसमें इंसेंटिव और राज्य सरकार द्वारा दिए जाने वाली राशि भी जोड़ दी जाय तो भी देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की स्तंभ आशा कर्मी को प्रति माह 10 हमार रुपए भी नहीं मिलते। सबसे बुरी हालत स्कूलों में मिड डे मील के रसोइयों की है, जो हफ़्ते में 6 दिन 4 से 6घंटे काम करते हैं लेकिन जिन्हे सरकार दिहाड़ी के मजदूर से भी बदतर अवस्था में रखती है। उन्हें भारत सरकार की तरफ़ से मात्र 1000 रुपए प्रतिमाह मिलते हैं, राज्य सरकारों का योगदान मिलाकर भी अमूमन 3000 रुपए के क़रीब ही मिलते हैं।
इसके अलाव हर सरकारी विभाग में काम करने वाले कांट्रैक्ट के कर्मचारी हैं जिनकी संख्या अब नियमित कर्मचारियों से कुछ ही कम होगी। उन्हें मनमर्जी का वेतन दे दिया आता है-जहाँ नियमित कर्मचारी को 60 हज़ार मिलता है, उसी काम के लिए कांट्रैक्ट के कर्मचारी को 10 हज़ार थमा दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट “समान काम का समान वेतन” के सिद्धांत को मान्यता देता है और नियमित काम के लिए कांट्रैक्ट की नौकरी को ग़ैर क़ानूनी ठहरा चुका है, लेकिन यह धड़ल्ले से जारी है।
केंद्र और राज्य सरकार के इन सब सौतेले कर्मचारियों की कुल संख्या एक करोड़ से अधिक है। यानी नियमित कर्मचारियों से ज़्यादा अनियमित कर्मचारी हैं। आप ही सोचिए कि नए वेतन आयोग का फ़ायदा पहले किसे मिलना चाहिए? चार लाख रुपए महीना से ज़्यादा वेतन पाने वाले अफ़सर को या 10 हज़ार मासिक से कम पाने वाले कर्मचारी को? जितने खर्चे में सरकार अपने नियमित कर्मचारी की का वेतन बढ़ाएगी, उतने ही खर्चे में सरकार आशा और आंगनवाड़ी कर्मी का न्यूनतम वेतन 15हज़ार रू प्रतिमाह मिलेंगे और रसोइये को कम से कम 10 हज़ार का मानदेय दे सकती है।
अंत में एक नज़र देश की उस जनसंख्या पर भी डाल लें जो कर्मचारी नहीं है, जिन्हे वेतन नहीं मिलता। सरकार उनके लिए न्यूनतम वेतन निर्धारित करके इति श्री कर लेती है। भारत सरकार द्वारा घोषित अकुशल मजदूर के लिए न्यूनतम दिहाड़ी 526 रुपए है, जबकि अति कुशल कामगार के लिए यह 912 रुपए प्रतिदिन है। दूसरों पर लागू करना तो छोड़िए, ख़ुद भारत सरकार अपने आशा, आंगनवाड़ी और मिड डे मील कर्मी को इतना पैसा नहीं देती है।
भारत सरकार के अनुसार एक मजदूर की औसत दिहाड़ी महज 433 रुपए है। क्या आठवें वेतन आयोग में सरकारी कर्मचारी के न्यूनतम वेतन को सरकार द्वारा तय किए जाने वाले न्यूनतम वेतन से नहीं जोड़ जाना चाहिए? बाक़ी रह गया किसान, जिसकी मासिक आय लगभग 7 हज़ार रुपए है। अगर सरकार 14 करोड़ किसानों की एमएसपी की माँग को मान कर उसे वर्तमान रेट पर लागू कर दे तो उसका सालाना खर्च 26 हज़ार करोड़ होगा, जबकि केंद्र सरकार के 30 लाख कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने में लगभग 1 लाख करोड़ रुपए का खर्च बढ़ेगा। हर साल कंपनियों को 6लाख करोड़ रुपए से अधिक टैक्स की छूट मिलती है।
मतलब यह नहीं है कि सरकारी कर्मचारियों को उनका हक ना मिले। लेकिन उससे पहले या उसके साथ उन सब मेहनतकश लोगों को भी उनका न्यूनतम हक मिले जिस पर देश आँखे मूँद कर बैठा है।
(योगेंद्र यादव राजनीतिक कार्यकर्ता और चुनाव विश्लेषक हैं)