जन्मदिन विशेष – कैसे बनी थी राकेश मेहरा की रंग दे बसंती


राकेश ओमप्रकाश मेहरा की रंग दे बसंती भले ही 2006 में रिलीज़ हुई थी लेकिन फिल्म के बीज इसके रिलीज़ के 8 साल पहले गुजरात के दूर दराज के गावों में बो दिए गए थे। रंग दे बसंती हिंदी फिल्म इतिहास में उन चंद फिल्मो के बीच अपना स्थान बनाती है जिनका असर दूर तक गया।


नागरिक न्यूज admin
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फिल्मों में आने के पहले जब राकेश मेहरा विज्ञापनों का निर्देशन करते थे तब उसी दरमियान उनकी मुलाकात लेखक कमलेश पांडेय से हुई जिन्होंने आगे चल कर रंग दे बसंती को लिखा। मामुलीराम- द लिटिल बिग मैन एक डाक्यु फीचर थी जिसकी शूटिंग के दौरान दोनों का गुजरात मे पहली बार मिलना हुआ। डाक्यु फीचर के रिसर्च के सिलसिले में दोनों ने एक लम्बा वक़्त गुजरात के गावों में गुजारा। दिन मे रिसर्च खत्म करने के बाद शाम के दौरान काफी खाली वक़्त होने की वजह से इन दोनो को एक दूसरे से शाम के वक्त बातचीत करने का काफी मौका मिलता था जिसका खात्मा कविताओं के पठन पाठन पर होता था। देश के मौजूदा हालात पर भी काफी बातें होती थी और दोनों को एक दूसरे के बारे में ये भी पता चला की ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जिन क्रांतिकारियों ने बंदूके उठाई थी उनसे उनको काफी लगाव था। गुजरात के उन्ही दूर दराज के गांवो मे रिसर्च के दौरान 1919 से लेकर 1933 तक भारत के स्वाधीनता संग्राम के संघर्ष के ऊपर एक फिल्म बनाने के आईडिया ने जन्म लिया। उस वक़्त उन दोनों तय किया की अगर इसके उपर फिल्म बनाने मे वो कामयाब रहे तो उसको नाम आहूति या फिर यंग गन्स ऑफ़ इंडिया रखेंगे।

दो साल की कड़ी मेहनत के बाद कमलेश पांडेय ने फिल्म का पहला ड्राफ्ट तैयार कर दिया लेकिन इस क्रांतिकारी कहानी के ऊपर कोई भी बालीवुड का निर्माता पैसा लगाने को तैयार नहीं था। मामला ठन्डे बस्ते में चला गया और उसके तुरंत बाद राकेश अपनी पहली हिंदी फिल्म अक्स बनाने में जुट गये। अक्स के रिलीज़ होने के बाद राकेश ने अपनी पहली फिल्म के ड्राफ्ट को फिर से रिविजिट किया और ये तय किया की चाहे कुछ भी हो जाये उनकी अगली फिल्म यही होगी। फिल्म की कहानी लिखने के बाद उन्होंने सोचा की इसकी कहानी कुछ नौजवान विद्यार्थियों को सुनाई जाये ताकी उनके भी सुझावो को फिल्मे मे समाहित किया जा सके। मुंबई के विद्यार्थियों का रिस्पांस बेहद रूखा था और कुछ वही हाल दिल्ली के विद्यार्थियों का भी था। इसके बाद राकेश मेहरा और कमलेश पांडेय को पता चल गया की भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, सुखदेव और अशफ़ाक़ुल्ला खान के योगदान को युवा पीढी नही जानती है। और इसी के बाद उन्होंने तय किया की वो इस फिल्म को जरूर बनाएंगे।

जब एनडीटीवी चैनल ने कॉफिन्स इन ट्राई कलर के नाम से एक शो प्रसारित किया जिसमे मिग-21 की खरीद में घोटाले की बात कही गयी थी तब उसको देखने के बाद राकेश बेहद विचलित हुए। इसके बाद राकेश ने भी अपनी कलम की धार तेज करके कहानी लिखनी शुरू कर दी। उसी बीच राकेश की मुलाकात लेखक रेंसिल डी सिल्वा से हुई और वो भी आगे चलकर फिल्म की लेखन टीम का हिस्सा बन गये। फिल्म का युवा तत्त्व रेंसिल की कलम से ही निकला था। कमलेश और राकेश की ही तरह रेंसिल का भी बैकग्राउंड एड एंजेसी का था फर्क सिर्फ इतना था कि रेंजिल को जब इस फिल्म को लिखने का मौका मिला वो उस वक्त भी एजेंसी मे काम कर रहे थे। ये वो वक़्त था जब मोबाइल फ़ोन का प्रचलन आम हो चला था। कहानी के ऊपर देर रात तक फ़ोन पर बातें होती थी जिसका खाका अगले दिन रेंजिल अपने दफ्तर में लिख कर वापस राकेश को भेज देते थे।

उसी दौरान राकेश को आमिर खान को कहानी सुनाने का मौका मिल गया और तब आमिर फिल्म मंगल पांडेय की शूटिंग कर रहे थे। आमिर खान ने बाद में एक इंटरव्यू मे उस नरेशन के बारे में कहा था की जब राकेश उनको कहानी सुना रहे थे तब अंदर से वो फिल्म को बार बार मना कर रहे थे क्योकि उस फेज मे भगत सिंह के उपर लगातार फिल्में आ रही थी लेकिन कहानी में इतनी ताकत थी की दो घंटे बाद आमिर ने फिल्म करने की अपनी हामी दे दी। ये आमिर खान ही थे जिन्होंने राकेश मेहरा को ये सुझाव दिया था की अपनी कहानी में वो इस बात को भी शामिल करे की वो सभी लड़के देश के रक्षा मंत्री के हत्या की जिम्मेदारी अपने सर पर लेते है। 

फिल्म के क्लाइमेक्स में जब आमिर खान जिंदगी में प्राथमिक विकल्प की बात करते है वो सभी लाइन और इसका विचार राकेश मेहरा की पत्नी भारती ने दिए थे जो फिल्म की एडिटर और क्रिएटिव प्रोडूसर भी थी।