नई दिल्ली। संस्कृति मूल्यानुसंधान की अनुभूत्यात्मक प्रक्रिया है; और चूंकि प्रक्रिया है इसलिए गतिमान है और गतिशील रहेगी। संस्कृति भारतीय समाज का, समुदाय का, सामुदायिकता का सृजन भी है और प्रदर्शन भी है। वह किसी चीज को प्रदर्शित करना चाहता है तो उसके माध्यम और रास्ते सांस्कृतिक ही होते हैं। और भी रास्ते होते होंगे लेकिन सबसे सकारात्मक और सृजनशील रास्ता रचनात्मक सांस्कृतिक रास्ता ही है। इसलिए भारत की संस्कृति हमें अतीत से जोड़ती है और जोड़े रखती है।
यह उद्गार आचार्य कृपलानी स्मृति व्याख्यान के दौरान मुख्य अतिथि/वक्ता के रूप में बोलते हुए म.प्र. के पूर्व मंत्री, वरिष्ठ समाजवादी चिंतक एवं आईटीएम यूनिवर्सिटी के संस्थापक कुलाधिपति श्री रमाशंकर सिंह ने व्यक्त किए। व्याख्यान का विषय भारत की राजनीति और संस्कृति रखा गया था तथा इसका आयोजन आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट दारा स्थानीय हिन्दी भवन में किया गया था।
उन्होने कहा कि भारत की संस्कृति एक जीवन पथ है जिसके साथ चले बगैर हम अपने को रिक्त पाते हैं। धर्म व संस्कृति के टकराव पर सवाल उठाते हुए उन्होने कहा कि धर्म एक व्यापक शब्द है और धर्म व संस्कृति एक दूसरे से लेते बहुत कुछ हैं लेकिन एक नहीं होते। भारत में चार तरह के धर्म है: सनातन हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख। इन चारों में संस्कृतियां ओवरलैप करती हैं। ऐसा नहीं है कि धर्म अलग है तो संस्कृति भी पूरी तरह से अलग हो। दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देश हैं जहां धर्म कुछ और है और संस्कृति कुछ और है। धर्म और संस्कृति का टकराव वहां भी नहीं है तो हमारे यहां क्यों हो?
उनका यह भी कहना था कि श्रीलंका में लोगों को पता भी नहीं है कि रामचरितमानस के नायक खलनायक कौन हैं, उसके पात्र कौन हैं; वहां उसका कोई उल्लेख नहीं है और अतीत की कोई ऐसी चीज भी नहीं है जिससे वह जागृत हो सके।
मुख्य अतिथि ने राजनीति की चर्चा करते हुए कहा कि धर्मावलंबियों में, धर्मों में अलगाव पैदा करना राजनीति का बहुत पहले से ही परम कर्तव्य रहा है। राजनीति का रसातल में जाना हम देख रहे हैं, उसमें मूल्यों का पराभव हम देख रहे हैं, उसमें टूट हम देख रहे हैं, विखंडन हम देख रहे हैं। न सिर्फ राष्ट्र की टूट कुछ दशक पहले हमने भुगती है बल्कि राज्यों के बीच भी टूट-फूट हम देख रहे हैं। यदि यह सब हो रहा है राजनीति में तो उसका प्रभाव संस्कृति में आएगा क्योंकि राजनीति सर्वग्राही बन गई है। समाज के विभिन्न निकायों की स्वतंत्रता खत्म हो गई है। अब राजनीति हमारा लक्ष्य तय करती है, वही हमारे मूल्य तय करती है और वही हमारा व्यवहार तय करती है।
उन्होने आगे कहा कि संस्कृति में विकृति की उत्पत्ति कहां से हुई है, इसकी चर्चा जरूर होनी चाहिए। आजादी मिलने के पहले गांधी जी ने ऐसा वातावरण पूरे देश में बना दिया कि अतीत से जोड़ते हुए, मूल्य लेते हुए और ग्रहण करते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे और एक विशिष्ट किस्म का मूल्यबद्ध वातावरण उन्होने भारत में बनाया, लेकिन अचानक जैसे ही सत्ता हिंदुस्तानियों के हाथ में आनी शुरू हुई, भारत में गांधी जी के मूल्यों को भुलाना प्रारंभ हो गया। यहां तक हुआ कि गांधी जी ने अगस्त 1947 के आसपास के तीन-चार महीनों में यह कहना शुरू कर दिया कि ‘वह समय अलग था जब मेरी तूती बोलती थी, आज मेरी कोई नहीं सुनता है। उन्होंने आखिर क्यों यह भी कहा कि जवाहरलाल तो मेरी थोड़ी सुन भी लेता है लेकिन सरदार पटेल तो मुझे किसी काम का आदमी नहीं मानते। यह उन दो लोगों की बात है जो गांधी जी के सबसे निकट से काम करने वाले थे। 15 अगस्त 1947 के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री ने और पहले गृह मंत्री ने, और उनकी युति ने एक-एक करके भारतीय संस्कृति के जो मूल्य थे उनको अपने एजेंडे से बाहर करना शुरू कर दिया।
भारत की महान सभ्यता से निकषी संस्कृति से उद्भूत जो संस्कार थे उनके अंग, प्रत्यंग, उपांग, अवयय कौन-कौन से हैं जिनका तिरस्कार हुआ है और करीब-करीब तिरोहित होने की नौबत पर पहुंच गए हैं, इसकी एक लंबी सूची रमाशंकर सिंह ने गिनाई। उन्होने आगे कहा कि यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि दुनिया की महानतम सभ्यता भारत में थी और उससे उद्भूत हुई भारत की संस्कृति। संस्कृति में जो विकृति आई, उसकी शुरुआत एक तो आजादी मिलने के साथ हुई, दूसरा बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत भूमंडलीकरण के साथ होती है। भूमंडलीकरण के साथ पूंजीवाद आया और वह रुका नहीं, पूंजीवाद आवारा पूंजीवाद में बदल गया जिसने संस्कृति का जो बचा-खुचा था उसको बाजार में अपने लाभ के लिए पेश कर दिया।
उन्होंने विलुप्त होते तमाम सांस्कृतिक विरासत व् प्रतीकों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की। उनका कहना था कि भारत के कॉर्पोरेट्स दो मायनों में बहुत ही विचित्र व गंदे हैं। एक तो यह कि वे सब-के-सब सांस्कृतिक रूप से बिलकुल निरक्षर हैं। एक में भी कला, सौंदर्यबोध आदि की समझ नहीं है। दूसरा यह कि सरकार ने जो सीएसआर की परंपरा बनवा दी है, वह भी वे खुद खाने लगे हैं। तो कॉर्पोरेट्स संस्कृति को इन तमाम तरीकों से ख़त्म कर रहे हैं। उन्होंने एक और बड़ा खतरनाक काम यह किया कि गाँव की संस्कृति को नष्ट कर दिया और उसमें सरकारों ने भी साथ दिया।
उन्होंने यह भी कहा कि गाँव की संस्कृति का अंतिम गोपालन बचा था, उसे भी गौ रक्षा के नाम पर ख़त्म कर दिया। दरअसल, भारत को समझने के लिए गाँधी, विनोबा, लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव की दृष्टि चाहिए। इस देश में लगभग सभी बड़े राजनीतिक दल कभी न कभी सत्ता में आ ही चुके लेकिन पूरे राजनीतिक तंत्र में यह आम सहमति कैसे बन गई कि सांस्कृतिक चीजों की चिंता करनी ही नहीं है। उन्होने आगे कहा कि इस देश में जब भी कोई बड़ा परिवर्तन आएगा तो वह राजनीति के जरिए नहीं बल्कि सांस्कृतिक कारणों से आएगा। भारत को यदि बचाना है तो वह सिर्फ सांस्कृतिक कारणों से बचेगा। उसे बचाना हम सबका परम कर्तव्य है।
राम बहादुर राय ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि हमने आज़ादी इसलिये पाई कि एक सांस्कृतिक आंदोलन इस देश में पैदा हुआ जिसने स्वाधीनता की प्रेरणा दी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजनीतिक चेतना की लौ देश की सांस्कृतिक चेतना ने जगाई। अब नई पीढ़ी अपनी संस्कृति को समझे और उसके अनुरूप पटरी से उतरी राजनीति को पटरी पर लाने का प्रयास करें। भारत को अगर आगे बढ़ाना है तो भारत की राजनीति को भारत की संस्कृति द्वारा बताये रास्ते पर चलना होगा। भारत की राजनीति भारत के स्वभाव के विपरीत है इसलिये संस्कृति का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
स्मृति व्याख्यान मे वरिष्ठ राजनेता डॉ. के.सी. त्यागी, अरुण कुमार, प्रो. राजकुमार जैन, प्रो. रामचंद्र प्रधान, प्रो. अरुण कुमार, इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह, वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन, मनोज मिश्रा, अवधेश कुमार, नीलम गुप्ता, रविन्द्र त्रिपाठी, मंजुश्री मिश्रा, संदीप जोशी, प्रेम बरेलवी आदि जैसे तमाम विशिष्ट लोग उपस्थित थे। कार्यक्रम का शुभारंभ दीप प्रज्ज्वलन के पश्चात सांस्कृतिक समूह अवधूता द्वारा प्रस्तुत भजनों से हुआ। कार्यक्रम का संचालन आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट के प्रबंध न्यासी अभय प्रताप ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन ट्रस्ट के वरिष्ठ ट्रस्टी सुरेंद्र कुमार ने किया।