ग्रामयुग डायरी: राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों की सूची में मंदिर नहीं कब्रिस्तान और मस्जिद


ट्रेन जब चली तो मुझे पता चला कि अब मेरा फोन मेरे पास नहीं है। तुरंत मुझे कोतवाल की याद आई, लेकिन दिल्ली के नहीं, काशी के कोतवाल की।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

बनारस में शिवाला घाट पर ईस्ट इंडिया कंपनी के यूरोपीय अफसरों का एक छोटा सा कब्रिस्तान है। इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग अर्थात ए.एस.आई. ने राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया है। ए.एस.आई. ने बनारस में जिन 18 स्थानों को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया है, उनमें 4 कब्रिस्तान, 2 मकबरे और 1 मस्जिद शामिल है। यहां तक तो सब ठीक है। कहानी में पेंच तब आता है जब पता चलता है कि ए.एस.आई. की सूची में एक भी मंदिर नहीं है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि दो दूनी पांच!

यह बात केवल बनारस तक ही सीमित नहीं है। देश के लगभग सभी जिलों और शहरों में ऐसी ही विसंगति देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए उत्तराखंड के ऐतिहासिक-धार्मिक शहर हरिद्वार की सूची देखें तो वहां राष्ट्रीय महत्व का केवल एक स्मारक है और वह है अंग्रेजों का एक पुराना कब्रिस्तान। जिन लोगों ने भी यह सूची बनाई, उन्हें मालूम था कि हरिद्वार में ग्यारहवीं शदी में निर्मित मायादेवी का मंदिर है, 13वीं शदी की एक सूफी दरगाह है, सिखों का एक बहुत पुराना गुरुद्वारा है। लेकिन इस सबको बाहर रखते हुए उन्होंने केवल अंग्रेजी कब्रिस्तान को ही राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया।

ए.एस.आई. की इस अजीबोगरीब सूची तक मैं कैसे पहुंचा और उसका मुझसे और ग्रामयुग डायरी से क्या संबंध है, इस बारे में जानना दिलचस्प होगा। यह बात 2015 की है जब बड़े राजा श्री कौशलेन्द्र सिंह जी की पहल पर मुझे इफको की ओर से एक प्रोजेक्ट मिला था। इसके अंतर्गत मुझे बनारस के सभी गांवों के जीपीएस कोआर्डिनेट्स ढूंढने थे। इसी के साथ मुझे बनारस के गांवों से लगभग तीन हजार ऐसे लोगों को ढूंढना था जो जमीनी स्तर पर ग्रामीण समाज में जनमत निर्माण का काम करते हैं।

ग्रामीण बनारस से संबंधित इस प्रोजेक्ट को मैंने 2016 में पूरा कर लिया। उसके बाद मैंने सोचा कि क्यों न बनारस शहर के प्राचीन धरोहर स्थलों के भी जीपीएस कोआर्डिनेट्स ढूंढे जाएं।  मैं चाहता था कि इन कोआर्डिनेट्स को वेबसाइट आदि के द्वारा जनसामान्य को उपलब्ध कराया जाए ताकि इच्छुक लोग नई-नई जगहों पर आसानी से पहुंच सकें। इसके और भी कई फायदे थे। 2016 में जीपीएस टेक्नोलाजी मेरे लिए नई थी, इसलिए मैं उससे जुड़े विविध प्रयोगों को लेकर बहुत उत्साहित था।

मैं अपने काम को आगे बढ़ाऊं, उसके लिए मुझे बनारस के सभी धरोहर स्थलों की पते के साथ एक सूची चाहिए थी। इसके लिए मैं भारतीय पुरातत्व विभाग (ए.एस.आई.) की वेबसाइट पर गया। वहां पता चला कि बनारस की जानकारी इसके सारनाथ सर्कल (asisarnathcircle.org) में उपलब्ध है। यहां से मुझे अपनी मनचाही जानकारी मिल गई। लेकिन उस जानकारी ने मेरा काम आसान करने की बजाए उसे और उलझा दिया।

वर्ष 2016 में ए.एस.आई की वेबसाइट ने मुझे बताया था कि बनारस में राष्ट्रीय महत्व के 20 स्मारक हैं जिन्हें केन्द्र सरकार ने संरक्षित घोषित किया है। यह संख्या मेरे लिए चौंकाने वाली थी। मुझे लग रहा था कि बनारस में धरोहर स्थलों की सूची हजारों में होगी। लेकिन यहां तो बस 20 स्थानों की सूची थी। पिछले 6-7 वर्षों में इस सूची में कोई नया नाम तो नहीं जुड़ा, किंतु दो नाम गायब जरूर हो गए हैं। अब यदि आप ए.एस.आई की सूची देखेंगे तो उसमें केवल 18 स्थान ही दिखाई देंगे।

किसी स्थान को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने के जो अंतरराष्ट्रीय मानक हैं , उसके अनुसार बनारस में 18 नहीं बल्कि हजारों स्थान हो सकते हैं लेकिन ए.एस.आई ने उन्हें अपनी सूची में शामिल नहीं किया है। इस मामले में बनारस कहीं अपवाद तो नहीं, यह जानने के लिए मैंने देश के अन्य प्रमुख शहरों की सूची देखी लेकिन सब जगह मुझे बनारस जैसा ही हाल दिखाई दिया। ए.एस.आई. की मानें तो देश भर में राष्ट्रीय महत्व के कुल स्मारक चार हजार से भी कम हैं।

भारत की सूची देखने के बाद मैंने जिज्ञासावश यू.के. अर्थात ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका की भी सूची देखी। गूगल की मदद से मेरे सामने जो सूची आई, उस पर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था। यूके के राष्ट्रीय धरोहर स्थलों की सूची में लगभग साढ़े छः लाख स्थान हैं तो अमेरिका में यह संख्या दस लाख के ऊपर है। कहां चार हजार और कहां यह लाखों की संख्या। क्या ब्रिटेन और अमेरिका में भारत से अधिक धरोहर स्थल हैं?

नहीं। बिल्कुल नहीं। यूके और अमेरिका में भारत से ज्यादा आधुनिक इमारतें हो सकती हैं, लेकिन धरोहर स्थलों के मामले में भारत भला पीछे कैसे हो सकता है? सच्चाई यह है कि धरोहर स्थलों के मामले में भारत कम से कम यूके और अमेरिका से तो आगे ही है। हमारी समस्या बस यह है कि हमने अपने धरोहर स्थलों को व्यवस्थित रूप से सूचीबद्ध नहीं किया है। हमारे देश में लाखों ऐसे स्मारक हैं जो गुमनामी के अंधूरे में डूब कर धीरे-धीरे नष्ट हो रहे हैं। उनके बारे में जानने और उन्हें बचाने का राष्ट्रीय स्तर पर कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहा है। हमारे देश में एक बड़ा वर्ग है जो यूके और अमेरिका की नकल करने के लिए बेताब रहता है, लेकिन आश्चर्य है कि इस मामले में वह भी मौन है।

कुछ लोगों को लग सकता है कि हमारी सूची इसलिए छोटी है क्योंकि इसमें शामिल होने का मापदंड बहुत ऊंचा है। लेकिन दुर्भाग्य से यह भी सच नहीं है। वास्तव में यह सूची अंग्रेजों ने अपनी औपनिवेशिक जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार की थी। 1947 में हम इस सूची को खारिज करके एक नई सूची बना सकते थे। हम अपने धरोहर स्थलों की एक ऐसी सूची तैयार कर सकते थे जिसमें भारत की आधी-अधूरी नहीं बल्कि पूरी तस्वीर दिखाई देती। लेकिन हमने ऐसा नहीं किया। यह काम हम आज भी कर सकते हैं लेकिन हम नहीं कर रहे हैं।

2016 में जब मुझे यह सब पता चला तभी से मेरे अंदर एक बेचैनी है। इस विषय पर मैनें जहां एक ओर ढेर सारा साहित्य पढ़ा, वहीं इससे संबंधित जानकार लोगों से भी मिला। यह विषय क्या है और इस पर काम करने की जरूरत क्यों है, इस पर मैंने एक रिपोर्ट भी तैयार की। उसी दौरान मैंने बनारस के धरोहर स्थलों की एक विस्तृत सूची बनाने की कोशिश भी शुरू कर दी जो आज भी जारी है। पिछले पांच-छः वर्षों में मैंने इस विषय पर खूब काम किया लेकिन कई कारणों से इसे अब तक पूरा नहीं कर पाया हूं।

कनेरी से लौटने के बाद मैंने तय किया कि अभी कुछ समय बनारस में ही रहकर इस काम को पूरा करूंगा। इस निश्चय के साथ जब मैं 15 मार्च को नई दिल्ली स्टेशन से बनारस की ट्रेन पकड़ने के लिए पहुंचा तो एक दुर्घटना घट गई। ट्रेन पकड़ने की आपाधापी में किसी पाकेटमार ने मेरे मोबाइल फोन पर अपना हाथ साफ कर दिया। ट्रेन जब चली तो मुझे पता चला कि अब मेरा फोन मेरे पास नहीं है। तुरंत मुझे कोतवाल की याद आई, लेकिन दिल्ली के नहीं, काशी के कोतवाल की।

अगले दिन जब मैं बनारस पहुंचा तो नहा धोकर सबसे पहले काशी के कोतवाल के पास ही गया।  बता दूं कि बनारस के लोग भगवान कालभैरव को काशी का कोतवाल कहते हैं। यहां मान्यता है कि काशी में कुछ भी नया काम करने के पहले भैरव बाबा की अनुमति लेनी होती है। संयोगवश यह काम मुझसे अभी तक नहीं हो पाया था। इस बार मैंने पहले ही तय किया था कि इस काम को सबसे पहले करूंगा। मोबाइल फोन से वियोग की वेदना के बावजूद 16 मार्च को मैंने अपना संकल्प पूरा किया और भगवान कालभैरव से विनती की कि वे मेरा काम निर्विघ्न पूरा हो जाने दें।

(विमल कुमार सिंह  ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)