बिहार विधानसभा चुनाव मे कांटे की टक्कर के बाद भाजपा-जदयू गठजोड़ को बढ़त तो मिल गई, पर लेकिन राजद सबसे बड़ी पार्टी (76) बनकर उभरी है। उसके वोट प्रतिशत भी बढ़े हैं। फिरभी इन चुनाव सर्वाधिक लाभ में भाजपा रही जिसे (74) सीटें मिली हैं जो पिछले चुनाव (53) से काफी अधिक है। उसकी साझीदार जदयू को सबसे अधिक नुकसान हुआ है जिसकी सीटें 71 से घटकर 43 रह गई हैं।
एनडीए में शामिल दूसरी छोटी पार्टियों हम और वीआईपी के पास वोटरों को प्रभावित करने की क्षमता मामूली है और उन्हें चार-चार सीटें ही मिली हैं। इसीतरह राजद के साथ महागठबंधन में शामिल कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा जिसके 70 उम्मीदवारों में से केवल 19 जीत सके जबकि वामदलों का प्रदर्शन इतना बेहतर रहा कि इसे उन दलों का पुनर्जीवन बताया जा सकता है। लेकिन भाजपा की इस जीत को अपार जीत नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसी जदयू के साथ उसने 2010 में 91 सीटें जीती थी।
महागठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने का एक बड़ा कारण चुनाव-मैदान में ओबैसी की एमआईएम की उपस्थिति भी था। उसने पांच सीटें जीती और कई सीटों पर महागठबंधन को मिलने वाले मुसलमान वोटों में सेंधमारी की। इसका प्रभाव यह हुआ कि भाजपा को हिन्दु गोलबंदी करने में कमोबेश मदद मिली। इतना तय है कि महागठबंधन को सत्ता-विरोधी भावनाओं का लाभ मिला, पर प्रश्न यह है कि तमाम विरोधों के बाद भी जदयू को किन लोगों के वोट मिले और भाजपा को इतनी सीटें कैसे मिल गई।
बिहार के इस जनादेश के कई मायने हैं। यह मान लेना कि जदयू को केवल लोजपा के कारण कम वोट मिले, भोलापन है। उसने अगर जदयू के वोट काटे तो सत्ता विरोधी भावनाओं में हिस्सेदारी करते हुए राजद के वोट भी काटे और अगर राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए में होने और प्रधानमंत्री मोदी का नाम लेने से उसे केन्द्र सरकार के समर्थक वोट मिले तो उसने भाजपा के वोट भी काटे। इस लिहाज से चिराग पासवान की लोजपा का प्रदर्शन भी अच्छा नहीं कहा जा सकता। यह जरूर है कि उसने चुनावी चर्चा में जदयू और नीतीश कुमार को खलनायक के तौर पर स्थापित करने में भूमिका अदा की।
इस तरह चुनाव परिणामों की वास्तविक तस्वीर अधिक जटिल है। राजद ने इसबार 144 सीटों पर अपने उम्मीदवार दिए थे जिसमें से 76 सीटें जीती। इसतरह 2015 में 101 उम्मीदवारों में 81 का जीतना कहीं बेहतर था। सीटों को जीतने की दर 2015 में जहां 79 प्रतिशत रही जबकि इस वर्ष वह केवल 52 प्रतिशत सीटों पर जीत हासिल कर सकी। वामदलों का प्रदर्शन जरूर काफी अच्छा रहा जिन्होंने 29 सीटों पर उम्मीदवार देकर 16 सीटों पर जीत हासिल किया।
कांग्रेस ने महागठबंधन को पीछे धकेला, इसमें कोई संदेह नहीं। उसका प्रदर्शन केवल 27 प्रतिशत रहा। हालांकि यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि कांग्रेस को सीटों के बंटवारे में ढेर सारी ऐसी सीटें मिली थी जहां परंपरागत रूप से एनडीए मजबूत रही है और उसके उम्मीदवार जीतते रहे हैं। इसलिए भी कांग्रेस उससे भी कम सीटें जीत सकी जितनी उसने 2015 में कम सीटों पर लड़कर जीती थी।
पर एनडीए के भीतर जदयू और भाजपा के प्रदर्शन में कहीं अधिक बल्कि बहुत अधिक फर्क रहा। 2015 में जदयू भाजपा के खिलाफ राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ी थी। इसबार सीटों की संख्या में भले कमी आई, पर जदयू के वोट प्रतिशत में कोई खास गिरावट नहीं आई है। अर्थात उसके आधार-समर्थकों में कोई टूटन नहीं आई है। उसमें अति पिछड़ी जाति, महादलित औऱ महिलाओं को रखा जा सकता है। इन वोटरों को चुप्पा वोटर कहा जाता है जो सभाओं में तो नहीं आते, चुपचाप जाकर वोट गिरा आते हैं।
इस बार यह कहा जा सकता है कि इन समूहों ने जदयू को इसलिए वोट दिया क्योंकि उनके सामने कोई विकल्प नहीं था। संभव है कि इन समूहों में भी सत्ता विरोधी भावनाएं हो, पर वे संभावित यादव राज को लेकर आशंकित रहे हों। भाजपा शायद इस बात को समझती थी, इसलिए सत्ता-विरोधी भावनाओं का अनुमान होने के बादजूद नीतीश कुमार को साथ बनाए रखा जिससे इन समूहों के वोट उसे मिल सके। और यही कारण है कि वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री भी बनाए रखना चाहेगी ताकि इन अतिपिछड़ी जातियों के समूह में अपनी पकड़ बना सके।
दोनों गठबंधनों को चरणवार मतदान मिले वोटों का विश्लेषण करना भी जरूरी है। महागठबंधन को पहले चरण में अधिक सीटें मिली। पहले चरण में 71 सीटों पर मतदान हुए इसमें 47 महागठबंधन को मिले। दूसरे चरण में भी यह गति बनी रही और इसमें 94 सीटों में से 42 सीटें उसे मिली जबकि इस क्षेत्र में एनडीए मजबूत रही है। कबाड़ा तीसरे चरण में मतदान वाले 71 क्षेत्रों में से केवल 21 सीटों पर महागठबंधन जीत सका।
जबकि मुस्लिम बहुलता वाले इन क्षेत्रों से महागठबंधन को अधिक सीटों की उम्मीद थी। पर ओबैसी की एमआईएम उम्मीदवारों की उपस्थिति और भाजपा का हिन्दु-कार्ड खेलना आरंभ करने का असर हुआ की उसकी सीटें काफी कम हो गई। इसका एक कारण यह भी रहा कि सीमांचल में राजद के कद्दावार नेता तस्लिमुद्दीन के निधन के बाद उनकी विरासत को लेकर उनके दो बेटों में विवाद गहरा हो गया।
राजद ने बड़े बेटे को टिकट दिया जबकि छोटा बेटा एमआईएम के टिकट पर मैदान में उतर गया और अपने बड़े भाई को हराकर विधायक बन गया। ओबैसी के उम्मीदवारों की उपस्थिति का यह सीधा असर हुआ। इसी दौर में भाजपा नेताओं ने हिन्दु-कार्ड खेलना आरंभ कर दिया और महागठबंधन की ओर से उसका जबाब नहीं दिया जा सका। प्रधानमंत्री का जंगल राज के युवराज कहने का भी असर हुआ।
इसी तरह इन क्षेत्रों में महिला उम्मीदवारों का वोटिंग पहले चरणों के अनुपात में बड़ गया था। एनडीए ने जिन 125 सीटों पर जीत हासिल की है, उनमें से 99 वैसी सीटें हैं जिनमें महिलाओं ने पुरुषों की अपेक्षा अधिक संख्या में वोट दिया। 243 सीटों में से 166 क्षेत्रों में महिलाओं ने अधिक संख्या में वोट दिए। इनमें से भाजपा ने 55 सीटों पर जीती।
जदयू ने जिन 43 सीटों पर जीत हासिल की उनमें 37 सीटों में महिलाओं ने पुरुषों से अधिक संख्या में वोट दिए हैं। जबकि महागठबंधन को केवल 60 वैसी सीटों पर जीत मिली जिनमें महिलाओं ने अधिक संख्या में वोट दिए हैं। इसमें राजद को 44 सीटें मिली हैं। बिहार में कुल मतदान 57 प्रतिशत हुआ जिसमें महिलाओं ने 59.69 प्रतिशत और पुरुषों ने 54.68 प्रतिशत हैं।
मतदाताओं का जातिवार गणना तो नहीं किया जा सकता। पर महिला मतदाता और चरणवार प्रदर्शन के आकलन से पता चलता है कि महागठबंधन का प्रचार के दौरान मुस्लिम मसलों को संबोधित नहीं करना और महिलाओं में जंगल-राज की आशंकाओं को निर्मूल करना संभव नहीं हुआ। बालिका-गृह जैसे कांडों को भी आम मतदाताओं तक नहीं पहुंचाया जा सका।