अंत्योदय से भारत उदय की यात्रा के शिल्पकार दीनदयाल उपाध्याय


राष्ट्रवादी और जनपक्षधर राजनेता, तत्वदर्शी, चिंतक, दूरद्रष्टा, स्वप्नदर्शी दीनदयाल उपाध्याय की रूह ने आज ही के दिन इस दुनिया -ए -फानी पर दस्तक दी थी।


प्रणय विक्रम सिंह
मत-विमत Updated On :

राष्ट्रवादी और जनपक्षधर राजनेता, तत्वदर्शी, चिंतक, दूरद्रष्टा, स्वप्नदर्शी दीनदयाल उपाध्याय की रूह ने आज ही के दिन इस दुनिया -ए -फानी पर दस्तक दी थी। आज ही वो मुक़द्दस दिन है जब अहले हिन्द की सियासत को मूल्य सम्मत विचारधारा से अवगत करने वाले दीनदयाल उपाध्याय ने जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में पंडित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्म लिया।

बाल्यकाल से युवा होने तक संघर्षों की अनेक दास्तानें हैं। हर दास्तां दीनदयाल के संकल्पों के तटबंधों को मजबूत कर रही थी। राष्ट्रवाद के गंगा जल से आचमन की हुई विचारधारा को राजनीतिक जामा पहनाने जैसे दुर्धर संकल्प को मूर्तरूप प्रदान वाले दीनदयाल उपाध्याय भले ही 52 वर्ष की उम्र में इस फनी दुनिया को अलविदा कह गए, पर अपने पीछे इतना कुछ छोड़ गए कि इस देश के राष्ट्रवादी उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकेंगे।

जिस संगठन के पौधे को उन्होंने सींचा, वह आज भाजपा के रूप में हमारे सामने है लेकिन, जो विचार उन्होंने दिए, वे पूरे देश के हैं। उनकी विचारधारा का मुख्य सोपान था उनका दिया ‘एकात्म मानव-दर्शन’ का सिद्धांत, जिसे आज भाजपा अपनी विचारधारा का आधार कहती है। आखिर क्या है यह एकात्म मानव-दर्शन?

मूलतः यह भारतीय संस्कृति, विचार और दर्शन का निचोड़ है। जिस समय पूरा विश्व पूंजीवाद और साम्यवाद की अच्छाई-बुराई की बहस में उलझा था, पं दीनदयाल ने हस्तक्षेप करते हुए इन दो चरम विचारधाराओं से इतर एकात्म मानववाद की सम्यक अवधारणा दी।

पंडित दीनदयाल जी ने एक ऐसे आर्थिक विकास के प्रारूप की बात कही जो व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व एवं परिवार, समाज तथा सृष्टि के साथ सम्बन्धों में कोई संघर्ष उत्पन्न न करे। हमारे शास्त्रों में धर्म के साथ अर्थ को जोड़कर कामनाओं के पूर्ति की बात कही गई है, जिसका अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है, किन्तु अर्थ यानि पैसा आज जीवन का आवश्यक आधार नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन का लक्ष्य बन गया है।

पं. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार आर्थिक विकास के तीन लक्ष्य हैं। हमारी आर्थिक योजनाओं का प्रथम लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा का सामर्थ्य उत्पन्न करना, दूसरा लक्ष्य प्रजातंत्रीय पद्धति के मार्ग में बाधक न होना और तीसरा हमारे जीवन के कुछ सांस्कृतिक मूल्य जो राष्ट्रीय जीवन के कारण, परिणाम और सूचक हैं तथा विश्व के लिये भी उपादेय हैं, उनकी रक्षा करना होना चाहिये। यदि उन्हें गवांकर कर हमने अर्थ कमाया तो वह अनर्थकारी और निरर्थक होगा। इस प्रकार पंडित जी ने अर्थ को भी एक नया ‘अर्थ’ दिया।

उल्लेखनीय है कि ‘एकात्म मानवतावाद’ व्यक्ति के विभिन्न रूपों और समाज की अनेक संस्थाओं में स्थायी संघर्ष या हित विरोध नहीं मानता। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि संघर्ष, सांस्कृतिक स्वभाव का एक संकेत नहीं है बल्कि यह उनके गिरावट का एक लक्षण है। यदि यह कहीं दिखता है तो वह विकृति का प्रतीक है। वर्ग संघर्ष की कल्पना ही धोखा है। राष्ट्र के निर्माण व्यक्तियों या संस्थाओं में संघर्ष हो तो यज्ञ चलेगा कैसे? वर्ग की कल्पना ही संघर्ष की जन्मदात्री है। हम मानते हैं कि समानता न होते हुए भी एकात्मता हो सकती है। विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची-बसी हुई है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष, विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण। उनके द्वारा स्थापित ‘एकात्म मानववाद’ की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटे को निकालने की चेष्टा करता है, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। यही उसका सार भी है।

आइए, उनकी विचार-गंगा में कुछ देर और डुबकी लगा लें। पंडित जी कहते हैं – राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा। नैतिकता के सिद्धांतों को कोई एक व्यक्ति नहीं बनाता है, बल्कि इनकी खोज की जाती है। जब स्वभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है, तो हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं। भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत रूप में देखती है। जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास किया है। बीज की एक इकाई विभिन्न रूपों में प्रकट होती है – जड़ें, तना, शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल. इन सबके रंग और गुण अलग-अलग होते हैं। फिर भी बीज के द्वारा हम इन सबके एकत्व के रिश्ते को पहचान लेते हैं।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। सच कहूँ, पं. दीनदयाल जी के व्यक्तित्व को शब्दों में पिरो पाना बड़ा कठिन है।

अखण्ड भारत और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय

अक्सर अखण्ड भारत का उच्चारण और उद्घोष सुनते ही जन सामान्य के मन में सवाल कौंधता है कि क्या है अखण्ड भारत का अर्थ? क्या यह भारत की भौगोलिक एकता का परिचायक मात्र है या इसका अर्थ कुछ अधिक है। अखण्ड भारत की बात होती है तो प्रश्न उठता है कि भारत खण्डित ही क्यों हुआ? किन कारणों और नीतियों का परिणाम है खण्डित भारत। रावी नदी का वह तट जहां स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा दोहरायी गई थी, वह हमसे कैसे छीन लिया गया? वेदना और व्याकुलता उत्पन्न करते यह प्रश्न ‘अखण्ड भारत और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय’ नामक लेख की प्रत्येक पंक्ति में विमर्श करते देखे जा सकते हैं। तुष्टिकरण के दुष्परिणाम और मुस्लिम पृथकतावाद पर प्रकाश डालता अखण्ड भारत और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय नामक आलेख इतिहास की गलतियों को पुन: न दोहराने का सन्देश देता है।

पं. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार, ‘अखण्ड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है जो अनेकता में एकता का दर्शन कराता है। अत: हमारे लिए अखण्ड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं है… बल्कि यह तो हमारे सम्पूर्ण जीवन दर्शन का मूलाधार है।’

अखण्ड भारत की अवधारणा से सम्बन्धित ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विश्लेषणार्थ पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘अखण्ड भारत क्यों’ नाम की एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य को सन्दर्भित करते हुए भारत में युगों-युगों से चली आई सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परम्परा का उल्लेख किया है जो भौगोलिक भारत को एक एकात्म राष्ट्र के रूप में विकसित करने में समर्थ हुई थी। इस पुस्तिका की सामग्री जहां तथ्यान्वेषी है, वहीं भाषा बहुत भाव प्रवण है’ …दिल्ली में हमारे नेता कुमकुम, तिलक लगा रहे थे जबकि पंजाब में हमारी माताओं और बहनों की मांग का सिन्दूर पुछ रहा था। ‘वन्दे मातरम’ का जयघोष करके हम माता के वे हाथ काट चुके जिनसे वह हमें आशीर्वाद देती। …दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा फहराकर स्वतन्त्रता की घोषणा की गई किन्तु रावी के जिस तट पर स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा दोहराई गई थी वह हमसे छिन चुका था।’

एकात्म मानववाद की वर्तमान प्रासंगिकता-

-आज विश्व की एक बड़ी आबादी गरीबी में जीवन यापन कर रही है। विश्वभर में विकास के कई मॉडल लाए गए लेकिन आशानुरूप परिणाम नहीं मिला। अतः दुनिया को एक ऐसे विकास मॉडल की तलाश है जो एकीकृत और संधारणीय हो। एकात्म मानववाद ऐसा ही एक दर्शन है जो अपनी प्रकृति में एकीकृत एवं संधारणीय (Integral and sustainable) है।

-एकात्म मानववाद का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज की आवश्यकता को संतुलित करते हुए प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करना है। यह प्राकृतिक संसाधनों के संधारणीय उपभोग का समर्थन करता है जिससे कि उन संसाधनों की पुनः पूर्ति की जा सके।

-एकात्म मानववाद न केवल राजनीतिक बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता को भी बढ़ाता है। यह सिद्धांत विविधता को प्रोत्साहन देता है अतः भारत जैससे विविधतापूर्ण देश के लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त है।

-एकात्म मानववाद का उद्देश्य प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करना है एवं ‘अंत्योदय’ अर्थात समाज के निचले स्तर पर स्थित व्यक्ति के जीवन में सुधार करना है। इस प्रकार, यह दर्शन भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में सदैव प्रासंगिक रहेगा।