कोरोना : लॉकडाउन ने पहले से कमज़ोर भारतीय स्वास्थ्य सेवा की बखिया उधेड़ दी  


कोरोना मुतअल्लिक जो भी आँकड़े सामने हैं, उन पर मुझे संदेह है। जो अस्पताल नहीं गये, किंवा जाँच बग़ैर घरों में ही ठीक हो गये, या फिर मर गये, उनको कुछ देर के लिये भूल जाएँ। अस्पतालों के स्तर पर भी आँकड़े इस तरह उठाये/दबाये जा रहे कि कोरोना पर नियंत्रण हो ने का भ्रम न टूटे। इस बात का गवाह मैं ख़ुद हूँ।


अजय सोडानी
देश Updated On :

लॉकडाउन में एक काम और हुआ जिसने पहले से कमज़ोर भारतीय स्वास्थ्य सेवा की बखिया बिखेर दी। आपदा प्रबन्धन कानून लागू होते ही तमाम चिकित्सकीय सेवाएं सरकार ने जिलाधीशों के सुपुर्द कर दीं। भाई लोगों के हाथ उस्तरा क्या आया वे आँख मूँद उसे हर दिशा में चलाने में जुट गये। इसी के चलते कलेक्टर इंदौर प्रायवेट क्लिनिक बन्द करवा सका। इसी बीच, सात अप्रेल’20 को केन्द्र द्वारा अस्पतालों में बाह्य रोगी सेवा (ओ.पी.डी.) प्रतिबन्धित कर रोज़मर्रा की बीमारियों का इलाज रोका जा चुका था। साथ ही जिलाधीशों को आदेशित किया गया कि वे अपने जिले के अस्पतालों को रेड, येलो,  ग्रीन के हिसाब से बाँटे। रेड सिर्फ़ कोरोना पॉजिटीव रोगियों के लिये, येलो कोरोना सस्पेक्ट वास्ते एवं  ग्रीन अन्य रोगियों हेतु।

इंदौर में इस आदेश को अचम्भित करने वाले ढंग से लागू किया गया। पहले तो कलेक्टर ने तमाम बड़े हस्पतालों को अधिग्रहित किया, छोटे शिफ़ाख़ाने बंद करवा दिए। फिर किया गया रुग्णालयों का वर्गीकरण। ‘लाल’ के रूप में चिह्नित चिकित्सालयों की तो जैसे शामत आ गयी। इसलिये नहीं कि वे कोरोना इलाज से बचना चाहते थे, बल्कि इसलिये कि उन्हें रातों रात अपने यहाँ पहले से भर्ती रोगियों की छुटटी करने अथवा ग्रीन अस्पताल में भेजने के आदेश मिले थे । ज्ञातव्य है कि ’रेड’ के रूप में कायान्तरित होने वाले प्रमुखतयः प्रायवेट मेडिकल कॉलेज से जुड़े दो हस्पताल थे। जिनकी साझा बिस्तर ज्ञमता दो हज़ार से बढ़ती हुई थी। समस्या थी कि इतने बहुत से मरीज़ों को रातों रात भेजे भी कहाँ और कैसे? न मालूम ऐसा कैसे और क्यूँकर हुआ कि शहर के कारपोरेट अस्पताल पूरे कोरोना काल में या तो ग्रीन रहे किंवा येलो । मेडिकल कॉलेज़ में इलाज का बहुत कम ख़र्च भी जो लोग बमुश्किल वहन कर सकते हैं, वे महँगे ग्रीन चिकित्सालय में कैसे इलाज करवा सकेंगे, यह खयाल किसी को नहीं आया। परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोग चिकित्सा अधबीच में छोड़ घर जाने को मजबूर हुए।

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अस्पताल के वर्गीकरण के साथ एक नियम था, जिसने कोरोना से जूझते रोगी व उसके परिवार को बड़ा त्रास ही नहीं दिया आम आदमी को दब्बू बना देने की सीमा तक भयभीत किया। वो नियम था परिजन को रोगी के पास तो छोड़िये जहाँ वह भर्ती है उस अस्पताल में फटकने तक की मनाही। यहाँ तक कि मृत्यु होने की दशा में मृतक की देह सीधे मसान/क़ब्रिस्तान भेजी जाती। अक़्सर परिजन दूर से ही दिवंगत का मुख देख पाते। इस कायदे ने जनमानस पर गहरा असर डाला। लोग डर गये। हस्पताल जाने से कतराने लगे। भय तब और गहराया जब दिवंगत की मिट्टी ख़राब होने की खबरें आयीं। रुग्णालयों के मुर्दागृहों में पड़े शवों को चूहों द्वारा कुतरे जाने की ख़बरें। जनता को भीतर तक हिला देने वाला एक नियम और भी था, पृथकीकरण (क्वारेन्टाइन) का नियम। मेरे जाने ऐसे अनेक लोग हैं जिनने कोविड के लक्षण होने पर, और बारम्बार चेताने पर, भी जाँच नहीं करवायी। कि उन्हें पृथकनिवास (क्वारेन्टाइन सेन्टर) में दो-तीन सप्ताह के लिये बन्द कर दिया जावेगा।

सवाल उठता है कि जनता में पृथकनिवास के प्रति गहरा विकर्षण था तो क्यों था? जबकि सब जान रहे थे कि सम्भावित संक्रमित के सम्पर्क में आना भारी पड़ सकता है। और यह भी कि संक्रमित व उसके संसर्ग में आये लोगों को आमजन से अलग करना महामारी नियंत्रण में बड़ा महत्व रखता है। बावज़ूद इसके क्यों पृथकनिवास का नाम सुन लोग घिघियाने लगते? क्यों ये सेन्टर उन्हें यातना शिविरों के से जान पड़ते ? इन सवालातों के हल के लिये ज़रूरी है क्वारेन्टाइन सेन्टरों को जरा क़रीब से, थोड़ा ठहर के देखना। वैसे जो बात कहने जा रहा वो इनदिनों तो आमफ़हम है, पर ऐसी वह हरदम रहने की नहीं। यूँ कि यादों का व्यापार बेढब जो ठहरा। खासकर सामूहिक यादों या कि जनस्मृति का। जहाँ ठहरते हैं बार-बार कहे-सुने दिलख़ुश क़िस्से। दुर्काल, दुर्भिक्ष, दुर्दैव की मायूस करती कहानियाँ,  ज़रूरी कहानियाँ, बिसरा दी जाती हैं सायास। लिहाज़ा, आने वाले वक़्तों के हक़ में आज के क्वारेन्टाइन सेन्टरों का हाल दर्ज़ करने की इजाज़त मुझे दी जावे।

कहा जा चुका है कि आरम्भिक दिनों में जिम्मादार लोगों ने कोरोना को हल्के में लिया। इससे निपटने की छिटपुट पूर्व तैयारियाँ तो हुईं पर वे पुख़्ता न थीं। तदन्तर, कोरोना जब गाज़ बन टूटा तब क्वारेन्टाइन सेन्टर बनाने की सूझ पड़ी। पाठशाला, धर्मशाला, पंचायत भवन आदि को अधिग्रहित कर,  वहाँ पृथकनिवास की पाटियाँ लटका दी गयीं। अपने देखे  और भुक्तभोगियों के हवाले कह सकता हूँ  कि इंदौर ही नहीं अन्यान्य शहरों के पृथकनिवास बदइंतजामी के नमूने बन सामने आये। नर्स-डॉक्टर का ज़िक्र क्या करना जबकि बाज़ जगहों पर संडास,  ओढ़ने-बिछाने-खाने के इंतज़ामात भी तलाशे   नहीं मिलते थे।

इसबीच कोरोना रोगियों के संसर्ग में आये लोगों की संख्या इस तेज़ी से बढ़ने लगी कि ये तिलक-काढ़ू तैयारियाँ चरमरा उठीं। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत हर ओर चरितार्थ होती दिखने लगी। दैहिक दूरी के मापदण्ड ताक पर धर छोटे-छोटे कमरों में पाँच-सात लोग रखे  गये। कई केन्द्रों पर तो दीगर घर-महल्लों से उठाए औरत-मर्दों को एक ही खोली में ठूँसा गया। एक ही संडास उपयोग करने को बाध्य किया गया। जब कमरे खाली न रहे तो लोगों को सामूहिक भवनों की छतों पर ठेला गया। जहाँ नहानघर-संडास तो होने से रहे। कोरोना के सताये कम-क़िस्मत लोग उसी चाँदनी पर हगते-मूतते और गंदगी के बीच दरी पर पड़े रात भर चाँद टुकुरते। हासिल यह कि भले-चंगे लोगों में से कई क्वारेन्टाइन सेन्टर में आने बाद या तो मानसिक संतुलन गँवा बैठे या फिर कोरोना संक्रमित हो गये। कईयों को तो वहीं इस रोग के लक्षण उभरे और वे समुचित निगरानी के अभाव में वहीं मारे भी गये।

मानसिक संतुलन गँवाने से जुड़ा एक क़िस्सा याद आ रहा है। मेरा अपना देखा, जाना क़िस्सा- उमा बाई की दास्तां। एक हम्माल की बीवी, तीस वर्षीय, उमा बाई हमारे हस्पताल में नर्सिंग अस्सिटेन्ट है। देशबन्दी के साथ ऐलान हुआ कि आवश्यक सेवाएं जारी रहेंगी, बशर्ते कि एक समय में वहाँ पचास फ़िसद लोग ही उपस्थित रहें। इस नियम का सहारा ले मालिकों ने अपने कर्मचारियों की छटनी आरम्भ की। उन्हें रातों-रात घर बैठा दिया।

गाज़ उमा पर भी गिरी। मंडी बन्द होने से हम्माल आगे ही रोज़गार गँवा चुके थे। उमा के खटे से जो दो निवालों का जुगाड़ था, वो भी ख़त्म हो गया। इस बीच पति को बुख़ार आने लगा। ख़बर फैली तो सरकारी महकमे ने उसे घर से उठा पृथकवास में पटक दिया। तीन सप्ताह बाद जब घर लौटा तो वह बदला-बदला था। भयभीत, अवसादग्रस्त। रात दिन आकाश टुकुरता बैठा रहता। दो टाबर, एक बावरा पति और आलमे-फ़ाक़ाकशी-उमा टूट गयी। कुछ न सूझा तो परिवार सहित ज़हर खाने की ठान ली। शुक्र है कि तभी देशबन्दी के बीच, तमाम ज़रूरी चीजों से पहले, कलालियाँ खोल दी गयीं। उमा ने अवसर ताड़ा। गाँव की कलाली के क़रीब बैठ उबले अण्डे व पानी-पाऊच बेचने लगी।

बनी बात है कि इस तरह की ख़बरों- किस्सों को सुन लोग पृथकनिवासों से डरते। और भयज़दा लोग घरों में ही रह इलाज लेने की जुगत जमाते। यही हुआ भी। अनगिनत लोगों ने, कोरोना जाँच करवाये बिना, घर पर ही वह इलाज लिया जो आये दिन ख़बरों में बताया जाता। पेरासिटामाल, विटामिन-सी तथा ज़िन्क। जब बात बिगड़ती तो ऑक्सीजन तथा रेमडेसिविर भी घर पर ही लिया जाता। प्रायवेट क्लिनिक बन्द होने से निठल्ले बैठे गली-महल्ले के डॉक्टर-कम्पाउन्डरों के दिन फिर गये। रेमडेसिविर के भाव आसमाँ छूने लगे। और न मालूम कितने बिना किसी सरकारी रजिस्टर में दर्ज़ हुए दुनिया से कूच भी कर गये।

पृथकनिवास के ख़ौफ को फ़क़त इंदौर तक या कम तालीमयाफ़्ता लोगों तक महदूद जानना भूल होगी। इसकी बानगी मुझे औरभी शहर/ राज्यों में देखने मिली। मिसाल के लिये देहरादून के राजीव रावत उर्फ़ सोनी का हाल हाज़िर है। पर्वतारोही सोनी को सपरिवार ऐसे लक्षण हुए जो कोरोना के ही थे। फ़ोन पर मुझसे इलाज पूछने लगा। मैंने टेस्ट करवाने को कहा, वो नकर गया। साँस की तकलीफ़ के मद्देनज़र अस्पताल जाने को कहा, वो नहीं माना। कहने लगा- ’’टेस्ट पॉजिटीव आया तो जानवरों जैसे कहीं बन्द कर देंगे।अस्पताल नहीं जाना हमें। सर, यहाँ किसी को इस बीमारी की कुछ ख़बर नहीं। हर दिन नयी बात करते हैं। मुझे लगता है कोरोना-सोरोना नाम की कोई चीज़ है ही नहीं। यह तो चायना का फैलाया डर है…. सर मैं तो घर ही पर रहूँगा… फिर जो हो सो हो…’’

सोनी का कहा प्रमाण है कि बिना सोचे-समझे दिए बयानों, अधपके शोधों के प्रसार का बेजा असर होता है। गो कि इसीके चलते लोग जागरूक होने के बनिस्बद विज्ञान व सरकारी व्यवस्थाओं से बिदकने लगे। बेतरतीब व ताबड़तोड़ प्रचार से भय कमने की जगह बढ़ता चला गया।

इन भयभीत लोगों को ग्रीन/येलो-अस्पताल  मालिकों ने मेमनों की तरह बरता। विशेष कर मुसलमानों को। उनसे कहा गया कि रेड अस्पताल में मरोगे तो फूँक दिए जावोगे। जन्नत से महरूम होने का ख़तरा कौन उठाना चाहेगा भला! कहते हैं कि चुनिन्दा प्रायवेट-ग्रीन/ येलो हस्पतालों ने ऐसे लोगों का बिना कोरोना जाँच करवाये इलाज किया। जानने वाले डॉक्टरों के मार्फ़त मुझे ख़बर है कि इस ’सेवा’ के एवज में हस्पताल वालों ने लोगों से पाँच से पन्द्रह लाख रुपये तक वसूले। वो भी पेशगी। जो इतना ख़र्च वहन न कर सके उन्होंने घर के बीमार को ड्योढ़ी के भीतर ही रखा, वहीं मरते देखा। यह ख़बर आम है कि सामान्य दिनों से कहीं ज़्यादह कफ़न-दफ़न इस काल में हुए। मौंते जो कोरोना- आँकड़ों न शुमार हुईं न आगे कभी होंगी ।

कोरोना मुतअल्लिक जो भी आँकड़े सामने हैं, उन पर मुझे संदेह है। जो अस्पताल नहीं गये, किंवा जाँच बग़ैर घरों में ही ठीक हो गये, या फिर मर गये, उनको कुछ देर के लिये भूल जाएँ। अस्पतालों के स्तर पर भी आँकड़े इस तरह उठाये/दबाये जा रहे कि कोरोना पर नियंत्रण हो ने का भ्रम न टूटे। इस बात का गवाह मैं ख़ुद हूँ। इसी दर्जे़ की ख़बरें देश भर से मेरे चिकित्सक मित्रों, पूर्व विद्यार्थियों से भी मिल रही है।

इत्तफ़ाकन मेरा एक विद्यार्थी उत्तरप्रदेश में कार्यरत है। उसने बताया कि वहाँ पर जिला अधिकारी पर कम से कम टेस्ट करवाने का दाब है। मृत्यु-प्रमाण पत्र में मौत का कारण कोरोना नहीं लिखने का ’ऊपर’ से आया मौखिक आदेश डॉक्टरों को बहुत पहले ही मिल चुका। नतीज़ा यह कि उसके शहर के मसान में उनदिनों रात दिन चिताएं जलती मिलतीं। तीन लाख की आबादी वाले शहर के लिए यह   दृश्य अभूतपूर्व था। पर वो चुप रहा। अब भी छुप के ही रहना माँगता है। बापड़ा यूपी-दरीया में है। लाज़िमी है उस पर मगरमच्छ से डरना। जो हो, इस बात को तूल देना ठीक नहीं। सुनी सुनायी बातों पर क्यों दम भरना? तो कहता हूँ वो जो आप देखी हो।

कुछ माह पूर्व हमारे निष्चेतना विभाग का एक रेसिडेन्ट डॉक्टर बीमार पड़ा। उसे सौ टन्च कोरोना के लक्षण थे। चेस्ट सी.टी. स्कैन का इशारा इसी दिशा में था। अलबत्ता उसका कोरोना टेस्ट नेगेटीव आया। कोरोना की तर्ज़ पर उसका इलाज शुरू हुआ। रेमडेसिविर दी गयी। प्लाज्मा थेरेपी तक देने की योजना बनी। दुर्भाग्य से कुछ पुख़्ता कर सकने के पूर्व ही उसकी हालत बिगड़ी और बिगड़ती चली गयी। यहाँ तक कि हमने उसे खो  दिया। क्या उसने कोरोना शहीद का दर्ज़ा पाया? नहीं। क्योंकि लक्षण के आरम्भिक दिनों में हुआ उसका आर.टी.पीसीआर टेस्ट वह नेगेटीव था! 

बता दूँ कि हमारे अस्पताल, अरबिंदो अस्पताल, का शुमार प्रदेश के प्रमुख कोरोना अस्पतालों में है। उस वक़्त इसके सौ प्रतिशत बिस्तरे, यानी तक़रीबन 1200, इन्ही रोगियों के लिये सुरक्षित थे । एक लम्बा दौर गुज़रा जब इनमें से 60-70 टका, बाज़दफ़ा तो सभी के सभी, बिस्तर भर जाते। मार्च ’20 से लेकर 30-12-20  तक हम आठ हज़ार आठ सौ  तिहत्तर मरीज़ों की तिमारदारी कर चुके। इनमें से तीन सौ सैंतीस मरीज़ ज़िन्दगी की जंग हारे। लेकिन इस मृत्यु-आँकड़े में लोचा है। ये वो संख्याएं हैं जो सरकार हमसे जानना चाहती है। उसका सारोकार सिर्फ़ कोरोना-पॉजिटीव तक महदूद है। वो उन मरीज़ों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहती, जिनका टेस्ट पॉजिटीव न हो । फिर भले ही उनमें इस रोग के सभी लक्षण हों। ख़ून व फेफड़े की खराबियां कोरोना के सिम्त इशारा करती हों और चाहे उनका इलाज भी तदनुसार ही हुआ हो।

जानते तो सब हैं फिर भी दोहरा दूँ कि तक़रीबन तीस प्रतिशत रोगियों में पहला आर.टी.पीसीआर टेस्ट नेगेटीव आना आम है। दूसरा टेस्ट एक सप्ताह बाद भेजा जाता है। यदि उस पर भी बात न बने, और लक्षण कोरोना के ही हों तो तीसरे हफ़्ते जाँच फिर की जाती है। यदि इस बीच मरीज़ ठीक हो कर घर चला जावे या मर जावे तो वह  ’कोरोना’ मरीज़ की फ़ेहरिस्त से बाहर ही रहेगा। इसी तर्ज़ पर कोई पॉजिटीव केस दूसरे/तीसरे हफ़्ते निगेटिव होने के बाद यदि इस रोग के दुष्प्रभाव से भी मरे, तो भी उसकी मृत्यु कोरोना-मृत्यु के खाते में नहीं चढ़ती। इसका ख़मियाजा पीछे छूट रहे परिजनों को भुगतना पड़ा है। क्योंकि उनको न कोरोना इलाज हेतु दी जाने वाली सरकारी सहायता मिल सकी ना ही कोरोना-बीमा की मुआवज़ा राशि ही।

यह तो रही उनकी बात जिनको कोरोना रोग हुआ और मुफ़्त इलाज के तमाम हल्ले-गुल्ले के बावज़ूद न्याय-वंचित रहे। ग़ौरतलब है कि कोरोना से दीगर मर्ज़ से परेशान आदमी को बेइन्तहां कष्ट झेलना पड़ा। ग्रीन हस्पतालों में इलाज लेना हर किसी के बस का कहाँ? यह बात इंदौर पर पूरी तरह लागू जानिए। सुविधा के अभाव में एम.वाय. अस्पताल कोई चाह कर भी नहीं जा पाता। इस करके पन्द्रह सौ बिस्तर वाला यह सरकारी ग्रीन अस्पताल अमूमन पूरे लॉकडाउन में खाली सा ही रहा।

हार्ट अटैक, डायलिसिस, कैन्सर आदि के रोगियों ने जो यंत्रणा भोगी उसका बयान असम्भव जानिए। इनमें न्यूरोलॉजी के उन मरीजों को भी जोड़ा जावे, जिनको ताउम्र देखरेख-दवा की दरकार होती है। अस्पताल की ओपीडी बन्द, प्रायवेट डॉक्टर घर क़ैद। तमाम नॉन-कोविड रोगी 24 मार्च को यकायक अनाथ हो गये। मेडिकली-ऑर्फेन्ड! बेचारे तार पर झूलते कपड़ों के से पीछवाड़े छूट गये। सुकून है कि प्रशासनिक दबावों /धमकियों के बीच अरबिंदो हस्पताल का न्यूरोलॉजी विभाग हम बदस्तूर चालू रख पाए। जिसके चलते कई अनूठे अनुभवों से दो-चार हो पाया।

एक अनुभव। देशबन्दी के चलते छुट्टी पर गये और दूसरे जिलों/ कस्बों में रहने वाले स्वास्थ्यकर्मी घर कै़द हो  गये। इस पर सात दिन काम के बाद हफ़्ते भर के अनिवार्य क्वारेन्टाईन का सरकारी आदेश। नतीज़न अन्य की तरह हमारा हस्पताल भी काम करने वालों की कमी से जूझ रहा था। इस सबके बाद भी हमारा वार्ड, न्युरॉलाजी वार्ड, कुछ दिनों तक ठीक ठाक चलता रहा। फिर यकायक ही नर्स, वार्ड बॉय, सफ़ाईकर्मी हमारे वार्ड में काम करने से कतराने लगे। इनमें तीन-चार बरस से इसी विभाग में पदस्थ लोग भी शामिल थे। मालूम हुआ कि लोग कोविडवार्ड में ही कार्य करना चाह रहे। अचरज हुआ। तपास की। ख़बर मिली कि कोविड-वार्ड में काम करने वालों को हस्पताल वालों ने अतिरिक्त भुगतान देना आरम्भ किया है। तीन सौ से एक हज़ार रुपये प्रति आठ घण्टे का अतिरिक्त भुगतान। जो ’कोविडवार्ड’ का तमगा हासिल न होने से, हमारे यहाँ सम्भव न था। बहरहाल, मेरे संज्ञान में ऐसे कई साथी हैं जिनने प्रतिदिन दो पारियों में काम किया। यानी सोलह घण्टे रोज़! बिन साप्ताहिक अवकाश लिए। कई तो सात दिन काम उपरान्त क्वारेंटाईन में भी जाने से भी मुकर गये। नतीज़न कई पेरामेडिकल साथी कोरोना के चपेट में भी आये। कुछ हताहत भी हुए। और कुछ ठीक होने के बाद फिर से डबल ड्युटी में जुट गये!

इसके पीछे कारण क्या रहा होगा? लालच? महामारी-काल में मरते दम तक सेवा करने का भाव? ज़वाब मुझ से ले लें। लालच – क़तई नहीं। सेवाभाव- शायद कि हो। मूल कारण था- मजबूरी। मरता क्या न करता वाली बात। किसी का पति नौकरी से हाथ धो बैठा था, किसी का कमाऊ पूत घर बिठला दिया गया था। घर चले तो कैसे, ख़र्च पटे तो कैसे? इस घटाटोप में सुनहली किरण बन चमका हमारे हस्पताल द्वारा कोरोना चपेट में आये कर्मचारियों का इलाज मुफ़्त करना।

एक अनुभव और। मरीज़ों का फ़ोन पर समय तय कर लेने के बाद भी न आना। ऐसा पहले शायद गाहे-ब-गाहे ही कभी हुआ हो। लगा कि आवाजाही के साधन न होने का परिणाम है यह। लेकिन जब घर से निकले गंभीर रोगी भी हम तक नहीं पहुँचने लगे, तो माथा ठनका। तपास करने पर जो नज़ारा नमूदार हुआ उसने दिल दहला दिया। दरअस्ल रेड-अस्पताल होने से पुलिस ने हमारे हस्पताल के ग़िर्द नाकाबन्दी कर रख्खी थी। बिना कोविड लक्षण/ रिपोर्ट वालों को वे भीतर ही नहीं घुसने देते। यहाँ तक कि एम्बुलेन्स से आये बेहोश मरीज़ों का भी प्रवेश निषेध था। सामान्य, मानी नॉन-कोविड, रोगियों की दशा देख आत्मा लरज़ उठी। पुराने मरीज़ों के हाल दरियाफ़्त करना ज़रूरी जान पड़ा।

फ़ोन-सम्पर्क शुरू किया गया। जानकारियाँ जुटायीं। इल्म हुआ कि साठ प्रतिशत लोगों का चिकित्सा जगत् से भरोसा ही उठ चुका। आधे से अधिक लोग या तो दवा बन्द कर चुके थे या आधा अधूरा नुस्खा ले रहे थे। अकारण नहीं मजबूरीवश। मजबूरी दवा खरीदने न जा पाने की। मजबूरी पैसों की तंगी के चलते दवा न ख़रीद सकने की भी। मजबूरी जिस वज़ह से कुछ ने प्राण खोये तो कइयों के रोग अनियंत्रित हो  चुके थे। यथा मिर्गी रोगी, जो औषधियों में कोताही के बायस फिट्स झेल रहे थे। हस्पताल का रेड-येलो-ग्रीन में वर्गीकरण आवाम की छाती पर दूसरी तरह से भी मूँग दलता रहा। दहलाने वाले क़िस्से तो बहुत से हैं मेरे कने। फ़िलहाल तो ये वाला सुन लें।

देशबन्दी हुए दस-बारह रोज़ गुज़रे होंगे। तब हमारे संग एक बूढ़ी माँ भरती हुई। उस पर कोविड के साथ फ़ालिज का भी असर था। दरअस्ल वो और उसका डोकरा लॉकडाउन से दो-चार दिन पहले ही इंदौर आये थे। रिश्तेदारी में। देशबन्दी होने से यहीं फँस गये। इकलौती बेटी मुरैना में, वे दोनों यहाँ, जहाँ दोनों की तबीयत बिगड़ी। बुढ़िया का कोविड टेस्ट पाजिटिव आया तो सरकारी गाड़ी उसे हमारे यहाँ ले आयी।

कोविड-नेगेटीव रिपोर्ट के चलते उसके डोकरे को किसी येलो अस्पताल में जमा करवाया गया। अब दोनों एक दूजे से दूर। एक दूजे से बेख़बर। उधर सड़क मुकम्मल बंद होने से लड़की पाँच सौ किलो मीटर दूर तड़पे। वैसे यातायात सुगम होने पर भी वो कौन कोविड-हस्पताल में घुस पाती, माँ-बाप को देख लेती। कोविड-शिफ़ाखाने क़ैदख़ाने जो होते थे तब। रिश्तेदारों की ज़द से बाहर। जेल में भी मिलने का दिन-समय होता है। यहाँ कुछ भी नहीं। ठीक हो कर बाहर आये तो नातेदारों के अगाड़ी नेता द्वार पर खड़े मिलेंगे। पहले उनके साथ फ़ोटू खेंचवाओ। फिर रिश्तेदार के आगोश में जाओ ।

कुछ प्रदेशों में तो चलन्तु-फ़ोन भी चतुर सरकारों ने कोरोना वार्ड के भीतर नहीं घुसने दिए। कि दोज़ख़ में पड़े प्रियजन को देख नातेदार भड़क न उठें। कहना होगा हमारे इधर हालात इतने बुरे नहीं थे। फ़ोन किया सुना जा सकता था। पर हमारे बूढ़ा-बूढ़ी फ़ोन करें किस तरह, सुने किस विध। डोकरी को फ़ालिज, डोकरा वेन्टिलेटर पर। दुर्भाग्य देखिये कि इस बीच बेचारा डोकरा चल बसा। फूँक दिया गया लावारिसों की तरह। न मरणोपरान्त कोई नातेदार उसका मुख देख सका, ना ही उसने देखा अपने वालों को मृत्युपूर्व। बहरहाल, इधर बोलने-चलने-फिरने से लाचार बुढ़िया, सबसे बेख़बर। कुछ समय में उसकी तबीयत सम्भली। बोल फूटे। तब मालूम पड़ा कि वो अपने आदमी को क़रीब के मर्दाना वार्ड में भरती जानती रही इतने दिनों। अब वो रोज़ दरियाफ़्त करे हमसे अपने डोकरे का हाल। रोज़ चाहे वो हस्पताल का गाऊन नहीं साड़ी लपेटना। डाल कर कंगन-बिन्दिया-बिछिया, रोज़ मचले कुरसी पर बैठ मरदाना वार्ड जाने को। रोज़ हम एक नयी कहानी गढ़ें। नया झूठ बोल बुढ़ी माँ का दिल बहलाएं। यह सिलसिला जारी रहा पूरे पैंतालिस दिन। रास्ते खुलने तक। उसकी बेटी के आने तक।

कोरोना दुर्काल ने जिग़र इस दर्ज़ा घायल किया है कि बची ज़िन्दगी वो दुरुस्त होता नज़र नहीं आता। अनगिनत दिलगुदाज़ क़िस्से खरोचा करेंगे उसे भीतर ही भीतर। रात-दिन। दास्तानें ऐसी-ऐसी कि मैं कह सकूँ न आप सुन ही पाएं। बहुत दमदार जिग़र दरकार सुनने-सुनाने वाले में।

कैसे महसूसाऊँ आपको मैं एम.ए. पास सुनील का दर्द जिसने चपरासी की नौकरी नामन्जूर कर सब्जी का ठेला कुबूल किया। लॉकडाउन में जब एक दिन बाहर निकला तो हो गया बेचारे का ठेला ज़ब्त। सामने स्कूल की फीस, दस तरह की किस्तें ऊपर से पेट की अगन। क़िस्मत का मारा निकलता नहीं तो भी तो धरा जाता। साहूकार द्वारा। भारी पड़ा उसे बाहर निकलना। घूँस में दिए दस हज़ार चुकाने का अतिरिक्त बोझ जो आन पड़ा उस पर।

और पूना की उस महरी, लक्ष्मी, की दास्तां मेरी कलम लिक्खे तो लिक्खे किस तो तरक़ीब से? नाम और माली हाल में यह कैसा विरोधाभास। लक्ष्मी, जिसने लॉकडाउन ख़त्म न होते देख घर का सामान बेचा। पच्चीस हज़ार खड़े किये। निकल पड़ी, अपने ड्रायवर पति व दो छोटे बच्चों के संग, गाँव को।  आस यह कि वहीं कुछ मेहनत मजूरी करेंगे, पेट भरेंगे। बच्चे पालेंगे। पर तब छोड़ा गाँव अब वैसा का वैसा कहाँ बचा था। उधर आगे ही त्राही-त्राही थी।

किसानों की सब्जियाँ सड़कों पर सड़तीं थीं। ऊपर से सरकारी डेरी वालों का ऐलान हफ़्ते में चार ही दिन दूध लेने का। दाम भी पहले से दो रुपये कम। मनरेगा भी ठप। ऐसे में काम मिलता तो कैसे और कहाँ? मजबूरन फिर रूख़ किया पूना की सिम्त। खीसे का सारा माल तो गाड़ी कर गाँव आने में ही खप गया। मरता क्या न करता। फिर पैसा उठाया। साहूकार से। पूरे साठ हज़ार रुपये। दर? दस रुपये प्रति सैकड़ा, प्रति माह। पूछा जा सकता है कि इतने बहुत सारे पैसे लेना ही क्यों ? कारण है जनाब, और बड़ा पुख़्ता कारण है लक्ष्मी के पास। खोली का अग्रिम किराया। टाबरों की फीस, उनके लिये स्मार्ट फ़ोन। स्मार्ट फ़ोन बिन बच्चे पढ़ नहीं सकते। जो  फ़ोन नहीं तो फीस गयी बेसबब! गरीबन का आटा और गीला हो  गया कि अब लोग उसे घरों में घुसने नहीं दे रहे। काम के अभाव में ड्रायवर पति भी घर बैठने को मज़बूर। लक्ष्मी पूना लौट तो आयी पर परेशान है। कर्ज़ को ले कर। उसे लगता है ज़िन्दगी खुट जावेगी उसकी कर्ज़ उतरते-उतराते।

नहीं साब अब और नहीं। यह क़िस्सागोई तमाम मनहूस यादें ताज़ा किये दे रही है। सो  इस सिलसिले  को विराम दे निकलता हूँ दूसरी ओर। मार्च से शुरू हो  उतरते वर्ष दो हज़ार बीस की रातों की तरफ़। जब पलक मूँदना मुहाल था। तकिये से सर टेकते ही उठने लगता तूफ़ान सा ज़हन में। सोच का तूफ़ान बाध्य कर देता आँख मलते हुए उठ बैठने को। सोचने को । हर रात एक मसला। हर शब कोई दीग़र मुद्दा-

खाई…..बहुधा चौंक उठता नींदों से, देख अपने को गिरता एक फाड़ में। फाड़ जो साफ़ तौर पर नज़र आयी कोरोना-काल में। उच्च व निम्नवर्गीय लोगों के बीच की फाड़। दिन दिन खाई में तब्दील होती फाड़। खाई जिसके दोनों ओर चिन्ता व्यापी थी। इस ओर दरकता जीवन साधने की, उस ओर लम्बा दिवस काटने की। जुगत दोनों तरफ़ बैठायी जाती। इस तरफ़ रोटी कमाने की, उस तरफ़ ख़बरों को भुनाने की। दूसरे शब्दों में, दो ध्रुवों में बँटे संसार का भास अपने चरम पर था। कि जिस पल फाड़ के इधर वाले रिरियाते थे ठीक उसी पल उधर वाले होते अपने में मस्त। कोई यूँ ख़ुश कि कोरोना के चलते उन्हें भागम्भाग की ज़िन्दगी से थोड़ा अवकाश मिला। अवसर मिला परिवार के साथ रहने, नित नये पकवान बनाने-खाने का। मनचाहा पढ़ने व छूट रही फिल्में देखने का। इन लोगों के क़रीब महामारी में मरते लोग आँकड़ा भर थे। आँकड़े जिनकी बिना पर ये वणिक-मना लोग विभिन्न देशों की कोरोना बैलेंसशीटें का मिलान करते। अपने इधर की देशबन्दी को सही ठहराते। गोदी मिडिया व वाट्सएप ख़बरों से मुतमईन ये लोग सड़क पर चल रहे कामगारों को गुड़-लोलुप मकौड़ा बतलाते। जमातियों को कोरोना-वाहक जतलाते। और सरकारी आपदा-राशन पाने वास्ते भटकते मुफ़लिसों  को न सिर्फ़ मुफ़्तखोर, जमाख़ोर निरुपित करते वरन् उनके हाथों में राम-नामी पताकाएं भी पकड़ाते। भयभीत हूँ निरन्तर गहराती इस फाड़ को देख। सोचता हूँ, ग़र इसकी ज़द में कभी देश का नक़्शा ही आ गया तो क्या होगा?

होड़…जब सपनों में यह घुस आती तो रात आँखों में कटती। होड़ टीके बनाने की। दिखता मेरा सीना मैदान सा। वैज्ञानिक मेराडोना, विज्ञान गेंद सम। खिलाड़ियों की मार झेलती, हवा में उछलती, ’हैंड ऑफ गॉड’ सहती गेंद। होड़….। नियम क़ायदे ताक पर। होड़ाहोड़ी में सब शुमार-दर्शक,  रेफरी,  खिलाड़ी… और…बापड़ी गेंद भी…..क्यों ? विज्ञान से वैज्ञानिकों द्वारा विश्वासघात…क्यों?  रेफरी की आँखों पर पट्टी… कैसे?

ज्ञान-विज्ञान ही तो मनुष्य की लाख बरस की मेहनत-मजूरी का हासिल है। और वैज्ञानिकों से ख़ूबतर  साथी कौन है मनुज का?  साथी का राजनीतिज्ञों, धनपतियों संग गुज़ारे भर का वास्ता होना तो स्वीकारा जा सकता है। उनका हमबिस्तर होना नहीं। इसका ख़मियाज़ा आदम भुगत चुका- हिरोशिमा,  चेर्नोबिल के रूप में। आज के दौर में वैज्ञानिक फिर गिद्धों के पंजों में फँसा जान पड़ रहा है। जो समय रहते यह सिलसिला नहीं थमा तो आते समयों में कहीं मानव का भरोसा ही न डगमगा जावे विज्ञान पर से…… बहुत लरजता है मन …रातों में…

घर-क़ैद….अस्पताल…..। पूछता हूँ ख़ुद से बहुधा कि क्या यह आपदा हस्पतालों के वर्गीकरण बिन नहीं निपट सकती थी? अब तो सब खुल चुका। रेड-ग्रीन का झमेला भी अब ख़त्म। जबकि कोरोना  बदस्तूर तारी है। और मरीज़ भी आगे से कहीं अधिक। उन दिनों का सा हाहाकार फिर क्यों नहीं सुन पड़ता? कैसे चल रहा है सब कुछ बिना किसी अड़चन के? लोग कहते हैं कि यह सब विश्व स्वास्थ्य संगठन के मशवरे पर हुआ। कौन जाने ऐसा मशवरा उसने बर्ड फ्लू में क्यों नहीं दिया? क्या उसको भी कोविड इतर मरीज़ों की नहीं पड़ी थी? भरोसा नहीं होता। यही बात देशबन्दी पर भी खरी बैठती सी जान पड़ती है। फिर सोचता हूँ कि फ़िलहाल इस देशबन्दी के मुद्दे पर आख़िरी बात कहना न ठीक, न मुमकिन ही। अभी तो कोरोना दौर जारी है। बवन्डर थमे तो दिखे  असर। गो कि इस दौर का फ़ैसला करेँगी आने वाली नस्लें। पर कैसे? किस विध पहुँचेंगे वो सत्य तक? कैसे हासिल हो  सकेगी उनको पूरी ख़बर? जबकि आँकड़ों में बेक़दर झोल-झाल हो, ख़बरों-अख़बारों पर सरकारों का अख़्तियार हो। और ज़ुबान-ऐ-अवाम तब्दील हो रही दुम में…. रफ़्ता रफ़्ता।

लेटलतीफ़ी….इसका भी ख़याल आता है जे़हन में अक़्सर। कि सरकार समय पर चेती क्यों नहीं? क्यों  सोचती रही वह कि कोरोना से भारत महफूज़ है। जबकि सब जानते और मानते हैं कि गैलीलियो बाबू की गोल धरती फिर हो गई है चपटी। कि जगहों के दरमियान अब कोई फाँक ही नहीं। इंसान एवं तकनीक की गैंग ने कुदरत के खीसे के सारे रिक्त स्थान जो लूट लिये। चुनाँचे एक ही डोर बाँधे  है आज बशर को। एक गिरा, सब गिरेंगे। मुझ सा मूढ़मति जब यह गूढ़ मंत्र समझ गया तो कैसे भूलावे में रहे ज़हीनतरीन कि महामारी फ़क़त एक देश तक ही महदूद रहेगी?

जो ऐसा नहीं तो कोई समझावे मुझे कि सरकार समय रहते चेती क्यों नहीं? जबकि उसके पास दुनिया भर से ख़बरें थीं, तब भी समय रहते ज़रूरी तैयारियाँ करने से वह चूक क्यों गयी? क्या कारण रहे होंगे विलम्ब के?  मूढ़ता? नहीं। आलस्य? नहीं। तब? शायद…बल्कि… पक्के से आत्ममुग्धता। अतिआत्मविश्वास। सोचता हूँ हुक़्मरान ग़र सही वक़्त ख़ामख़याली के अन्ध-कूप से बाहर आ पाते तो क्या होता? तो शायद चिकित्सा-पुलिस-सफ़ाई कर्मियों को बिना समुचित सुरक्षा साधनों के कोराना-सेवा में न जुतना होता।  और रियाया वो न भुगतती जो उसे फड़बाजों-सरीखे पल-पल बदलते निर्णयों के चलते भुगतना पड़ा। गोया सरकार भी बच जाती कोरोना फैलाव की जिम्मावारी पहले मुस्लिम फिर मज़दूर अंततः आमजन के मत्थे मढ़ने से।

नींदों में ख़लल डालती है एक दूसरी सोच भी। बहुत पीछे तक जाती सोच। तीस बरस या उससे भी उधर तक। याद आता है कि तब इंदौर जैसे मामूली शहर के सरकारी हस्पताल,  एम.वाय. अस्पताल,  में हृदय-शल्य चिकित्सा रोज़मर्रा की बात थी। यहाँ के विद्यार्थी तब ब्रेन-एन्जियोग्राफी जैसी जाँच भी अपने तईं करने में सक्षम थे। फिर ना मालूम किसकी नज़र लगी। इंदौर ही नहीं देश भर में सरकारी स्वास्थ्य-सेवा के खम्बे खोखले होने लगे। रफ़्ता-रफ़्ता नज़ारा बदलता गया। सोचता हूँ,  यदि विगत् काल में स्वास्थ्य सेवा का धड़नतख्ता निजीकरण नहीं हुआ होता तो कैसा रहता आज का परिदृश्य? पूर्व सरकारें स्वास्थ्यतंत्र को छिजाने की बनिस्बद उन्हें टटका बनाते चलतीं तो कैसा रहता? शायद स्वास्थ्य सेवा कर्मियों की कमी और सरकारी हस्पतालों की दयनीय हालत से नहीं जूझना होता।  21 मार्च ’20 को ताबड़तोड़ भर्तियाँ करने का आदेश देने की दरकार नहीं पड़ती तब। नहीं पड़ती ज़रूरत कोरोना केयर एकमुश्त निजी हाथों में देने की। नहीं फँसता आवाम कॉरपोरेट मगरमच्छों के जबड़ों में। 

माना कि व्यापार सरकार का काम नहीं। घड़ी-कार, तेल-साबुन, टेलिफ़ोन-कपड़े बनाने-बेचने जैसे धंधे उसे छोड़ना चाहिये। पर छोड़ने की एक सीमा भी है। हर चीज़ नहीं छोड़ी जा सकती, जैसे कि शिक्षा व सेहत सेवाएं। आदमी की मूलभूत ज़रूरतें हैं ये। बेचे जाने वाला सामान नहीं। निरन्तर बदतर होती राजकीय शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं महती कारण है शहर की ओर पलायन का। ग़रीबी का। जो ये बेहतर होतीं तो हमें घर लौटने का दिलख़राश मंज़र शायद नहीं देखने मिलता। क्या ही अच्छा हो हम जान लें कि कुछ चीज़ों का मुनाफ़ाख़ोरों हाथों में रहना ठीक नहीं।

आपदा में अवसर…..सोचता यह भी हूँ कि हुक़्मरान आपदा में अपनी छुपी मंशाओं को निकालने का अवसर न तलाशते तो कितना गर्व होता मुझे उन पर। पक्ष विपक्ष एकजुटता दिखाते, कुछ घरानों को पुष्ट करने के फेर में आदमी का गला न घोंटा जाता, सरकारें गिराने-बनाने-चुनवाने में जाया हुआ वक़्त व धन बेहतर कामों में खपाया जाता तो तब कामू की ’दी प्लेग’, ऑरवेल की ’1984’ चरितार्थ होते देखने का दंश झेलने से बच जाता आवाम।

सनद रहे कि यह पहली आपदा है न अन्तिम। समय-गर्भ में न मालूम ऐसे कितने ज़लज़ले करवट ले रहे हों ? नमूदार होंगे जो आगे कभी। हुकुमतें तब भी होंगी और उनके सरोकार आज वाली के से ही होना तय जानिए। क्योंकि सत्ता पाने वाला किसी विचारधारा विशेष के अधीन होने से बच नहीं सकता। जनमानस को अपनी सोच के रंग में रंगने की उसकी जो चाहत आज गोचर है वो तब भी दिखेगी। उसका मंत्र तब भी होगा, ‘मैं तुम्हें अक़्ल दूँगा, तुम अपना दिमाग़ दो’। दूसरे शब्दों में,  हुक़्मरान हुकूमत के साथ आवाम की अक़्ल पर भी अख़्तियार माँगता है। मुक़म्मल अख़्तियार। और इसे हासिल करने हेतु वो हैरतअंगेज चालें चलता है। चालें जो बनाती हैं मासूम रियाया को साहिबे मसनद का फ़रमाबरदार। चालें जो याद दिलाती है स्टेनली मिलग्रेम के हैरतनाक़ शॉक-प्रयोगों  की।  चीज़ों को भले-बुरे के खाँचे में डाल देखने की मानवीय आदत का दोहन कर किस तरह सत्तासीन सामान्यजन की सोच पर काबू करता है- इसका खुलासा करते प्रयोग। काबू भी इस क़दर कि अधिकारी की मंशापूर्ति वास्ते फ़रमाबरदार कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हो  जावे।

जो ऐसा न हो ता तो जनता ताली-थाली पीटने से पहले सौ दफा सोचती। मुसलमानों में दुश्मन देखने, उनके संग व्यापार-व्यवहार न रखने के संदेसों पर सवाल उठाती। मज़दूरों का दर्द समझती, उन के हक़ में खड़ी होती। कोरोना-मृतकों की भीत से पीठ टेक राममंदिर भूमि पूजन करने वाली सरकार से सवाल करती। अफ़सोस कि ऐसा कुछ भी नहीं किया आमजन ने। सोचता हूँ, क्या होगा जो गर्दन झुकाये खड़े दौर ने रीढ़ विहीन संताने जनी तो? सोच झुरझुरी भरने लगती है।

एक अंतिम बात। वो यह कि आने वाली नस्ल को गढ़ने का हक़ व दायित्व सीधे तौर पर समाज का है, सरकार का नहीं। पाँच बरस रहने वाली सरकार के हाथ सौ बरस बाद की पीढ़ी को सुपुर्द तो कोई नपुंसक समाज ही कर सकता है। चुनाँचे आदमी तय करे कि उसकी नस्लें कैसी हों ? ऐसा क्या पढ़ें, क्या सीखें ताकि वे बनें चिन्तनशील। मज़हब-क़फ़स से आज़ाद वो सोचें खुले दिमाग़। गो कि विचारवान, संवेदनशील राजनेताओं का जनक विचारशील चैतन्य समाज ही हो  सकता है। ऐसा हो  सकेगा या नहीं, कौन जाने? इस आपदा से सीखने की जद्द-ओ’-जहद आमजन करेगा या नहीं, किसे ख़बर? दुआ है वे सीखे।

समाप्त…..

(पेशे से चिकित्सक अजय सोडानी  इंदौर के श्री अरबिंदो इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज  में न्यूरोलॉजी विभाग में प्रोफेसर हैं।) 



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