बिहार में जीते तो तेजस्वी यादव ही है। उन्होंने उस चुनाव को कांटे का बना दिया जिसे लोग एकतरफा मान रहे थे। किसी ने नहीं सोचा था कि सत्तारूढ़ दल को इतना पापड़ बेलना पड़ेगा। राजनीतिक पंडित तो 200 सीट तक दे रहे थे। तेजस्वी यादव तो गिनती में ही नहीं थे। लेकिन बिहार की जनता ने तमाम अटकलों को खारिज कर दिया। उसने भले ही कुर्सी पर नीतीश को बैठाया हो पर अपना नेता तेजस्वी को ही माना है। इस लिहाज से देखा जाए तो जनता ने स्पष्ट संदेश दिया है कि जंगलराज गुजरे दिनों की बात है। उसका डर दिखा कर जनता को ठगा नहीं जा सकता।
इस पर सत्ता पक्ष को भी मंथन करना होगा कि आखिर कब तक वे अपनी नाकामियों पर पर्दा डालेंगे। यह कह कर हर बार तो चुनाव नहीं जीता जा सकता कि वह जंगलराज का दौर था। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। डरा कर चुनाव जीतना उनका स्वभाव है। मगर बिहार की जनता बहुत ढीठ है। वह भी डरी नहीं। तेजस्वी यादव ने उसका मौका भी नहीं दिया। उन्होंने बहुत चुतराई से सत्ता पक्ष के हमले को बेअसर कर दिया। उन्हें विरासत में जो जंगलराज की परछाई मिली थी, उससे बड़ा कद, खुद का कर लिया। तभी तो जंगलराज के युवराज जैसे नारों के बाद भी युवा, तेजस्वी से जुड़े रहे।
बिहार चुनाव की यह सबसे बड़ी बात रही। वह इसलिए क्योंकि युवा सहज रूप से खुद को भाजपा नेतृत्व से जोड़ लेते है। उनको विकास की संभावना वहीं दिखती है। काम करने का जज्बा और देश-समाज को आगे ले जाने का जुनून, उनको भाजपा में ही दिखता है। लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग हो गया। बिहार के तकरीबन साढ़े पंद्रह लाख नये युवा मतदाताओं को भाजपा नेतृत्व में कोई आकर्षण नहीं दिखा। वह उन्हें थकाऊ और पारंपरिक लगा। उनको संभावना तेजस्वी में दिखी।
इनकी गिनती उन मतदाता में होती है जिन्होंने जंगलराज देखा नहीं था। बस मां-पिता की कहानियों में सुना था। जो सवर्ण है, उनको स्मृतियां विरासत में मिली है। पर उनसे अलग जो गैर-सर्वण तबका है, उसको विरासत में अगर कुछ मिला है तो वह आर्थिक विषमता ही है। उसे 15 साल का सुशासन भी दूर नहीं कर पाया। हां, सड़के तो जरूरी बनी है, पर अर्थव्यवस्था को गति देने वाले उद्योग बंद हो चुके हैं।
सुशासन बाबू उसे चालू नहीं कर पाए। इस वजह से युवाओं को काम नहीं मिला। बेरोजगारी उनकी नियति बन गई। उसे बदलने का वादा करके तेजस्वी बिहार चुनाव के अगुवा बन गए। खुद प्रधानमंत्री को तेजस्वी के खिलाफ बोलना पड़ा है। जाहिर है तेजस्वी ने जाति और बिरादरी से हटकर विकास को जो मुद्दा बनाया था, उसमें विकास की बात करने वालों की पोल खुल गई थी।
इसी वजह से सुशासन बाबू काफी नाराज भी दिखे थे। रैलियों में उनका गुस्सा और खीज साफ नजर आ रहा था। उसकी बड़ी वजह यह रही कि जिस चुनाव को वे सहज मान रहे थे, उसे तेजस्वी ने दिलचस्प बना दिया था। तेजस्वी, लोकप्रियता में चाचा से आगे निकल गई। लालू की गैर मौजूदगी में भी तेजस्वी ने चुनाव को अपनी ओर मोड़ लिया। सत्ता पक्ष की चुनावी रणनीति तेजस्वी के ईर्द गिर्द बनने लगी थी। एक तरह से कहा जाए तो बिहार चुनाव के केन्द्र में तेजस्वी आ गए थे। उन्होंने जिस तरह से युवाओं को खड़ा किया था, उससे सत्ता पक्ष के लोग डर गए थे। तभी तो बाद के चरण में आरक्षण की बात होने लगी थी।
अगर पहले चरण के मतदान पर गौर किया जाए तो उसमें महागबंधन आगे निकल चुका था। यह चुनाव परिणाम में भी नजर आ रहा है। भोजपुर और मगध वाले इलके में महागठबंधन को काफी फायदा हुआ। इस बात को भापते हुए, सत्ता पक्ष ने आगामी चरण के रणनीति बदल थी। ध्रुवीकरण का कार्ड खेला जाने लगा। नीतीश कुमार भावनात्मक अपील करने लगे। कहने लगे यह मेरा आखिरी चुनाव है। जंगलराज की स्मृतियों को कुरेदा जाने लगा। सही मायनों में सर्वणों को जंगलराज का हवाला देकर डराया जाने लगा। इतना सब करने के बाद भी सत्ता पक्ष पर तेजस्वी यादव भारी पड़े।
एक और बात जो देखने में आई, वह यह कि वाम दलों को तेजस्वी यादव की अगुवाई ने जिंदा कर दिया। इस लिहाज से देखा जाए तो बिहारी ने चमत्कार कर दिया है। सूबे ने उस दल को संजीवनी दी है जिसे खत्म मान लिया गया था। हालांकि जिस तरह वाम का उभरा बिहार में अचानक हुआ है, उससे एक बात तो साफ है कि शासन व्यवस्था का जो मौजूदा ढर्रा है, उसे लेकर लोगों का मोह भंग हो रहा है। हां, गति जरूर धीमी है। पर बिहार के चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि उसे तेजस्वी जैसा युवा नेतृत्व मिल जाए तो बदलाव की बयार बहने के पूरे आसार है।