महाकुंभ-2025 : मौत से ज़िंदगी की ओर चलो !


ऐसी ही सांस्कृतिक गुलामी को समझने की कोशिश ईरान के फिरदौसी ने अपनी कृति ‘शाहनामा’ में कभी की थी। हमें भी करनी चाहिए। हमारी भारतीय ज्ञान-परम्परा विज्ञान के अनुकूल है। यदि हमने इसके बूते समाज में वैज्ञानिक चेतना विकसित की तो एक बार फिर पूरी दुनिया का नेतृत्व भारत कर सकेगा।


नागरिक न्यूज नागरिक न्यूज
मत-विमत Updated On :

कुम्भ मेले पर मैंने एक पोस्ट पिछले दिनों लिखा था। सोचा था अब इस विषय पर नहीं लिखूंगा। इस बीच वहाँ भगदड़ में दर्जनों की मौत हुई और पिछले दिनों दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बड़ा हादसा हुआ। रोज अख़बारों में दो-चार के मरने की खबर मिल रही है।

मेले को लेकर हमारे समाज में मूर्खता का जलजला फूटा है। इस पर चुप रहना अब अपराध अनुभव हो रहा है। चाहे इस तरह की कोई भगदड़ हो, या फिर सांप्रदायिक फसाद, या कि महामारी; मरने वाले अधिकतर गरीब होते हैं। प्रयाग हो या दिल्ली रेलवे स्टेशन मरने वालों की तस्वीरें देखिए, उनमें साधु, नेता, व्यापारी नहीं, गरीब लोग हैं। वे सब ऐसा लगता है मेरे अपने लोग हैं। उनकी स्थिर आँखें मानो पूछ रही हो, तुम चुप क्यों हो ?

लेकिन मैं करूँ तो क्या करूँ ? अब उन लोगों से कैसे पूछूँ कि तुमलोग इतने बावले क्यों थे गंगा-स्नान को लेकर। यही है तुम्हारा मोक्ष !

ऐसी ही बाबली भीड़ कभी जय श्रीराम के उद्धोष के साथ अयोध्या की तरफ बढ़ रही थी। रास्ते में मुलायम सरकार के हुक्म से पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चलाईं। दर्जनों मारे गए थे। मैंने मुलायम सरकार की इस करतूत केलिए कड़ी निंदा की थी। भीड़ पागल हो गई थी तो क्या आप भी पागल हो गए थे मुलायम सिंह जी ! मैंने लेख लिख कर सवाल उठाए थे। आज इस भीड़ पर कोई गोली नहीं चला रहा है, यह भीड़ अपने ही पागलपन से मर रही है।

पीड़ा होती है। लेकिन तरस आता है उन लोगों पर जो इस भीड़ को बढ़ावा दे रहे हैं। वाह-वाह कर रहे है। उनके अपराध पर चुप रहना भी अपराध होगा। संस्कृति का हवाला दिया जा रहा है। उनकी हिन्दू संस्कृति परवान चढ़ रही है। क्या यही है हिन्दू संस्कृति ? अनेक उपनिषदों में से एक है बृहद आरण्यक उपनिषद। इसका एक श्लोक बहुश्रुत है-

असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृत गमय

(मिथ्या से सच्चाई की ओर अन्धकार से प्रकाश की ओर मौत से ज़िंदगी की ओर चलो।)

उस ऋषि को क्या स्वर्ग के बारे में कुछ नहीं मालूम था! उसने क्यों नहीं कहा धरती से स्वर्ग की ओर चलो?

“मृत्यु से अमृत यानि ज़िंदगी की ओर रुख करो। जीना सीखो।”– यह है हमारे ऋषियों की सीख।यह है भारतीय और हिन्दू संस्कृति। हमारी संस्कृति एक अविरल प्रवाह है। इसमें विचारों के घाट हैं। इन में थोड़े भेद हैं। लेकिन इनका विवेक-राग एक है।

हर देश समाज में उजाले और अंधकार का दौर आता है। हमारा देश कभी रौशन-ख़याल था। साधु-जन गंगा नहीं, ज्ञान में डुबकी लगाते थे। हमने बुद्ध, महावीर पैदा किए। आर्य भट्ट और वर: मिहिर जैसे गणित-विद पैदा किए। नागसेन, नागार्जुन बसुबंधु, धर्मकीर्ति, शंकर, मंडन मिश्र जैसे जाने कितने दार्शनिक यहाँ हुए! मैं इन सब को एक सातत्य में देखता हूँ। एक निरंतरता है इन में।

यह निरंतरता कबीर, रैदास तक चली है। इन सबने हमें जीना सिखाया। इनकी सीख ने हमें ज्ञानवान और प्राणवान बनाया। हमारे फलसफे चीन, जापान, रूस और पूरी दुनिया में फैले। हमने तक्षशिला, विक्रमशिला और नालंदा जैसे ज्ञान-केंद्र विकसित किए। हमारे दार्शनिकों ने पूरी सृष्टि को आत्मसात करना सिखाया था।

हमने पिंड में ब्रह्माण्ड को समझने का फलसफा दिया। रौशनी कहीं बाहर नहीं, तुम्हारे भीतर है। तुम ही ब्रह्म हो। तत् त्वं असि। वह जो है तुम हो। ईश्वर और स्वर्ग बाहर नहीं, तुम्हारे भीतर है। बुद्ध ने कहा- अप्प दीपो भव। आप ही दीपक बनो।

अत्त ही अत्तनो नाथो को हि नाथो परोसिया। (तुम अपने आप के मालिक हो, तुम्हारा मालिक कोई और नहीं।)

लेकिन वह दौर भी आया जब हम पर अंधकार हावी होने लगा। यह गुलामी का दौर था। हम अपने ही स्तर पर काहिली और सुस्ती से घिरने लगे थे।फिर हम पर दूसरे हावी हुए। यह सब पाखण्ड इसी दौर में विकसित हुए। हमने रामकथा के ही तर्ज पर बुद्ध को देश निकाला दे दिया और मुगल-दरबार की तरह राम-दरबार की पैरोडी खड़ी कर ली। तक्षशिला, विक्रमशिला, नालन्दा के ध्वन्स पर हमने काबा-शैली में कुम्भ-संस्कृति विकसित की।

कुरान- बाईबिल के अन्दाज में अपनी ज्ञान -परम्परा को पुस्तक विशेष (वेद) पर केन्द्रित किया।

“तत् त्वं असि” का मंत्र हम भूल गए। “मृत्यु से जीवन की ओर चलो” के मंत्र की जगह हमें भी जन्नत और स्वर्ग सुहाने लगने लगे।

ऐसी ही सांस्कृतिक गुलामी को समझने की कोशिश ईरान के फिरदौसी ने अपनी कृति ‘शाहनामा’ में कभी की थी। हमें भी करनी चाहिए। हमारी भारतीय ज्ञान-परम्परा विज्ञान के अनुकूल है। यदि हमने इसके बूते समाज में वैज्ञानिक चेतना विकसित की तो एक बार फिर पूरी दुनिया का नेतृत्व भारत कर सकेगा।

और यदि इसी तरह कुम्भ और दूसरे मेलों-ठेलों का हम महिमा-मण्डन करते रहे तो एक बार फिर हमें गुलाम होने की आशंका बनी रहेगी।

महँगी लग्जरी कारों से आ रहे तथाकथित साधु-संतों और व्यापारियों से कोई पूछ नहीं रहा कि क्या यही है तुम्हारी हिन्दू- संस्कृति ! विलासिता और लाशों पर कोई संस्कृति आखिर कितने दिनों तक टिक सकेगी?

भुगतना तो भारत के आम-जन को ही होगा। इसलिए मेरी अपील होगी अपने आस-पास जितना संभव हो सके अन्धविश्वास की इस महामारी को रोकिए।

(प्रेमकुमार मणि लेखक-साहित्यकार हैं)