जन्मदिन विशेष – नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी को उनकी पहली फिल्म इस कलाकार की बदौलत नसीब हुई थी


पिछले साल गिरीश कर्नाड के निधन के बाद फिल्म जगत में जो स्थान खाली हुआ था, मुमकिन है की उसकी भरपाई कभी नही नहीं हो पाएगी। उनका दायरा अभिनय और रंगमंच से भी आगे का था। हीरे को कैसे परखते है – इसकी पूरी पहचान गिरीश कर्नाड को थी।


नागरिक न्यूज admin
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जब गिरीश कर्नाड रोड्ज स्कालरशिप पर लंदन गए थे तब लंदन के सिनेमाघरों में माइकलएंजेलो एंटोनियोनी की फिल्म ला आवेंचरा कमाल कर रह थी। दोस्तों के लाख कहने के बावजूद गिरिश कर्नाड ने फिल्म नहीं देखी। गिरीश के इस कृत्य से यही पता चलता है की उनका रुझान सिनेमा की ओर नहीं था। अगर उनका दिल कही बसता था तो वो थी रंगमंच की दुनिया। फिल्में उनके लिए महज घर चलाने का एक माध्यम थी। 

जब गिरीश कर्नाड ने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में जाने का निश्चय किया तब उनके इस फैसले से उनको पिता को बेहद तकलीफ हुई थी। कर्नाटक के एक छोटे से जगह सिरसी में उनके डॉक्टर पिता की यही इच्छा थी की उनका बेटा आगे चल कर प्रशाशनिक सेवा ज्वाइन करे। लेकिन बेटे गिरीश का रुझान कविताओं की ओर ज्यादा था। ऑक्सफ़ोर्ड जाने का एक मकसद ये भी था की वो टी एस एलियट और पी बी शेली की दुनिया को और भी करीब से देख पाएंगे। लेकिन जब कवि बनने का सपना उनका पूरा नहीं हुआ तो एक तरह से उनका दिल टूट गया था। बचपन में सिरसी में मलेरिया का बड़ा प्रकोप था और जब पारसी थिएटर के कलाकार वहां पर अपना हुनर दिखाने आते थे तो मलेरिया के टेस्ट के लिए वो गिरीश के पिता के क्लिनिक में ही जाते थे। वही से उनका रुझान रंगमंच की ओर हुआ था। अपने पिता की वजह से गिरीश कर्नाड ने अपने बचपन में हर थिएटर प्ले जो सिरसी में हुआ था, उसे देखा था। 

हिंदुस्तान आने के बाद जब घर में पैसे लाने की बात हुई तब गिरीश ने फिल्मों की ओर कूच किया। शादी से पहले उन्होंने अपनी डॉक्टर पत्नी से जब पूछा की क्या उनके पास पैसे है, तब जवाब में उनकी होने वाली पत्नी ने यही कहा मेरे पास नहीं है और अब तक वो यही समझती थी की उनके होने वाली पति के पास पैसे है। इस घटना के बाद उस दौर में गिरीश ने जो भी हिंदी फिल्में की वो सभी पैसे कमाने के उद्देश्य से की। 

आगे चल कर उनको एफटीआईआई की कमान संभालने का मौका भी मिला। बतौर डायरेक्टर जब वो १९७४-७५ में वहां थे तब ये वही दौर था जब फिल्म इंस्टिट्यूट के छात्रों ने हड़ताल किया था। छात्रों की यही मांग थी की निर्देशन बैच के छात्र अगर अपनी डिप्लोमा फिल्म बनाते है तो अभिनय के लिए फिल्म इंस्टिट्यूट के छात्रों को ही लिया जाए ना की बाहर के छात्रों को। मृणाल सेन ने छात्रों का साथ दिया तो वही दूसरी तरफ जब हृषिकेश मुखर्जी ने ये बोला की निर्देशन बैच के छात्र हमेशा अभिनय बैच के छात्रों से आगे रहेंगे तब मामले ने और तूल पकड़ लिया। इसी दरमियान गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह के संपर्क में आये जो हड़ताली छात्रों का नेतृत्व कर रहे थे।

छात्रों को फुसलाने के उद्देश्य से गिरीश कर्नाड ने उनको दिल्ली में उस वक़्त चल रहे अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में जाने की इजाजत दे दी ताकि वो वहा पर दुनिया भर की फिल्में देख सके। छात्रों के जाने के तुरंत बाद गिरीश कर्नाड ने इंस्टिट्यूट में ताला लगवा दिया ताकी छात्र कैंपस के अंदर ना घुस सके। आगे चल कर जब उनके ऊपर दबाव डाला गया की वो नसीरुद्दीन शाह को कॉलेज से निष्काषित करें तब उनका यही जवाब था की वो इंस्टिट्यूट के एक चमकते हीरे को कैसे निष्काषित कर सकते है। इन सबके बावजूद जब श्याम बेनेगल से एक मुलाकात में उनको पता चला की वो अपनी आने वाली फिल्म भूमिका के लिए एक नॉन हीरो वाले चेहरे की तलाश में है तब उन्होंने तुरंत उनको नसीर के बारे में बताया।

मदद करने का ये सिलसिला सिर्फ नसीर तक ही नहीं रुका। ओम पुरी की पत्नी नंदिता पुरी की किताब में इस बात का जिक्र किया गया है। कॉलेज में इंटरव्यू के दौरान ओम पुरी को जूलियस सीज़र में मार्क एंटोनी के स्पीच को कहने को बोला गया। कमाल के परफॉरमेंस के बावजूद इंटरव्यू बोर्ड उनको एडमिशन देने के लिए राज़ी नहीं था। दस लोगो के बोर्ड में महज दो लोग ओम पुरी को कॉलेज में दाखिला देना चाहते थे। उनमे से एक गिरीश कर्नाड भी थे। जब बातचीत ने बहस का रूप ले लिया तब फिल्म इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर की हैसियत से उन्होने अपने पाॅवर का इस्तेमाल किया और ओम का कॉलेज में प्रवेश पक्का करवाया। बात यही तक नहीं रुकी और उन्हें इस बात का इल्म था की ओम पुरी के घर की आर्थिक हालात अच्छी नहीं थी लिहाजा उन्होंने इस बात पर भी अपनी मुहर लगा दी की ओम अपनी फीस बाद में भर सकते है। आगे चल कर गिरीश कर्नाड ने ओम पुरी के नाम की सिफारिश बी वी कारंत को की जिन्होंने फिल्म चोर चोर छुपजा में उनको अभिनय का पहला मौका दिया।