बिहार की जनता आसानी से राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं बदलती…

इन परिणामों के अन्य दो नतीजे भी निकलते हैं। पहला, लोग अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता आसानी से नहीं बदलते। संकट में पड़ने के बाद भी राजनीतिक पसंद जल्दी नहीं बदलती। यह भी दिखता है कि प्रधानमंत्री मोदी बहुत हद तक भारतीय जनमानस पर छाए हुए हैं।

पटना। सारे अनुमानों को गलत साबित करते हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आखिरकार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पक्ष में गए। भले विपक्षी महागठबंधन भी बहुत पीछे नहीं है और राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। लेकिन भाजपा की सीटें इतनी कैसे बढ़ गई और नीतीश कुमार के जदयू की सीटें इतने क्यों घट गई, यह एक रहस्य है। जबकि सत्ताविरोधी भावनाओं का शिकार तो दोनों को होना चाहिए था।

इस रहस्य को चुनाव-प्रचार के पूरे अभियान से समझ में आता है। दरअसल तेजस्वी यादव और चिराग पासवान लगातार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर हमलावर रहे। किसी ने भाजपा के खिलाफ कुछ नहीं कहा। चिराग पासवान तो स्वयं को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान कहते रहे।

केवल वामपंथी पार्टियां और ओबैसी ने भाजपा के विरोध में भी बातें रखी। उन्हें चुनावी सफलता भी मिली। इससे यह समझना शायद गलत होगा कि लोगों में भाजपा की नीतियों को स्वीकार्यता मिल गई है, बल्कि यह है कि उन्हें विकल्प नहीं मिल रहा है।

इन चुनावों से बिहार को लाभ यह हुआ है कि उसके राजनीतिक आकाश में नए नक्षत्र के रूप में तेजस्वी यादव का अवतरण हो गया है। पिछले चुनाव में लालू और नीतीश के साझा अभियान के दौरान पहली बार विधानसभा पहुंचे तेजस्वी इसबार एकदम अकेले थे। वह अपनी मां राबड़ी देवी और पिता लालू यादव की परछाई से एकदम अलग अपने व्यक्तित्व को निखारा है। चुनाव प्रचार के दौरान लालू-राबड़ी की तस्वीरों का भी उपयोग नहीं किया गया।

महागठबंधन में उनकी साझीदार कांग्रेस तो अपनी सीटें बचाने में ही सफल नहीं हुई, राजद उम्मीदवारों की सहायता करने की तो बात ही दूर है बल्कि महागठबंधन को बहुमत नहीं मिलने का जिम्मेवार भी कांग्रेस के खराब प्रदर्शन को बताया जा रहा है। राजद को 75 सीटें मिली हैं जबकि 70 सीटों पर लड़कर कांग्रेस केवल 19 सीटें जीत सकी। यह चुनाव वामदलों के पुनर्जीवन के लिए भी याद किया जाएगा। तीनों वामदलों-सीपीआई, सीपीएम और भाकपा माले ने 29 सीटों पर चुनाव लड़ा और 16 सीटों पर जीत हासल की।

इन परिणामों के अन्य दो नतीजे भी निकलते हैं। पहला, लोग अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता आसानी से नहीं बदलते। संकट में पड़ने के बाद भी राजनीतिक पसंद जल्दी नहीं बदलती। यह भी दिखता है कि प्रधानमंत्री मोदी बहुत हद तक भारतीय जनमानस पर छाए हुए हैं। उनमें लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों के चुनावी भविष्य को प्रभावित करने की क्षमता है।

यही कारण है कि एनडीए से बाहर निकलकर अकेले चुनाव लड़ रहे चिराग पासवान ने लगातार मोदी की तारीफ की और नीतीश कुमार को लगातार हमलावर रहे। चिराग भले सीट नहीं जीत सके, पर नीतीश कुमार की जदयू को भाजपा की पिछलग्गू पार्टी बना देने में कामयाब रहे।

इन सभी का चुनाव परिणाम पर असर दिखता है। अगर कुछ नहीं दिखता है तो कोरोना काल में देशबंदी के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से पैदल या अन्य साधनों से आश्रय के लिए बिहार आए लोगों का दर्द नहीं दिखता। एक आकलन के अनुसार करीब 32 लाख कामगर अन्य राज्यों से आए। अब अगर परिवार का आकार पांच व्यक्ति का मान लें तो करीब 1 करोड़ 60 लाख लोगों को इसकी वजह से अकल्पनीय कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। बाहर से परेशान हाल लौट रहे कामगरों की सहायता करने के बजाए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उन्हें राज्य में घूसने नहीं देने की धमकी दे रहे थे और बाद में एकांतवास के नामपर नारकीय स्थिति मं रहने के लिए मजबूर कर दिया गया।

इस वर्ष बाढ़ दौरान भी सरकार का असंवेदनशील रवैया सामने आया जिसमें करीब 85 लाख लोग तबाह हुए, पर मुख्यमंत्री ने इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेवार ठहराते हुए प्रति परिवार छह हजार रुपए का अनुदान देकर निश्चिंत हो गए। इसी तरह शराबबंदी के मामले में करीब डेढ लाख गरीब लोग विभिन्न जेलों में बंद हैं। नीतीश कुमार के खिलाफ आम लोगों की नाराजगी चुनाव प्रचार के दौरान प्रकट हुई जब लोगों ने उनके खिलाफ नारेबाजी की, आलू-प्याज-टमाटर फेंके।

एक चीज यह भी स्पष्ट हुआ है कि सवर्ण जातियों के वोटर इस बार भी मजबूती से भाजपा के साथ रहे। पार्टी ने अपने 46 प्रतिशत उम्मीदवार इन पार्टियों के लोगों को दिए थे। यह समूह आमतौर पर देशबंदी से अधिक प्रभावित नहीं हुआ। बल्कि इस समूह को लालू-राबड़ी के जंगल राज की याद रही और इसकी याद बार-बार दिलाई गई।

बिहार में पिछले 30 वर्षों से सामाजिक न्याय की चर्चा होती रही है। इसबार आश्चर्यजनक रूप से इशकी चर्चा नहीं हुई, बल्कि तेजस्वी यादव ने आर्थिक न्याय की चर्चा शुरु की। हालांकि इसका अधिक असर नहीं पइ। पर चुनावों को कांटे की टक्कर में बदलने में वे कामयाब रहे। उनकी पार्टी के परंपरागत वोटर यादव-मुस्लिम गठजोड़ तो कमोबेश ठीक रहा पर दूसरे जातियों का वोट कितना मिल सका, यह अभी स्पष्ट नहीं है।

वैसे यादव-मुस्लिम मिलकर 31-32 प्रतिशत होते हैं जो बिना दूसरी जातियों के जीताऊ समीकरण नहीं बन सकता। लेकिन दूसरी जातियों के वोट लेने में नीतीश कुमार भी कमजोर होते गए हैं। तभी तो उनका वोट प्रतिशत औऱ सीट लगातार कम होता गया है। जदयू की सीटें तो पिछले चुनावों में लगातार घटता गई, पर वोट प्रतिशत में उतनी गिरावट नहीं आई है। नीतीश कुमार को 2010 में 115, 2015 में 71 और 2020 में 43 सीटे रह गई हैं। वोट प्रतिशत के लिहाज से 2015 के 16.83 प्रतिशत से घटकर 15.4 प्रतिशत मिल पाया है।

इन चुनावों में प्रचार के आखिरी दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं ने हिन्दुत्व के मुद्दे को उठाना भी शुरु कर दिया। महागठबंधन इन मुद्दों का कोई जवाब नहीं दिया। कांग्रेस के राहुल गांधी ने जरूर राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा की, पर राम मंदिर आदि पर चुप रहना बेहतर समझा। यह उनकी रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है, पर इससे भाजपा को अपने हिन्दूवादी समर्थकों को गोलबंद करने में सहूलियत हुई। उधर मुस्लिम वोटरों में उनकी चुप्पी का कमोबेश असर पड़ा और ओबैसी का पार्टी पहली बार पांच सीटें जीतने में कामयाब हो गई।

इतना तय है कि बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों का असर बंगाल के चुनावों पर भी होगा जहां अगले साल चुनाव होने वाले हैं। उम्मीद किया जा सकता है कि वामपंथी पार्टियां और कांग्रेस इन चुनावों से सबक लेकर उन चुनावों के लिए सीटों का बंटवारा दलगत ताकत को मुताबिक ही करेगी, इसे प्रतिष्ठा का मुद्दा नहीं बनाएगी।

First Published on: November 11, 2020 5:05 PM
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