पटना। बिहार विधानसभा चुनाव में कई गठबंधन मैदान में होंगे। पक्ष और विपक्ष के परिचित गठबंधनों के अलावा कम से कम तीन गठबंधन तीसरा मोर्चा के नाम से बने हैं। सभी तीसरा मोर्चा स्वयं को नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव का विकल्प बता रहे हैं। पर सत्ता पक्ष और मुख्य विपक्ष के गठबंधन इनसे कतई चिंतित नहीं दिख रहे। वे अपने गठबंधन की पार्टियों के बीच सीटों के बंटवारे में लगे हैं। वैसे बंटवारे में वांक्षित संख्या में सीटें नहीं मिलने से पार्टियां बिदक भी रही हैं।
विपक्षी महागठबंधन की साझीदार राष्ट्रीय लोक समता पार्टी प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा ने महागठबंधन छोड़ने और एनडीए में बात नहीं बनने पर मंगलवार को मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मोर्चा बनाने की घोषणा की। यह मोर्चा सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगा। कुशवाहा ने कि हम नीतीश और तेजस्वी दोनों का विकल्प प्रदेन करने वाले हैं। उन्होंने कहा कि लोग नीतीश के विकल्प के रूप में तेजस्वी को स्वीकर करने के लिए तैयार नहीं हैं। उनके तीसरे मोर्चा की घोषणा होने के पहले ही दो दूसरे मोर्चों का गठन हो चुका था।
जनाधिकार पार्टी प्रमुख राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर की समाज पार्टी के साथ मिलकर मोर्चा का गठन किया है। जिसका नाम प्रोग्रेसिव डिमोक्रेटिव एलायंस रखा गया है इसमें दो अन्य छोटी-छोटी पार्टियां भी शामिल हैं। बाद में बाबा साहेब अंबेदकर के पौत्र प्रकाश अंबेदकर ने भी इस मोर्चा में शामिल होने की घोषणा की है। इसके पहले समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व सांसद देवेन्द्र प्रसाद यादव और आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहाद उल मुसलमीन के सुप्रीमो सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने यूनाइटेड डिमोक्रेटिक सेक्यूलर एलायंस के गठन की घोषणा की थी।
जदयू के एक नेता के अनुसार विधानसभा चुनाव में इन सभी मोर्चो का प्रभाव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए फायदेमंद होगा। इतना तो हो ही गया है कि एनडीए विरोधी सभी ताकतों का साझा मंच बनाने की घोषणा सफल नहीं हो पाई। इससे एनडीए विरोधी मतदाताओं में भ्रम की हालत बनेगी जिससे निश्चित रूप से एनडीए को लाभ मिलेगा।
पिछले विधानसभा चुनाव 2015 में समाजवादी पार्टी, जनाधिकार पार्टी और एनसीपी के प्रदर्शन का उल्लेख करते हुए उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने कहा कि वे एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुए, जमानता भी नहीं बचा सके। उनके उम्मीदवारों के दो हजार से तीन हजार के बीच वोट मिले। इस तरह के मोर्चा का मतदाताओं में प्रभाव वैसा ही होता है, जैसा निर्दलीय उम्मीदवारों का होता है। जानकारों के अनुसार बहुजन समाज पार्टी का प्रभाव बिहार के सात-आठ विधानसभा क्षेत्रों में जरूर है, अन्य पार्टियों में केवल ओबेसी की पार्टी का पूर्वी बिहार के सात-आठ क्षेत्रों में है, बाकी किसी का प्रभाव अभी तक दिखा नहीं है।
राजद के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि इसतरह के तीसरे मार्चा के उम्मीदवार दोधारी तलवार की तरह वार करते हैं। अगर उन्होंने यादव या मुसलमान उम्मीदवार दिया तो हमारे वोट का कमोबेश बंटवारा होगा और अगर स्वर्ण उम्मीदवार दिया तो एनडीए के वोट बिखरेंगे। हालांकि एक एनडीए नेता ने कहा है कि उन्हें मिलने वाले वोट जीत दिलाने लायक नहीं होंगे, पर जीत-हार पर उनका प्रभाव जरूर पड़ेगा। उनमें से कुछ ने अगर जीत हासिल कर ली तो विधानसभा में निर्दलीय विधायकों की संख्या में थोड़ी बढ़ोतरी हो जाएगी, पर सरकार गठन को प्रभावित करने की स्थिति में कतई नहीं आ सकेंगे।
इन तीसरे मोर्चे में से अधिकतर का गठन उन नेताओं ने किया है जो एनडीए या महागठबंधन में अपने लिए स्थान हासिल नहीं कर सके। रालोसपा प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा महागठबंधन में 30 सीटों की मांग कर रहे थे। उन्हें पांच सीट देने की पेशकश की गई थी। भाजपा के एक बड़े नेता ने बताया कि कुशवाहा आठ सीटों की मांग लेकर भाजपा से संपर्क किया था। उन्हें बताया गया कि एनडीए में इसकी कोई गुंजाइश नहीं है। कुशवाहा के मोर्चा में बसपा के अलावा एक नामालूम सी पार्टी जनवादी पार्टी (समाजवादी) भी साझीदार है। इसीतरह पप्पू यादव भी महागठबंधन में शामिल होना चाहते थे, पर तेजस्वी यादव को यह मंजूर नहीं था। बाद में कुशवाहा ने कहा कि भाजपा और राजद में अघोषित समझौता है ताकि राज्य की छोटी पार्टियों का सफाया किया जा सके।
भाजपा के एक दूसरे नेता ने कहा कि बिहार में इन तत्वों का सफाया करना जरूरी है जो अपनी ताकत के अनुपात में बहुत अधिक सीटों की मांग करते हैं और प्रमुख पार्टयों के सामने संकट खड़ा करती हैं। कई बार वे अपने हिस्से की सीटों पर पार्टी टिकट बेच देती हैं। इस स्थिति का सामना भाजपा और राजद दोनों को करना पड़ा है। 2015 में भाजपा ने 243 सीटों में से 143 पर अपने उम्मीदवार दिए थे, बाकी गठबंधन की साझीदार लोजपा, रालोसपा और हिन्दुस्तानी आवाम पार्टी के हिस्से में गईं। भाजपा ने 53 सीटें जीती, पर साझीदार पार्टियों ने 85 सीटों पर लड़कर केवल पांच सीटें जीती थी।
इस बार चुनाव-मैदान में उम्मीदवारों की संख्या अधिक होगी। उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने का कारण यह है कि अधिकतर मुखिया औऱ जिला परिषद सदस्व विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं। वैसे लोग भी चुनाव मैदान में आते हैं जिन्होंने भ्रष्ट तरीकों से कुछ पैसे बटोर लिए हैं। इन तीसरे मोर्चों के उम्मीदवारों में ऐसे लोगों की भरमार होगी।