ज़िन्दगी कैसी है पहेली, हाय…कभी तो हंसाए, कभी ये रुलाये


गीतकार योगेश को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए जावेद अख्तर ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लिखा की जो ओहदा योगेश को मिलना चाहिए था वो उनको कभी नहीं मिला। जावेद अख्तर के इन शब्दों में योगेश की जिंदगी का सार छुपा हुआ है। सत्तर के दशक में उन्होंने एक के बाद एक शानदार गीतों की झड़ी लगा दी थी लेकिन लोगों ने फिल्म को याद रखा, उसके कलाकारों को याद रखा, फिल्म के संगीतकार को याद रखा लेकिन उनके नाम को कही हाशिये पर डाल दिया।


नागरिक न्यूज admin
मनोरंजन Updated On :

सत्तर के दशक में बासु चटर्जी और हृषिकेश मुखर्जी ने जो भी फिल्में बनाई उन सभी में एक नाम सामान्य था और वो था योगेश का। आनंद, मिली, छोटी सी बात, रजनीगंधा, मंज़िल या फिर बातों बातों में – ये सभी ऐसी फिल्में ही जिनको यादगार बनाने में योगश की बहुत बड़ी भूमिका थी। सही मायनों में अगर हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी ने आम आदमी को रुपहले पर्दे पर नायक का रूप दिया तो उसमें योगेश का भी एक बहुत बड़ा हाथ था। 

सत्तर के दशक में में उनकी लोकप्रियता उनकी फिल्मों की अभिनेत्रियों के बीच बहुत थी और इसकी वजह थी उनका शायराना अंदाज़। योगेश उनके बीच शायर के रूप में जाने जाते थे और जब कभी वो भूले भटके अपनी फिल्मों के सेट पर पहुंच जाते थे तब उनकी फिल्मों की अभिनेत्रियां उनसे शेर सुनने की डिमांड अक्सर किया करती थी।  

फिल्म आनंद में उनका लिखा गाना ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ किसी और फिल्म के लिए लिखा गया था लेकिन जब हृषिकेश मुखर्जी ने इस गाने के शब्दों को सुना तब उन्होंने जिद पकड़ ली की वो उस गाने को उनकी फिल्म आनंद के लिए दे दे। लेकिन जब राजेश खन्ना ने भी गाने की डिमांड की तब मजबूरन प्रोडूसर को दो में से एक गाना ऋषिकेश मुखर्जी को देना पड़ा था। 

योगेश लखनऊ के एक बड़े परिवार से थे जिनका शहर में कोठी था। जब वो मुंबई आये तब उन्होंने अपने चचेरे भाई के साथ रहना शुरू किया। उनके चचेरे भाई हिंदी फिल्मों में उस वक़्त लेखन का काम किया करते थे और इसी बहाने योगेश का भी फिल्मों के सेट पर आना जाना शुरू हो गया। कुछ समय बाद उनको घर की याद सतानी शुरू हो गयी और फिर मुंबई के मरीन ड्राइव पर अकेले उन्होंने अपने अवसाद को पन्नों के ऊपर भरना शुरू किया। जब उनके लिखे गए गीतों की डायरी के ऊपर एक संगीतकार की नज़र पड़ी तब उनको यही हिदायत मिली की वो फिल्मों के लिए गाने क्यों नहीं लिखते। अपने दोस्त की वजह से जल्द ही उनको फिल्मो में मौका मिल गया लेकिन वो फिल्में बी-ग्रेड की थी जिसमे सिर्फ स्टंट की बात की गयी थी। एक गाने को लिखने का उनका मेहनताना था 25 रुपये। बी-ग्रेड फिल्में होने की वजह से ये फिल्में आई और चली गई और किसी का भी ध्यान उनके ऊपर नहीं गया।  

जब कुछ कमाई होने लगी तब वो अँधेरी के एक झुग्गी से निकल कर चाॅल में रहने लगे लेकिन फिर भी गरीबी का आलम कुछ ऐसा था की जब कभी उनको अपनी फिल्मों के गाने सुनने होते थे तब वो मशहूर संगीतकार सलिल चौधरी की पत्नी सविता चौधरी के पास जाते थे क्योंकि उनके पास ग्रामोफोन हुआ करता था। खुद का गाना सुनने के लिए वहां पर नये संगीतकारों की पूरी फ़ौज हुआ करती थी। साहस जुटाकर एक दिन उन्होंने सविता को कह दिया की उनको सलिल दादा से मिलना है। लेकिन पहली मुलाकात में कुछ बात नहीं बनी। 

ईश्वर ने उनको मौका दिया गीतकार शैलेन्द्र के निधन के बाद जो अक्सर सलिल चौधरी के लिए गाने लिखते थे। उनके निधन के बाद सलिल चौधरी एक नए गीतकार की तलाश में थे। जब गाना लिखने की बात आयी तब उनको सिर्फ आधा घंटा मिला पूरा गाना लिखने के लिए। आधे घंटे के बाद भी जब योगेश की कलम से कुछ नहीं निकल पाया तब सलिल चौधरी के असिस्टेंट्स ने उनका काफी मजाक उड़ाया। लेकिन घर से बाहर निकल कर जब वो बस स्टैंड पर पहुंचे ही थे तभी उनके दिमाग में कुछ लाइने कौंधी और उसके बाद उन्होंने अपने कदम वापस सलिल चौधरी के घर की तरफ मोड़ लिए। गाने की लाईने सुनने के बाद सलिल चौधरी इतने उत्साहित हुए की गाने के शब्द उन्होंने तुरंत अपनी पत्नी के साथ शेयर की। सलिल चौधरी के लिए आगे चलकर योगेश ने कई यादगार गाने लिखे। उनकी अगली फिल्म अन्नदाता ने भी गानों के मामले में जबरदस्त सफलता हासिल की।  

निर्देशक बासु चटर्जी का सन्दर्भ योगेश को सलिल चौधरी ने ही दिया था। जब वो बासु चटर्जी से मिले तो उन्होंने उनको पूछा की उनके पास दो संगीतकार है एस डी बर्मन और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल – इन दोनों में से वो किसके साथ काम करना पसंद करेंगे. जब उनको कुछ नहीं सुझा तब उन्होंने मन्ना डे से मिलने की सोची जो उनके बेहद करीब हुआ करते थे। जब मन्ना डे को उन्होंने अपनी दुविधा फ़ोन पर बताई तब उन्होंने गुस्से में यही कहा की लक्ष्मीकांत जैसे कई लोग मिल जायेंगे लेकिन दादा जैसे लोग तुमको कैसे मिलेगा।  

ये योगेश की बदकिस्मती थी की कई शानदार गाने लिखे के बावजूद फिल्म जगत ने उनको कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी। उनका दायरा कुछ निर्देशकों की फिल्मों तक ही सीमित था जिनमे से बासु चटर्जी और हृषिकेश मुखर्जी प्रमुख थे। कुछ यही हाल संगीतकारो के लिये भी था। आर डी बर्मन, राजेश रोशन, एस डी बर्मन और भप्पी लाहिरी ही कुछ प्रमुख संगीतकार थे जिनके लिये उन्होनो गाने लिखे। राजेश खन्ना के निधन के बाद अगर हर टीवी चैनल या रेडियो स्टेशन पर कोई गाना बार बार दिखाया या सुनाया गया था तो वो “कही दूर जब दिन ढल जाए’ ही था. विद्या सिन्हा के निधन के पर श्रद्धांजलि देते वक़्त ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे’ गाना को ही याद किया गया था। योगेश का फिल्म जगत में एक बेहद महत्वपूर्ण योगदान है जिसको लोगों ने भुला दिया है।