मन का जुगनू अंधियारे में,
ढूंढ रहा काजल।
अंगारों पर बैठी बूंदे,
चाह रहीं बादल॥
मँहगाई नित नर्तन करके,
अंग अंग तोड़े।
भ्रष्टाचार निरंकुश होकर,
बरसाये कोड़े॥
दरवाजे पर खड़ी समस्या,
खड़काये सांकल।
बिना ताल बज रही व्यथाएँ,
उजड़े आँगन में।
निर्विकार भोली आशाएँ,
डूबीं क्रंदन में॥
तड़प तड़पकर कहे कहानी,
फटा हुआ आँचल।
थाली और कटोरी भागे,
नग्न पाँव घर से॥
लाचारी का तवा आजकल,
रोटी को तरसे।
नया पतीला ढूँढ़ रहा है,
उन्मादी चावल।