बिहार विधानसभा चुनाव: जाति के आगे सामाजिक न्याय और हिंदुत्व हुआ बेदम

भाजपा सवर्ण जातियों पर निर्भर इसलिए कर रही है क्योंकि इन चुनावों में धार्मिक गोलबंदी नहीं हुई है। धार्मिक गोलबंदी होने से आमतौर पर जातीय गणित नाकाम हो जाती है। पर इसबार गोलबंदी नहीं हुई है।

अब बिहार की करीब-करीब सभी पार्टियों ने विधानसभा चुनावों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। उम्मीदवारों की सूची से स्पष्ट होता है कि भाजपा ने इस बार सामाजिक न्याय के सिद्धांत से किनारा कर लिया है और राजद ने अपने यादव आधार को साधते हुए सभी जातीय समुदायों को जोड़ने की कोशिश की है। दोनों गठबंधनों की स्थिति देखे तो भाजपा और कांग्रेस ने सवर्णों को तरजीह दी है तो राजद और जदयू ने पिछड़ों को अधिक अवसर दिया है।

भाजपा के 110 उम्मीदवारों में 51 सवर्ण जातियों के हैं जिनकी आबादी लगभग 16 प्रतिशत है। इन 51 सवर्णों में सबसे अधिक 22 राजपूत, 15 भूमिहार, 11 ब्राहमण और 3 कायस्थ हैं। बाकी 59 उम्मीदवारों में पिछडी जाति, अति पिछड़ी जाति और दलित समुदायों के हैं जिनकी आबादी राज्य की आबादी की 74 प्रतिशत है। इनमें भी 15 उम्मीदवार यादव हैं जो पिछड़ी जातियों में सबसे दबंग माने जाते हैं।

महागठबंधन की साझीदारों ने सभी सीटों के उम्मीदवारों का एलान कर दिया है। कांग्रेस ने करीब दो दर्जन महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है। राजद ने सबसे अधिक अपने आधार वोट-यादव मुस्लिम का ध्यान रखा है। सर्वाधिक 58 यादवों को उम्मीदवार बनाया गया है। मुसलमानों को 15 टिकट दिए हैं। दर्जन भर स्वर्णों के नाम भी उसकी सूची में हैं।

राजद ने 24 अतिपिछड़ों को उम्मीदवार बनाया है। कुशवाहा को आठ औऱ वैश्यों को सात टिकट दिए गए हैं। दलितों में चार पासवान, दो मुसहर, दो आदिवासी, सात रविदास को उम्मीदवार बनाकर पार्टी ने दलित-महादलित दोनों को साधने की कोशिश की है। कांग्रेस ने अपने हिस्से की 70 सीटों में 32 पर सवर्ण उम्मीदवार दिए हैं। दस अल्पसंख्यक और दस दलितों को टिकट दिया है। पार्टी ने युवाओं पर अधिक ध्यान दिया है। उसके 20 प्रत्याशी 40-45 वर्ष उम्र के हैं।

भाजपा अपनी परंपरागत राजनीतिक आधार को साधना चाहती है। 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने स्वर्ण समुदायों के 65 उम्मीदवार बनाए थे। तब उसने 243 सीटों में से 53 में जीत हासिल की थी। एक भाजपा नेता ने कहा कि हमने हर जाति को समेटने की कोशिश की है लेकिन उन जातियों के अधिक उम्मीदवार निश्चित तौर पर दिए गए हैं जो परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थन करती है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना का मानना है कि भाजपा सवर्ण जातियों पर निर्भर इसलिए कर रही है क्योंकि इन चुनावों में धार्मिक गोलबंदी नहीं हुई है। धार्मिक गोलबंदी होने से आमतौर पर जातीय गणित नाकाम हो जाती है। पर इसबार गोलबंदी नहीं हुई है। इसके विपरीत भाजपा की साझीदार जदयू के 115 उम्मीदवारों की सूची में सवर्ण जातियों के केवल 19 उम्मीदवार हैं, इनमें 10 भूमिहार, सात राजपूत और दो ब्राहमण हैं। जदयू ने यादव जाति के 18 उम्मीदवार दिए हैं।

सवर्ण जातियों में भूमिहार जाति के लोग तो शुरू से भाजपा के समर्थक रहे हैं, पार्टी अब राजपूतों में अपनी पकड़ बनाना चाहती है। 2014 लोकसभा चुनाव के समय से ही वह इस प्रयास में लगी है। 2015 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 30 राजपूत, 18 भूमिहार, 14 ब्राहमण और तीन बनिया को उम्मीदवार बनाया था। 2015 विधानसभा चुनाव में उसने 22 यादवों को उम्मीदवार बनाया था, इसबार 15 यादव उसकी सूची में हैं। हालांकि पिछले चुनाव में 22 यादव उम्मीदवारों में केवल छह जीत सके थे। पिछली विधानसभा के 243 सदस्यों में 61 यादव हैं। इसमें सबसे ज्यादा 42 राजद, 11 जदयू और छह भाजपा के सदस्य हैं।

यादव आमतौर पर राजद समर्थक माने जाते हैं। 2014 से ही भाजपा यादव आबादी को अपनी ओर करने के प्रयास में लगी है। नित्यानंद राय को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का यही मकसद था। इसबार पार्टी ने रामकृपाल यादव, नंदकिशोर यादव, हुकुमदेव नारायण यादव और भूपेन्द्र यादव को स्टार प्रचारक नियुक्त किया है।

सांसद रामकृपाल यादव का कहना है कि यादवों का लालू यादव से मोहभंग हो गया है। पुरानी पीढ़ी के लोग भले लालू की पार्टी के साथ हों, पर नई पीढ़ी के साथ ऐसी बात नहीं है। उनका कहना है कि लालू के पुत्र तेजस्वी इन नौजवानों को अपने साथ जोड़ने में सफल नहीं होंगे। वे भाजपा की ओर आएगे।

 

First Published on: October 18, 2020 3:09 PM
Exit mobile version