दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज़ आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई…
एक ऐसा कवि जिसने अपने साहित्य की लौ के रूप में ‘पहाड़ों पर एक लालटेन ‘ जलायी थी। कल वह ‘लालटेन’ हमेशा के लिए बुझ गयी। हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल पिछले दिनों कोरोना वायरस और निमोनिया की चपेट में आने के बाद अस्पताल में भर्ती हुए थे। एम्स में अपना इलाज करा रहे मंगलेश डबराल का निधन बुधवार शाम दिल का दौरा पड़ने से हुआ। वह 72 वर्ष के थे।
डबराल के दोस्त और कवि असद जैदी ने फेसबुक पर लिखा, ‘‘मंगलेश डबराल को पांच बजे के करीब डायलिसिस के लिए ले जाया गया। इसके बाद उन्हें दो बार हृदयाघात हुआ।’’
अपने अनेक समकालीन जनवादी कवियों से मंगलेश कई अर्थों में भिन्न और विशिष्ट हमेशा से रहे। उनकी कविताओं में ऐतिहासिक समय में सुरक्षित गति और लय का एक निजी सांमजस्य है, जिसमें एक खास किस्म के शांत अंतराल हैं, पर इनकी कविताएँ बिल्कुल भी शांत नहीं हैं, इन कविताओं की आत्मा में पहाड़ों से आए एक आदमी के सीने में जलती-धुकधुकती लालटेन है जो मौजूदा अँधेरे से भरे सामाजिक स्वभाव के बीच अपने उजाले के संसार में चीजों को बटोरना-बचाना चाह रही है और चीजों तथा स्थितियों को नये संयोजन में नयी पहचान देना चाहती है।
मंगलेश डबराल का जन्म सन 1948 में टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड के काफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई। दिल्ली आकर हिंदी पैट्रिऑट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद में भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक हुए। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन् 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद सँभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हुए थे।
मंगलेश डबराल के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- पहाड़ पर लालटेन / घर का रास्ता / हम जो देखते हैं / आवाज भी एक जगह है / । साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पहल सम्मान, शमशेर सम्मान, स्मृति सम्मान और हिंदी अकादमी दिल्ली के साहित्यकार सम्मान से सम्मानित मंगलेश जी की ख्याति अनुवादक के रूप में भी थी।
मंगलेश जी की कविताओं में भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी , रूसी, जर्मन, स्पेनिश, पोल्स्की और बल्गारी भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के सवालों पर नियमित लेखन भी करते हैं। मंगलेश कविताओं में सामंती बोध एव पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है। वे यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं बल्कि प्रतिपक्ष में एक सुंदर सपना रचकर करते हैं। उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी।
हिंदी कविता की परंपरा में मंगलेश डबराल का मोल इन संक्षिप्त उल्लेखों से नहीं समझा जा सकता। वे असंदिग्ध तौर पर राजनीतिक कवि थे, बाज़ार, पूंजीवाद और सांप्रदायिकता के विरुद्ध थे, लेकिन उनमें एक अजब सी मानवीय ऊष्मा थी- अंग्रेज़ी में जिसे ग्रैंड ह्यूमैनिटी बोलते हैं- कुछ वैसी चीज़ जो अचानक इन कविताओं को एक सभ्यतामूलक विमर्श का माध्यम बना डालती थी।