फिल्म रिव्यू – ‘गुलाबो सिताबो’ अपने धीमी गति की वजह से आपको सुला सकती है


अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना स्टारर ‘गुलाबो सिताबो’ में सिर्फ कुछ एक मोमेंट्स ही है जो आपका ध्यान खींचने में कामयाब रहते हैं। इसके अलावा पूरी फिल्म इतनी धीमी गति से चलती है कि इसमें आपको सुलाने की ताकत है।


नागरिक न्यूज admin
मनोरंजन Updated On :

‘गुलाबो सिताबो’ का इंतज़ार लोग इसलिए भी बेसब्री से कर रहे थे क्योंकि इस फिल्म में पहली बार दो मंजे हुए कलाकार – अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना एक साथ नज़र आने वाले थे। उससे भी बड़ी वजह थी फिल्म के निर्देशक शूजित सरकार जो इसके पहले दोनों कलाकारों से अपनी पिछली फिल्मों में बेहतरीन काम निकलवा चुके हैं। लेकिन फिल्म देखने के बाद यही लगता है कि इस फिल्म से जो भी आशा थी वो पूरी नहीं हो पाती है। फिल्म बेहद ही स्लो गति से चलती है और इसके अंदर कुछ मोमेंट्स ही है जिनको देख कर आप फिल्म का लुत्फ़ उठाते है। पूरी फिल्म आपको बांधने में कामयाब नहीं रहती है और उबासी आती रहती है। 

फिल्म की कहानी लखनऊ की एक हवेली के बारें में है जिसकी देखरेख मिर्ज़ा (अमिताभ बच्चन) करते है। हवेली बेहद ही पुरानी है और अपने जर्जर अवस्था में है। उसी हवेली में कई परिवार सालों से किराये पर रहते आ रहे हैं, लेकिन उनके किराये में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। उन्हीं किरायेदारों में से एक हैं- बांके अवस्थी (आयुष्मान खुराना)। बांके की आर्थिक स्थिति बेहद ही कमजोर है और एक आटे चक्की की मदद से अपने परिवार का गुजारा चलाते हैं। आगे चलकर घटनाक्रम कुछ ऐसा हो जाता है की पुरातत्व विभाग की नज़र उस हवेली पर जा टिकती है और उसके बाद हवेली को पुरातत्व विभाग अपने कंट्रोल में लेने के लिए पुरजोर कोशिश शुरू कर देता है। आगे और कुछ लिखना फिल्म का मजा किरकिरा कर सकता है। 

शूजित सरकार से इस बात की काफी उम्मीदें थी कि अपनी पिछली फिल्मों की ही तरह इस बार भी वो एक और कसी हुई फिल्म दर्शकों को परोसेंगे। लेकिन उम्म्मीद के बिलकुल विपरीत ‘गुलाबो सिताबो’ है। मेरे कहने का ये मतलब नहीं है कि फिल्म अच्छी नहीं है। फिल्म जरूर अच्छी बन पड़ी है, लेकिन अगर फिल्म की अवधि दो घंटे हो तो आप यही उम्मीद रखेंगे की इस फिल्म में पेश होगी, कसावट होगी और ये आपको पूरी तरह से बांध कर रखेगी। लेकिन अफसोस ऐसा कुछ भी नही है। फिल्म के मूल मुद्दे पर आने में शूजित ने काफी समय ले लिया है। 

अमिताभ बच्चन और आयुष्मान ने अपनी ओर से कोशिश पूरी की है। लेकिन इतनी ज्यादा कोशिश नज़र आती है कि आप एक समय के बाद चीज़ों को पचा नहीं पाते है। लखनऊ के लहजे को आयुष्मान ने पकड़ लिया है, लेकिन बच्चन साहब पीछे रह गए है। बच्चन साहब की आवाज को लेकर भी परेशानी है। उनके डायलाॅग क्या हैं ये कई जगहों पर पता भी नहीं चल पाता है। चीज़ों को कब नियंत्रित करना है ये शायद दोनों अभिनय के दौरान भूल गए थे। गनीमत है कि लगभग 40 मिनट के बाद फिल्म में विजय राज़ की एंट्री होती है और उनको देखने में खासा मजा आता है। 

ये फिल्म एक ड्रामा है और इसको मैं कॉमेडी कही से भी नहीं बोलूंगा। सिचुएशनल कॉमेडी इस ड्रामा का एक बड़ा हिस्सा है, लेकिन फिल्म अपने इसी सिचुएशनल कॉमेडी की वजह से मात खा जाती है। कही भी खुल कर हंसी नहीं आती है। शुक्र है कि विजय राज़ जो फिल्म में पुरातत्व विभाग के एक अधिकारी बने हैं, अपने बोलने के लहजे और तौर तरीको से चेहरे पर कुछ मुस्कान ले आते हैं। बृजेन्द्र काला भी फिल्म में वकील की भूमिका में हैं और उनका काम भी सधा हुआ है। 

ये फिल्म सिनेमा हॉल के बदले सीधे स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म पर रिलीज़ की गयी है। स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म के कंटेंट पर नज़र डालें तो यही पता चलेगा कि उनके अधिकतर कंटेंट में पेश होता है और ऐसा बहुत कम ही होता है कि स्लो पेश वाले कंटेंट स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म पर नज़र आये। शूजित की ‘गुलाबो सिताबो’ का सीधा मुकाबला पेशी कंटेंट से होगा और ये वहां पर निश्चित रूप से मात खा जायेगी। मिलेनियन इस फिल्म को पूरी तरह से खारिज कर देंगे, इस बात में कोई संदेह नहीं है। 

जब एक कमर्शियल फिल्म बनती है तो उसका मुख्य उद्देश्य यही होता है कि वो जनता का मनोरंजन करे, ना की अपने स्लो पेश की वजह से लोगों को थकाए। लगता है की कमर्शियल फिल्म का ये मंत्र शूजित भूल गए थे ‘गुलाबो सिताबो’ को बनाते वक़्त। इस फिल्म को मैं बुरी फिल्म बिलकुल भी नहीं कहूंगा, क्योंकि जनता में एक तबका होगा जो इसे पसंद करेगा। बस ये फिल्म मुझे अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर पायी। या एक वजह ये भी हो सकता है कि मैं शूजित सरकार से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा बैठा था।