इस साल चुनाव देखते-दिखाते, सुनते-बतियाते तथा लड़ते-लड़ाते हुए मुझे 40 बरस पूरे हो जाएंगे। मुझे याद है 1984-85 का वह अभूतपूर्व चुनाव, जिसमें राजीव गांधी की चुनावी आंधी ने सब भविष्यवाणियों को झुठला दिया था। उस चुनाव में प्रणय रॉय द्वारा इंडिया टुडे पत्रिका में किए विश्लेषण को पढ़कर मेरी चुनावी विश्लेषण और भविष्यवाणी में दिलचस्पी जगी थी।
पिछले चार दशकों में चुनावों के दौरान देश और दुनिया के अलग-अलग कोनों की धूल फांकने का मौका मिला, अखबार, टी.वी. और अब यूट्यूब पर विश्लेषण किया है, एक बार खुद चुनाव लडऩे और कई बार चुनाव लड़ाने का अवसर भी मिला है। जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है चुनाव का शाब्दिक और कानूनी चेहरा भले ही वही रहा है, लेकिन चुनाव नामक इस घटना का स्वरूप बुनियादी रूप से बदल गया है।
मुझे याद है 1994 में जब मुझे जर्मनी के चुनाव देखने का मौका मिला, तब आंखों में चुभा था कि वहां सड़कों पर, बाजार में, होटल में और यहां तक कि अखबार के पन्नों पर भी कहीं चुनाव का कोई माहौल ही नहीं था। उन दिनों तक भारत के चुनाव एक मेले जैसे हुआ करते थे। दीवार लेखन, पोस्टर, बैनर, झंडियों की लडिय़ां या फिर बड़े-बड़े झंडे। इनसे पूरा शहर पटा रहता था, चुनाव चल रहे हैं इसका आंख खोलने भर से पता रहता था।
पब्लिक को कुछ तकलीफ जरूर होती थी, जैसी हर त्यौहार में होती है। लेकिन कुल मिलाकर यह लोकोत्सव होता था, जिसमें रौनक थी, जनता के जनार्दन होने की खनक थी। अब चुनाव आयोग की तरफ से ही नाना प्रकार की बंदिशें लग गई हैं, सड़क से पोस्टर, बैनर, झंडियां लगभग गायब हो चुकी हैं। कभी अखबार में बड़ा विज्ञापन दिख जाता है, बस। चुनाव प्रचार घर की चारदीवारी के भीतर सिमट गए हैं, अक्सर केवल ड्राइंग रूम तक।
मेरे बचपन में ही चुनावी बुखार का पैमाना चुनावी रैलियां हुआ करती थीं। नेता आपकी पसंद की पार्टी का हो या नहीं, सारा शहर उसके भाषण को सुनने और उसकी रैली देखने जाया करता था। रैली में जुटी भीड़ और जनता की प्रतिक्रिया से ही चुनावी हवा का अनुमान लगाया जाता था। इस मायने में भी भारत का चुनाव यूरोप और अमरीका से बहुत अलग था, जहां नेता जनसंपर्क सिर्फ टी.वी. कैमरे के लिए करते थे। धीरे-धीरे हम भी उसी राह पर चल निकले हैं। चुनाव रैलियों से हटकर अब टी.वी. के पर्दे पर खिसक आया है। रैलियां अब भी होती हैं, लेकिन टी.वी. के लिए। अब चुनावी रैली में सामान्य मतदाता ईने-गिने ही होते हैं, चुनावी रैली अपने समर्थकों के शक्ति प्रदर्शन का बहाना होती है। रैली में भी नेता जनता से बहुत दूर होते हैं।
सड़क और मैदान से ही खिसक चुनावी प्रचार आंगन और ड्राइंग रूम में चले आने से चुनाव की भाषा ज्यादा नफीस होनी चाहिए थी, खर्च घटना चाहिए था, लेकिन इसका ठीक उलटा हो रहा है। पहले गाली-गलौच, अनर्गल आरोप और भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल विपक्षी दलों में भी बिल्कुल हाशिए पर खड़े नेता किया करते थे। पिछले 10 वर्षों में संवैधानिक पदों पर विराजमान नेताओं ने भी इस भाषा की मर्यादा को तोडऩे में अग्रणी भूमिका अख्तियार कर ली है। हर चुनाव में ही खर्चा दिन दोगुना, रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। पहले कभी-कभार ऐसा राजनीतिक कार्यकत्र्ता मिल जाता था, जो नाम मात्र के पैसे खर्च कर चुनाव जीत जाता था। अब ऐसे अपवाद ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे।
विधानसभा चुनाव में चुनावी खर्च की सीमा भले ही 40 लाख रुपए हो, लेकिन हर गंभीर उम्मीदवार औसतन 5-10 करोड़ रुपए खर्च करने पर मजबूर है। सम्पन्न राज्यों में यह राशि 25-30 करोड़ रुपए है तो कुछ शहरी सीटों पर 50 करोड़ रुपए या उससे भी अधिक है। जरूरी नहीं कि लोग पैसा लेकर उसी उम्मीदवार को वोट डालेंगे लेकिन अब देश के अधिकांश इलाकों में वोटर भी चुनावी दक्षिणा को अपना अधिकार मानता है।
मीडिया कभी भी चुनाव में पूरी तरह निष्पक्ष नहीं था, लेकिन आज की तरह सत्ता की गोदी में नहीं था, सत्तारूढ़ पार्टी के भोंपू का काम नहीं करता था, विपक्षी दलों और नेताओं का भेडि़ए की तरह शिकार नहीं करता था। पहले चुनाव परिणाम टैस्ट मैच की तरह सुस्ताते हुए आते थे, अब ये भी टी-ट्वैंटी की रफ्तार से टी.वी. के पर्दे पर आते हैं। मोहक तस्वीरें व सुंदर ग्राफिक होते हैं, लेकिन सब कुछ बना-बनाया तयशुदा सा होता है। उस जमाने के चुनाव कार्यकत्र्ता जीतते और जिताते थे। वैसे आज भी उम्मीदवारों के चुनावी दफ्तरों में भीड़ दिखाई दे सकती है लेकिन दरअसल चुनाव जिताने का दारोमदार अब वहां से खिसक चुका है। लेकिन अब धीरे-धीरे कार्यकत्र्ता की जगह कंसल्टैंट आ रहे हैं। पार्टी कार्यालय का स्थान चुनाव मैनेजमैंट कंपनियों के हाई-फाई कार्यालय ले रहे हैं।
चुनाव की राजनीतिक स्ट्रैटेजी, उम्मीदवार से लेकर चुनावी थीम और नारे चुनने, चुनाव प्रचार सामग्री डिजाइन करने, नेता की छवि गढऩे और कार्यकत्र्ताओं की खरीद-फरोख्त करने का सारा ठेका अब चुनावी कंपनियां ले रही हैं। पहले नेता जनता को मोटिवेट करते थे, कार्यकत्र्ता जनता को मोबिलाइज करते थे, अब कंसल्टैंट जनता को मैनेज करते हैं।
एक जमाने में चुनाव लोकतंत्र का उत्सव होते थे – एक जोखिम से भरा उत्सव, जिसमें जनता-जनार्दन नामक देवता कुछ भी वरदान दे सकता था, प्रसन्न न हो तो बड़े से बड़े को श्राप दे सकता था। अब चुनाव एक इवैंट है, जिसमें अधिकांश कार्यक्रम पूर्व निर्धारित हैं, नियोजित हैं, प्रायोजित हैं। चुनाव से लोक को पूरी तरह से बेदखल तो नहीं किया जा सकता, लेकिन तंत्र ने लोक को चारदीवारी में कैद करने का यंत्र बना लिया है। पहले चुनाव लोकतंत्र की आत्मा थे, अब उसका शृंगार हैं।
(योगेन्द्र यादव राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)