पुण्यतिथि विशेष: ‘कलम का सिपाही’ और ‘समाज के पहरुआ’ मुंशी प्रेमचंद

हिन्दी और उर्दू के लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार मुंशी प्रेमचंद को हिंदी साहित्य में ‘कथा सम्राट’ के नाम से  जाना जाता है। मुंशी प्रेमचंद हिन्दी पट्टी में साझा साहित्य-साझी विरासत के अप्रतिम मिसाल हैं। उनका जन्म जगत प्रसिद्ध काशी के निकट लमही गांव में  31 जुलाई 1880  को हुआ था। परिवार अति साधारण था और पिता डाकमुंशी थे। पिता मुंशी अजायब राय ने पुत्र का नाम धनपत राय रखा। लेकिन वे धनपत राय से पहले नवाब राय और फिर मुंशी प्रेमचंद बन गए। सन 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से त्यागपत्र देकर उन्होंने पूर्णकालिक लेखन को अपना जीवन समर्पित कर दिया।

प्रेमचंद बहुत कम उम्र  में ही लेखन में सक्रिय हो गये थे। 1901 में लगभग 21 वर्ष की उम्र में ही उनके कलम  ने असर दिखाना शुरू कर दिया था। शुरुआत में वे उर्दू भाषा में  नवाब राय के उपनाम से लिखते थे। प्रेमचंद की पहली रचना के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- “प्रेमचंद की पहली रचना, जो अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’ नाम के अपने लेख में किया है।”

उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उर्दू उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ है। इसका हिंदी रूपांतरण ‘देवस्थान रहस्य’ नाम से हुआ। प्रेमचंद का दूसरा उपन्‍यास ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ है जिसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’नाम से 1907में प्रकाशित हुआ।

1908 में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियां जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्‍य में लेखन न करने की चेतावनी दी।  संपादक दयानारायन निगम  ने उन्हें  प्रेमचंद के नाम से लिखने की सलाह दी।

प्रेमचंद का शुरुआती जीवन बहुत अभावों में बीता। उनकी आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। प्रेमचंद के माता-पिता के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- “जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब पंद्रह साल के हुए तब उनकी शादी कर दी गई और सोलह साल के होने पर उनके पिता का भी देहांत हो गया।”

प्रेमचंद के संघर्षपूर्ण जीवन का उनके साहित्य पर क्या असर डाला, इस बात की पुष्टि रामविलास शर्मा के इस कथन से होती है कि- “सौतेली मां का व्यवहार, बचपन में शादी, पंडे-पुरोहित का कर्मकांड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे।”

प्रेमचंद ने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियां लिखीं। उनमें से अधिकांश हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिंदी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चांद, सुधा आदि में लिखा।

प्रेमचंद हिंदी समाचार पत्र जागरण  तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बंद करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबंध, साहित्य का उद्देश्य अंतिम व्याख्यान, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।

1906  से 1936  के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आंदोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिंदी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936  तक के कालखंड को ‘प्रेमचंद युग’ कहा जाता है।

हिन्दी और उर्दू के महानतम लेखकों में शुमार मुंशी प्रेमचंद को शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने “उपन्यास सम्राट” की पदवी दिया था।  प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखने वाले प्रेमचंद का लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है, जो हिन्दी के विकास की यात्रा को संपूर्णता प्रदान करती है।

अपने लेखन के माध्यम से तत्कालीन समाज की जड़ता, अंधविश्वास, छुआछूत, दहेज प्रथा जैसे कुरीतियों पर करारा प्रहार करने वाला ‘कलम का सिपाही’ 8 अक्टूबर 1936 को चिरनिद्रा में लीन हो गया।

 

 

 

First Published on: October 8, 2020 3:33 PM
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