मांझी और पासवान की राजनीति और बिहार के दलित

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने खेमा बदल लिया है। इस साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में मांझी अब एनडीए गठबंधन में शामिल हो चुनाव मैदान में उतरेंगे। पिछले कुछ साल में ही मांझी ने तीन बार गठबंधन बदला है। पहले एनडीए, फिर महागठबंधन और अब फिर से एनडीए। राष्ट्रीय जनता दल के प्रभाव वाले महागठबंधन में मांझी अपमानित महसूस कर रहे थे। उनकी बात को कोई सुन नहीं रहा था। उम्मीद से काफी सीट मिलने की उम्मीद थी। नीतीश कुमार से उनकी बातचीत हुई। नीतीश कुमार भी मौके के तलाश में थे। रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान की नकेल कसना चाहते थे। जीतनराम मांझी को गठबंधन में शामिल होने का न्योता दे दिया। बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान औऱ जीतनराम मांझी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दोनों नेताओं की जातियां बिहार की कुल दलित आबादी में लगभग आधी हिस्सेदारी रखती है।

जीतनराम मांझी बिहार की दलित राजनीति में रामविलास पासवान के तर्ज पर राजनीति करते है। दोनों की राजनीति में कुछ समानता है। रामविलास पासवान की तरह जीतनराम मांझी की राजनीति में विचारधारा का कोई स्थान नहीं है। पासवान की तरह ही मांझी की प्राथमिकता सता में परिवार के सदस्यों को स्थापित करना है।

जीतनराम मांझी और रामविलास पासवान दोनों दलितों की अलग-अलग जातियों की राजनीति करते है। बिहार में दोनों नेताओं की पहचान एक संपूर्ण दलित नेता के तौर पर नहीं है। दोनों की पहचान खुद की जाति के नेता के तौर पर है। यह अलग बात है कि रामविलास पासवान दिल्ली के लूटियन्स जोन के रंग मे पूरी तरह से रंगे हुए है। जीतनराम पटना तक ही सीमित रहे। बिहार की दलित राजनीति में दोनों नेताओं के बीच आपसी टकराव भी है। दोनों नेता एक दूसरे को पसंद नही करते है। रामविलास पासवान की राजनीति की शुरूआत जहां कांग्रेस के विरोध से हुई थी। वहीं जबकि जीतन राम मांझी की राजनीति की शुरूआत ही कांग्रेस पार्टी से हुई थी।

जीतनराम मांझी दल बदलने में माहिर है। दल बदलते हुए जीतनराम मांझी के लिए विचारधारा कहीं समस्या नहीं रही। जब अपनी खुद की पार्टी बनायी तब भी अपनी सुविधा के हिसाब से वे गठबंधन बदलते रहे। गठबंधन बदलने में मांझी ने रामविलास पासवान को पूरा टक्कर दिया। जीतनराम मांझी पहली बार कांग्रेस से विधायक चुने गए थे। राज्य में कांग्रेस की सरकार में वे मंत्री भी रहे। 1990 के दशक में बिहार की राजनीति में लालू यादव के मजबूत होने के बाद जीतन राम मांझी लालू यादव की पार्टी में शामिल हो गए। मांझी लालू यादव के मंत्रिमंडल में भी रहे। 2005 में बिहार की राजनीति में लालू यादव का पराभव हो गया। नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए।

जीतनराम मांझी नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हो गए। नीतीश कुमार के साथ लंबी पारी खेली। उनके मंत्रिमंडल में भी रहे। फिर बिहार के मुख्यमंत्री भी बन गए। 2014 के लोकसभा चुनावों में जनता दल यूनाइटेड की बुरी हार हुई थी। इससे नीतीश कुमार परेशान हो गए थे। एकाएक नीतीश कुमार के अंदर भगवान बुद्ध की तरह त्याग की भावना आ गई। उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। अपने खास जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। सारा बिहार आश्चर्यचकित था। क्योंकि नीतीश कुमार ने ब़ड़ा क्रांतिकारी फैसला लिया था। उन्होंने उस जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था जो कुछ समय पहले ही 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हार गए थे। गया लोकसभा से वे सिर्फ हारे ही नहीं थे, तीसरे नंबर पर चले गए थे। कुछ समय बाद नीतीश कुमार के अंदर आयी बुद्ध की त्याग की भावना खत्म हो गई। वे दुबारा पाटलिपुत्र की गद्दी पर बैठने को इच्छुक हो गए। लेकिन अब जीतन राम मांझी पाटलिपुत्र की गद्दी छोड़ने को तैयार नहीं थे। आखिरकार काफी हुज्जत के बाद मांझी मुख्यमंत्री पद से हटे।

मुख्यमंत्री से हटने के बाद मांझी ने फैसला लिया कि वे किसी राजनीतिक दल में किसी के अधीन रहकर राजनीति नहीं करेंगे। उन्होंने अपना ही राजनीतिक दल हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा बना लिया। नई पार्टी बनाने के बाद उन्होंने बिहार में गठबंधन की राजनीति शुरू कर दी। लेकिन वे गठबंधन की राजनीति में रामविलास पासवान की तरह भाग्यशाली नहीं रहे। 2015 का विधानसभा चुनाव उन्होंने एनडीए गठबंधन में शामिल होकर लड़ा। भाजपा को मांझी से काफी उम्मीद थी। इसलिए एनडीए गठबंधन में उन्हें 21 सीटें दी गई।

भाजपा को उम्मीद थी कि दलितों में मजबूत मुसहर जाति का वोट का ध्रुवीकरण एनडीए के पक्ष में होगा। लेकिन मांझी की पार्टी को 21 में से सिर्फ 1 सीट पर ही जीत मिली। अकेले जितने वाले उम्मीदवार भी जीतनराम मांझी ही थे। मांझी खुद 2 सीटों पर लड़े थे। एक सीट मुखदुमपुर वे वे हार गए, दूसरे सीट इमामगंज से जीत गए। 2015 के विधानसभा चुनाव में मांझी ने खराब प्रदर्शन किया। फिर वे एनडीए गठबंधन में कुछ हासिल करने की उम्मीद में थे। क्योंकि दिल्ली में भाजपा की सरकार थी। लेकिन भाजपा ने उन्हें कुछ नहीं दिया। मांझी फिर महागठबंधन में शामिल हो गए। 2019 का लोकसभा चुनाव महागठबंधन में शामिल हो मांझी ने ल़ड़ा। महागठबंधन ने उन्हें 3 सीटें दी थी। लेकिन उनकी पार्टी सारी सीटें हार गई। खुद जीतनराम मांझी गया लोकसभा सीट से चुनाव हार गए।

बिहार की दलित राजनीति में दलितों का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। दलितों जातियों अलग-अलग गुटों में बंटी हुई है। आबादी के हिसाब से पासवान औऱ मांझी महत्वपूर्ण जाति है। दोनों जातियों के वोट पर राजनीतिक दलों की नजर रहती है। पासवान जाति की राजनीति रामविलास पासवान नियंत्रित करते है, इसमें कोई दो राय नहीं है। बिहार के ज्यादातर पासवान उन्हें अपना नेता मानते है। लेकिन मुसहर जाति की राजनीति में एकजुटता नहीं है। इस जाति का वोट क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग दलों में बंट जाता है। इनका प्रदेश भर में कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। जीतन राम मांझी का प्रभाव मगध के इलाके में है। इसमें गया, पटना, जहानाबाद, अरवल, नालंदा, नवादा जिला शामिल है।

हालांकि मगध के मुसहर भी जीतनराम मांझी के साथ खड़े है, इसपर सवाल खुद जीतन राम मांझी के स्वजातीय नेता उठाते है। क्योंकि जीतन राम मांझी गया लोकसभा सीट से तीन बार चुनाव लड़े। तीनों बार हारे। 1991 में जीतनराम मांझी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे। उन्हें जनता दल के राजेश कुमार ने चुनाव हराया था। राजेश कुमार पासवान जाति के थे। 2014 में जीतनराम मांझी जनता दल यू की टिकट गया से लोकसभा चुनाव लड़ा। उन्हें भाजपा के हरी मांझी ने हरा दिया। 2019 में वे गया से ही महागठबंधन के उम्मीदवार थे। उन्हें एनडीए के उम्मीदवार विजय कुमार मांझी ने चुनाव हरा दिया था। जीतन राम मांझी दो बार लोकसभा का चुनाव अपने ही स्वजातीय उम्मीदवारों से हार गए। गया लोकसभा क्षेत्र में मांझी जाति का वोट अच्छी संख्या में है। विरोधियों का तर्क है कि जीतन राम मांझी को अपनी ही जाति का वोट नहीं मिला और वे लोकसभा चुनाव हार गए।

बिहार की दलित राजनीति की अजीब स्थिति है। कुछ दलित नेता दलितों की राजनीति को कंट्रोल करने का दावा करते है। हालांकि वे दलित जातियों की आर्थिक हालात में सुधार करने में विफल रहे है। दलितों की शैक्षणिक हालात बहुत खराब है। संसाधन से मजबूत पासवान जाति की हिस्सेदारी नौकरियों और शिक्षा में अच्छी है। लेकिन मूसहर आदि जाति की हालत आज भी बिहार में बहुत दयनीय है। बिहार की दलित राजनीति ने पिछले तीन दशक में कोई जननेता नहीं दिया है। कुछ दलित परिवार दलित राजनीति को अपनी जमींदारी समझते है।

बिहार की दलित राजनीति की एक और खासियत है। बिहार की दलित राजनीति की दिशा तय करने में ऊंची जातियों की भूमिका अभी भी है। दलित नेताओं की रणनीति में ऊंची जातियों की खासी भूमिका रहती है। ऊंची जातियों के प्रभाव रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी दोनों है। रामविलास पासवान बिहार की राजनीति में राजपूतों औऱ भूमिहारों का सक्रिय सहयोग लेते है। वहीं जीतनराम मांझी मगध के इलाके में भूमिहारों का सक्रिय सहयोग लेते है।

 

 

 

First Published on: September 4, 2020 2:43 PM
Exit mobile version