परदा है परदा : जब दिलीप कुमार ने बेचे सैंडविच

दिलीप कुमार को इस बात पर आज तक गर्व है कि उनके भाषण की वजह से देशवासियों की सच्ची भावनाएं अंग्रेजों के सामने प्रकट हो पाई और उन्हें "गांधीवादियों" के साथ एक रात जेल में बिता पाने का मौका मिला।

जब यूसुफ खान (बाद में दिलीप कुमार) उन्नीस बरस के आसपास रहे होगें, किसी बात पर अपने पिता से उनकी कहासुनी हो गयी और वे गुस्से में घर छोड़कर निकल पड़े । उन्होंने बोरीबंदर स्टेशन से पूना (अब पुणे) की ट्रेन पकड़ी। पुणे पहुंचते ही सबसे पहले उन्होंने एक ईरानी होटल में चाय पी और साथ ही कुछ कुरकुरे खाए। बिल चुकाने के बाद उसके ईरानी मालिक से फारसी में बात करने पर वह बहुत खुश हुआ और उन्होंने उसे एक ऐसे एंग्लो इंडियन रेस्त्रां मालिक का पता बताया जो उन्हें कोई नौकरी दिला सकता था। रेस्त्रा के मालिक ने उन्हें एक कैंटीन के मालिक के पास भेज दिया और उसने उन्हें अपने मैनेजर के पास।

मैनेजर ने उनकी अच्छी अंग्रेजी देख कर उनको तुरंत नौकरी पर रख लिया। इस नौकरी में उन पर कैंटीन के आम इन्तज़ाम देखने के साथ-साथ और भी कई ज़िम्मेदारियाँ थीं। उन्हें फलों, सब्ज़ियों, अण्डों, दूध, पनीर, मक्खन का रोज़ाना का हिसाब देखना था। बाज़ार से ताज़ा चीजें लाने का काम भी उनका ही था। उन्हें रसोई के माहौल को अच्छा और साफ-सुथरा बनाने का काम भी सौंपा गया था। इसके अलावा स्वीमिंग पूल और उसमें भरे गये पानी और आमदनी और खर्च का भी हिसाब किताब रखना था।

दिलीप कुमार मन लगाकर काम करने लगे। कैंटीन में बिट्रिश ऑफिसर और सिपाही आया करते थे। एक दिन उनके बनाए सैंडविच एक मेजर जनरल और उसके मेहमानों को खूब पसंद आए। इसमें कमाई का अच्छा अवसर देखकर उन्होंने मैनेजर की इजाज़त लेकर शाम को कुछ घंटों के लिए एक टेबल अलग लगाकर सैंडविच बेचने का काम शुरू कर दिया। उनका स्टाल चल निकला और पहले हफ़्ते ही अच्छा मुनाफा हुआ।

इस खुशी में उन्होंने अपने भाई अयूब को तार भेजकर पुणे में अपने होने की जानकारी दे दी।अगले हफ्ते ही अयूब पुणे जा पहुंचे मां के हाथ का बना हलवा और कुछ पैसे लेकर। उन्होंने वापस जाने से मना कर दिया। उन्हें खुश और अच्छी हालत में देख अयूब भी खुशी खुशी लौट गए । इस बीच द्वितीय विश्व युद्ध के चलते कैंटीन के ठेकेदार बदल गए और मैनेजर भी नौकरी छोड़कर चला गया। लेकिन तब तक वे अपनी नौकरी और सैंडविच बेचकर पांच हजार रुपए बचा चुके थे जो बेहद बड़ी रकम थी। ईद नजदीक थी, उन्हें घर लौटने का यह अच्छा अवसर लगा और वे घर लौट आए।

चलते चलते

फौजी क्लब में नौकरी के दौरान वहां के कुछ बड़े अफसरों के कहने पर दिलीप कुमार ने भारत की आजादी की लड़ाई पर अपने विचार खुलकर प्रकट किए। उनके भाषण पर खूब तालियां बजीं और उनका सीना गर्व से फूल गया । लेकिन यह खुशी कुछ ही देर में तब काफूर हो गई जब वहां पुलिस आई और अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ भाषण देने के आरोप में उन्हें हथकड़ी पहनाकर यरवदा जेल में ले गई। उन्हें सत्याग्रही कैदियों के बीच में बंद कर दिया गया। जेलर ने उनके पहुंचने पर जब उन्हें “गांधी वाला” कहा तो उन्हें बहुत हैरानी हुई। बाद में पुलिस वाले ने उन्हें बताया कि जेलर ने अनजाने में ही उन्हें उन लोगों के साथ जोड़ लिया था जो देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे।

कुछ कैदियों से बातचीत में उन्हें जानकारी दी कि इसी जेल की एक कोठरी में सरदार वल्लभभाई पटेल भी बंद हैं और भूख हड़ताल पर हैं। उनका साथ देने के लिए लगभग सभी सत्याग्रही उस रात खाना न खाने का निर्णय कर चुके थे। दिलीप कुमार ने भी उस रात खाना न खाने का निर्णय लिया, हालांकि भूख के कारण उन्हें पूरी रात नींद नहीं आई। लेकिन अगले दिन ही उनके क्लब का मेजर उन्हें छुड़ा कर ले गया। खैर… दिलीप कुमार को इस बात पर आज तक गर्व है कि उनके भाषण की वजह से देशवासियों की सच्ची भावनाएं अंग्रेजों के सामने प्रकट हो पाई और उन्हें “गांधीवादियों” के साथ एक रात जेल में बिता पाने का मौका मिला।

First Published on: जुलाई 7, 2021 10:59 पूर्वाह्न
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