सरकार ही बिचौलियों को सस्ती कीमत पर फसलों के खऱीद के लिए कर रही उत्साहित

सरकार का तर्क है कि विरोध सिर्फ पंजाब के किसान कर रहे है। न्यूज चैनलों के कार्यक्रमों में किसान आंदोलन को राष्ट्र विरोधी भी बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि पंजाब के किसान सबसे ज्यादा सुखी है। उनकी आय दूसरे राज्यों के किसानों के मुकाबले ज्यादा है।

पंजाब के किसान दिल्ली पहुंच गए है। एनडीए सरकार को पहली बार किसानों के जोरदार विरोध का सामना करना पड़ रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार अपने फैसले पर अड़ी हुई है। लेकिन इस बार किसान भी सरकार से आरपार की लड़ाई के मूड में है। हालांकि पूरे देश में किसान आर्थिक बदहाली के शिकार हो गए है, लेकिन सरकार को सारा कुछ हरा-भरा नजर आ रहा है।

सरकार का तर्क है कि विरोध सिर्फ पंजाब के किसान कर रहे है। न्यूज चैनलों के कार्यक्रमों में किसान आंदोलन को राष्ट्र विरोधी भी बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि पंजाब के किसान सबसे ज्यादा सुखी है। उनकी आय दूसरे राज्यों के किसानों के मुकाबले ज्यादा है। फिर भी वे हंगामा कर रहे है।

चैनलों पर तर्क दिया जा रहा है कि महाराष्ट्र के किसान बदहाल है। महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या ज्यादा है। फिर भी महाराष्ट्र के किसान सरकार के खिलाफ आंदोलन नहीं कर रहे है। किसान आंदोलन पर जमकर राजनीति हो रही है। न्यूज चैनल वाले आंदोलन के पीछे कांग्रेस का हाथ भी बता रहे है।

आखिर कृषि क्षेत्र से संबंधित तीनों बिलों को लेकर सरकार और किसान के बीच इतना तीखा टकराव क्यो है? सरकार तो लगातार दावा कर रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था बनी रहेगी। इसे किसी भी कीमत पर समाप्त नहीं किया जाएगा। उधर किसान सरकार से कृषि बिल में एक संशोधन चाहते है।

किसानों की मांग है कि सरकार निजी क्षेत्र की खरीद पर भी एमएसपी की गारंटी का प्रावधान करे। कृषि बिल में प्रावधान किया जाए कि किसानों के उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे की कीमत पर निजी क्षेत्र खरीद नहीं करेगा। आखिर सरकार इस संशोधन से क्यों भाग रही है?

दरअसल सरकार का यही रवैया सरकारी दावे की पोल खोल रहा है। सरकार निजी क्षेत्र की खरीद पर एमएसपी की गारंटी देने को तैयार नहीं है। क्योंकि सरकार बडे कारपोरेट घरानों को लाभ देना चाहती है। दरअसल सरकार कृषि क्षेत्र में बड़े घरानों को लाभ देने के लिए योजना बना चुकी है।

जैसे ही निजी क्षेत्र की मंडियों में फसल की खरीद शुरू होगी, सरकारी मंडियों में खरीद बंद कर दी जाएगी या खरीद धीमी की जाएगी। किसान मजबूरी में निजी क्षेत्र को औने-पौने दामों में उत्पाद बेचने को मजबूर हो जाएंगे। किसान सरकार के इस खेल को समझ रहे है। इसलिए वे निजी क्षेत्र की मंडियों में भी एमएसपी की गारंटी चाहते है।

बदहाली की स्थिति में सिर्फ पंजाब के किसान ही नहीं है। पूरे देश का किसान बदहाली में है। न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ कागजों में है। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर ठगा जाता रहा है। देश के 10 प्रतिशत किसान मुश्किल से एमएसपी का लाभ उठा रहे है।

पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ जरूर मिला है। लेकिन बाकी राज्यों की हालत एमएसपी को लेकर खराब है। बिहार के किसान तो 2006 से न्यूनतम समर्थन मूल्य से वंचित है।

पंजाब और हरियाणा में भी सिर्फ सिर्फ गेहूं और धान पर ही न्यूतनम समर्थन मूल्य मिलता है। बाकी फसल बिचौलिए औने-पौने दामों में खरीद लेते है। हालांकि 22 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान है। एनडीए सरकार के बनाए गए तीन कृषि कानूनों से तो किसान स्वतंत्र भारत में गुलाम हो जाएंगे। उन्हें फसलों की कीमत नाम मात्र ही मिलेगी।

मजबूरी में किसान खेती छोड़ेंगे। अपने खेत को कारपोरेट के हवाले करेंगे। दरअसल सरकार भी यही चाहती है। तीनों कृषि कानून को कुछ इस तरह से बनाया गया है कि किसान घाटे के साथ खेती छोड़ दे औऱ अपनी जमीन कारपोरेट के हवाले कर दे। जब खेती में घाटा होगा तो किसान खुद अपनी जमीन कारपोरेट के हवाले कर देंगे। सरकार यही चाहती है।

सरकार का दावा है कि भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म नहीं होगी औऱ अभी भी सरकार इसे ईमानदारी से चला रही है। फिर सरकार से यह पूछा जाना चाहिए कि इस समय बिहार में 900 से 1000 रुपये प्रति क्विंटल धान किसानों से क्यों खरीदा जा रहा है ?

धान का एमएसपी तो 1868 रुपये निर्धारित किया गया है। इस साल बिहार में मक्का 700 से 800 रुपये क्विंटल किसानों ने बेचा है। जबकि मक्का का एमएसपी 1850 रुपए है। मक्का औऱ धान के खरीद मूल्य में इतनी गिरावट के बाद यह साफ है कि एमएसपी तो कागजों में ही है।

सरकार ही बिचौलियों को सस्ती कीमत पर फसलों के खऱीद के लिए उत्साहित कर रही है। आखिर बिचौलियों पर सरकार कार्रवाई क्यों नहीं करती ? सरकार किसानों के साथ हो रही लूट को रोकने में विफल क्यों है ? फिर उपभोक्ता को तो कृषि उत्पाद काफी महंगा मिल रहा है।

पिछले दो साल किसानों से कौड़ियों के भाव में आलू और प्याज खरीदा गया। उसे बाजार में 50 से 100 रुपये किलो बेचा जा रहा है। आखिर बीच का मुनाफाखोर कौन है ? जब उपभोक्ता को सामान महंगा मिल रहा है तो किसानों को उसका वाजिब न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलवाने से सरकार क्यों भाग रही है ? क्या वाकई में सरकार को मुनाफाखोर ही नियंत्रित कर रहे है?

इस समय बाजार में पिछले साल का प्याज बिक रहा है। उपभोक्ताओं को पिछले साल का सड़ा हुआ प्याज 100 रुपए तक खरीदना पड़ रहा है। प्याजों की शक्ल बता रही है कि इन्हें गोदामों में लंबे समय से रखा गया है। 2018 औऱ 2019 में देश के कई राज्यों में 1-2 रूपए किलो के भाव में प्याज किसानों से थोक मंडियों में खरीदा गया।

इस खरीद के कुछ महीनें बाद ही प्याज के भाव बाजार में 50 से 100 रुपये हो गए। 2019 में किसानों से 1 से 2 रुपये किलो खरीदा गया प्याज अक्तूबर 2020 में 100 रुपये किलो तक बेचा गया। आखिर इतना महंगा बेचने वाली प्याज ल़ॉबी को कौन नियंत्रित कर रहा है ? आलू भी 50 रुपये किलो तक बेचा गया। आखिर सरकार इस मुनाफाखोर लॉबी के खिलाफ कार्रवाई से परहेज क्यों करती रही ?

नरेंद्र मोदी की सरकार कह रही है कि किसानों को देश के किसी भी हिस्से में अपने उत्पादों को बेचने की आजादी दे दी गई है। सरकार की सोच पर हंसी आती है।

देश के 86 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम की जोत है। ये सीमांत किसान अपने उत्पादों को अपने खेत से दस किलोमीटर दूर की मंडियो में भी जाकर मुश्किल से बेचते है। क्योंकि छोटी जोत वाले किसानों की बड़ी समस्या परिवहन खर्च की है।

छोटे किसान परिवहन खर्च बचाने के लिए परिवहन के साधनों को आपस में शेयर करते है। लेकिन सरकार को लगता है कि उतर प्रदेश का किसान मध्य प्रदेश में अपनी फसल बेचकर कई गुना मुनाफा कमा लेगा। वैसे यह सोच कमाल की है।

दरअसल देश भर में कृषि उत्पादों को बेचने की छूट का सबसे ज्यादा लाभ कारपोरेट घराने और बिचौलियों को मिलेगा जो औने-पौने दामों में किसानों से उनका उत्पादन खरीदेगा और इसका भंडारण करेगा। फिर अपनी मर्जी से कीमत तय कर देश के किसी भी हिस्से में बेच सकेगा। दरअसल कृषि उत्पादों को देश के किसी भी हिस्से में बेचने की छूट देकर सरकार ने बिचौलियों और कारपोरेट घरानों को भारी लाभ पहुंचाया है।

First Published on: November 28, 2020 1:40 PM
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