मैं दर्शन और साहित्य को विषय नहीं मानता: प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी की साहित्यिक दुनिया में 1980 के दशक में एक संवेदनशील कथाकार के रूप में आए थे। उनकी कहानियों और उपन्यास खासे चर्चित रहे। लेकिन मणि की ख्याति धीरे–धीरे उनके वैचारिक लेखन के लिए बढ़ने लगी और उनकी पहचान हिंदी पट्टी के सबसे बड़े विचारक के रूप में बनी। विश्वदृष्टि, इतिहासबोध, विश्लेषण क्षमता और हिंदी पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता के कारण उनकी तुलना इतिहासकार युवाल नोआ हरारी से की जाती है। उनकी आत्मकथा ‘अकथ कहानी’ हाल ही में प्रकाशित हुई है, जिसमें उनके जीवन के साथ-साथ उत्तर भारत की राजनीति का भी आंखों देख हाल बयान किया गया है। अजित कुमार ने उनकी आत्मकथा को केंद्र में रखकर विभिन्न प्रश्नों पर बातचीत की है। प्रस्तुत है, बातचीत का संपादित अंश:

अजित कुमार: आप अपनी आत्मकथा ‘अकथ कहानी’ में अपने बचपन की लगभग सभी महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र कर चुके हैं। क्या ऐसी कोई और घटना अब याद आ रही है जो अब लग रहा हो कि पुस्तक में प्रकाशित होनी चाहिए थी?

प्रेमकुमार मणि: देखिए, यह जीवन बहुत बड़ा है। मैं सारी घटनाओं को लिख तो नहीं सकता था, पर कुछ घटनाओं की निश्चित रूप से लिखने के बाद बार-बार याद आती है। यह मैं नहीं कह सकता कि सब कुछ इस आत्मकथा में आ चुका है। मैं यह कह सकता हूं कि किसी भी व्यक्ति के जीवन भर की कथा एक आत्मकथा में कैसे आ सकती है? किताब में तो कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का ही उल्लेख किया जा सकता है, जो पाठक के लिए उपयोगी हो। अपमान-सम्मान और जीवन की सारी जटिलताएँ, रोग-बीमारी, हर्ष-विषाद आदि, यह सब कुछ एक किताब में तो संभव नहीं है।

अजित कुमार: कॉलेज की पढ़ाई के दौरान आपकी रुचि विज्ञान से ज्यादा साहित्य में थी, क्योंकि फिजिक्स की परीक्षा के एक दिन पूर्व आप एक उपन्यास पढ़ रहे थे, जबकि आपको फिजिक्स की परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए थी..

प्रेमकुमार मणि: हमने रजनीश के भाषण में सुना था कि रजनीश अपने छात्रों को संस्मरण के रूप में सुना रहे थे कि वे दर्शनशास्त्र को कोई विषय नहीं मानते थे। रजनीश का एक छात्र दर्शनशास्त्र को छोड़कर रंगून चला गया था। तब वह बोले कि विषय छोड़ने से दर्शनशास्त्र से दूर नहीं हो सकते। दर्शनशास्त्र को मैं एक विषय के रूप में नहीं मानता हूं। कुछ लोग दर्शनशास्त्र को विषय के रूप में मानते हैं। एक विषय के रूप में यह डिज़ाइन किया हुआ है। हम सभी पढ़ते हैं, ठीक है, मैं साहित्य को एक अलग विषय के रूप में नहीं मानता हूं। खेल और संगीत को भी एक अलग विषय के रूप में नहीं मानता हूं। यह हमारे जीवन को सुचारू रूप से चलने में सहायक होता है। विज्ञान यह बताता है कि दुनिया कैसे बनी, और दर्शनशास्त्र कहता है कि दुनिया क्यों बनी। साहित्य हमें बताता है कि हमारे जीवन में क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए। यह एक पूल बनाता है। लेखक हमारे समाज में क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए, इसके बीच एक पूल बनाने का कार्य करता है। जीवविज्ञान बताता है कि जीवन कैसे बना, रसायन शास्त्र बताता है, रासायनिक पदार्थों के बारे में आदि। यह काम पहले धर्म ने किया था, परंतु अब धर्म की भूमिका खत्म हो गई है। मैं समझता हूं कि धर्म की सकारात्मक भूमिका अब नहीं रही। अब वह पाखंड फैला रहा है। मैं साहित्य को इसलिए गंभीरता से लेता हूं कि मानवता, मनुष्य जाति और समाज आदि को संभालने के लिए साहित्य की आवश्यकता है। हमारा दृष्टिकोण कैसा हो? मैं इसे एक विषय के रूप में नहीं देख सकता हूं। यह हमारी रुचि है। मैं यह बिल्कुल कह सकता हूं कि साहित्य मेरी सांसों की तरह है।

अजित कुमार: क्या हम कह सकते हैं कि साहित्य हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है?

प्रेमकुमार मणि: जी बिलकुल।

अजित कुमार: आप जगदीश कश्यप के सानिध्य में रहे। आपने उन्हें अपने गुरु के रूप में याद किया है। जगदीश कश्यप से मिलने के पूर्व, स्कूली जीवन के समय में आपके बौद्ध धर्म के प्रति विचार और जगदीश कश्यप के सानिध्य के बाद के विचार के बारे में दो-चार शब्द बताइए।

प्रेमकुमार मणि: दरअसल, जब मैं किशोरावस्था में था या हाई स्कूल कह लीजिए, मेरी 14 महीने की बहन का देहांत हो गया था। वह मेरे गोद में ही खेला करती थी। लोग कहते थे कि अगर मेरी बहन को अच्छे डॉक्टर से दिखाया जाता तो शायद वह बच जाती आदि। पहली बार जीवन में दुख, मृत्यु, मृत्यु के बाद भी कुछ होता है क्या, ऐसे-ऐसे विचारों के बारे में सोचने पर मजबूर हुआ। इससे मुक्ति के लिए मुझे एक छोटी सी पतली सी 50-60 पृष्ठ की किताब मिली। 1956 में बुद्ध की 2500वीं जयंती मनाई जा रही थी। इसी उपलक्ष्य में यह किताब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रकाशित की गई थी। उसको मैंने पढ़ा तो मुझे बुद्ध में एक आकर्षण महसूस हुआ। उसके बाद मैंने कार्ल मार्क्स, राहुल सांकृत्यायन जी को पढ़ा। बुद्ध से संबंधित किताबों को पढ़ा। यह सब पढ़ने के बाद एक आकर्षण बढ़ता गया। हवलदार त्रिपाठीजी ‘सह्रदय’ की किताब बौद्ध धर्म और बिहार को पढ़ा। इस पुस्तक में बौद्ध धर्म के कौन-कौन उन्नायक हुए, तीन-चार लोगों की जीवनियाँ थी, जिसमें राहुल जी, अनागरिक जी और उनमें से एक जगदीश कश्यप जी का भी जिक्र था। उसमें यह था कि वे नालंदा में रहते हैं। मैं जाकर उनसे मिला। उस वक्त मेरी उम्र 19 वर्ष थी। फिर उनसे जुड़ाव हो गया। मैं उनके सामने बौद्ध धर्म के बारे में शून्य था। उन्होंने मुझसे पूछा, बौद्ध धर्म तुम्हें क्यों पसंद है? उस वक्त मैंने कुछ जवाब दिया जो अब मुझे याद नहीं आ रहा है। धीरे-धीरे घनिष्ठता बढ़ती गई और उनका सानिध्य मुझे मिला, जिसे मैं आज भी महसूस कर सकता हूं। उनका निधन 1976 में हो गया। मेरा सम्मान उनके प्रति हमेशा बना रहेगा।

मैंने बौद्ध धर्म को एक नए रूप में उनके जरिये देखा। जगदीश कश्यप कट्टरवादी नहीं थे और मैं भी नहीं था। मेरा मार्क्सवादी दृष्टिकोण भी था। उनके साथ बैठकर बातचीत करने से मैंने बौद्ध धर्म के विभिन्न पहलुओं को जाना और काफी कुछ सीखा। उन्होंने मीलिंद प्रश्नों का अनुवाद किया। त्रिपिटक का हिंदी में अनुवाद किया। अनुवाद में उनका महत्वपूर्ण कार्य था। वे चीन की कई भाषाओं के जानकार थे। वे संस्कृत के भी जानकार थे। वे चीन जाया  भी करते थे और उनका वहाँ काफी सम्मान था। उनके मित्रों में से एक थे सर्वपल्ली राधाकृष्णन। उनका बड़ा कलेवर था। उनके सानिध्य से दुनिया को समझने एवं एक नया दृष्टिकोण मुझे प्राप्त हुआ। वह अक्सर कहा करते थे कि कुछ बड़ा सोचो, बड़ा करो, पर मैंने बड़ा कुछ किया तो नहीं परंतु सोचने में कोताही नहीं की। दुनिया काफी तेजी से बदल रही है, ज्ञान का विस्तार हो रहा है। मैं ज्ञान का एक छोटा सा हिस्सा भी आज तक नहीं जान सका हूं। मैं समझता हूं विचार से कहीं ज्यादा करुणा और संवेदना को बचाए रखने की जरूरत है। विचार से कहीं अधिक मूल्य संवेदना का होती है। उनसे मैंने काफी कुछ सीखा। आज भी मैं उनका नाम आदर और सम्मान के साथ लेता हूं।

अजित कुमार: सर, आप कहते हैं कि आपने कुछ भी बड़ा कार्य नहीं किया, परंतु हम; आपका पाठक वर्ग, जानता है कि आपके विश्व-दृष्टिकोण और आपके लेखन ने साहित्य और विचार की दुनिया को बहुत कुछ प्रदान किया है।

प्रेमकुमार मणि: शुक्रिया शुक्रिया। मैंने विज्ञान से, गुरु से, और समाज से बहुत कुछ सीखा है। मैं शुरुआती दौर में कई चीजों से डरता था, लेकिन काश्यप जी ने मेरे अंदर के भय को दूर किया। वे कहते थे कि तुम्हें बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, जैसा तुम हमसे बात करते हो वैसे ही बड़े लोगों के साथ भी बात करो। जब देश-विदेश से विद्वान जगदीश कश्यप से मिलने आते थे, मैं उनसे बात करके निर्भय हुआ। निर्भयता एक बहुत बड़ी चीज है। अगर कोई गुरु निर्भय बनाता है तो वही असली गुरु है। निर्भय का मतलब दुस्साहसी नहीं बल्कि भयमुक्त बनना है। कबीर भी यही बताते हैं कि अगर कोई शिक्षक अपने शिष्य को निर्भय बनाता है, तो वह गुरु और शिष्य का सार्थक रूप है, कोई भी हो सकता है, जैसे माता-पिता, मित्र आदि। ज्ञान व्यक्ति को मुक्त करता है।

अजित कुमार: आप शुरुआती दौर में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे। इमरजेंसी के विरोध में आपको पार्टी से दूर कर दिया गया था। यह हमेशा देखा गया है कि सत्य बोलने वाले व्यक्ति को काफी कुछ सहना पड़ता है, तो मैं खुद के लिए यह पूछना चाहूंगा कि सत्य बोलने से अगर किसी से संबंध खराब होते हैं तो क्या करना चाहिए?

प्रेमकुमार मणि: कोई भी धर्म या विचार हो, लोग उसे रूढ़ बना देते हैं। मैं आज भी मार्क्सवादी हूं। मार्क्सवाद एक विचार है, मार्क्सवादी एक यूटोपिया है जैसे कबीरदास का ‘अमर देश’ और रैदास का ‘बेगम पुरा’ है। कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य जरूर रहा हूं। आज भी हमारे विचारों में कम्युनिज़्म है। कबीर का अमर देश, रैदास का बेगमपुरा और मार्क्सवाद इन सभी में एक संगति देखता हूं। बौद्ध चिंतन या दर्शन में भी कुछ पाखंड है। कई लोग हिंदुत्व मानते हैं पर उनमें भी विभिन्न रूप हैं, जैसे उपनिषदों का एक हिंदुत्व है, एक आरएसएस का हिंदुत्व है और एक पुरोहितों का है। मैं मार्क्सवाद से प्रभावित था। जब मैंने पार्टी में ग़लतियों का विरोध किया, तो मुझे निकाल दिया गया। मैं कहता हूं कि अगर कोई भी ग़लत हो रहा है, तो उसे निर्भय होकर आवाज़ उठाएं और विरोध करें, यही मेरी आदत रही है और इसके लिए मैंने काफी परेशानियां झेली हैं।

अजित कुमार: आप सामाजिक विश्लेषण के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषण भी करते हैं। मेरा प्रश्न यह है कि साहित्य और राजनीति का संबंध कैसा होना चाहिए?

प्रेमकुमार मणि: राजनीति समाज से अलग नहीं हो सकती है, जैसे किसी विचार का अलग से महत्व नहीं है। पदार्थ है तभी विचार है। विगत और भ्रम एक दूसरे के सापेक्ष हैं। विचार और भौतिकता एक दूसरे के सापेक्ष हैं। समाज है तभी राजनीति है। राजनीति का मूल उद्देश्य है हम समाज को कैसे आगे ले जाएं। मैं विकास को मानवीय हैप्पी इंडेक्स (Human Happiness Index)  के अंतर्गत देखना चाहता हूं। विकास का  हमारा  पैमाना गगनचुंबी इमारतें और फैक्ट्रियां आदि नहीं होनी चाहिए। आधुनिक सभी सुख-सुविधा होने के बावजूद अगर मनुष्य दुखी है, तो इसे हम विकास नहीं कहेंगे। हमें मानव की संवेदना का विकास करना चाहिए। प्रकृति के सभी रूपों को तालमेल रखते हुए विकास को बढ़ावा देना चाहिए।

अजित कुमार: आप युवावस्था में कवि काशीनाथ पांडे जी से मिले थे। उसके बाद वह आपको छोड़ने के लिए आपके साथ दूर गली तक आए थे.. आपनी अत्मकथा में इसका जिक्र करते हुए बताया है कि..

प्रेमकुमार मणि: मुझे माफ़ कीजिए, मैं आपको बीच में ही रोक रहा हूं। एक घटना थी जिसमें मैं बारिश में भीग रहा था, छाता भी नहीं था, पैदल आ रहा था जब उन्होंने अचानक दरवाजा खोला और मुझे अंदर बुला लिया। उस समय वे मुझे नहीं जानते थे और न ही मैं उन्हें जानता था। बाद में पता चला कि वे कवि पांडे जी हैं। इस तरह से उनसे मुलाकात हुई। दुनिया में जितने भी कवि या लेखक हैं, वे अलग तरह के जीव होते हैं और मानवता को संवारने के लिए निरंतर कार्यरत रहते हैं। उन्होंने मुझे बड़ी सादगी से चाय पिलाई। उन्होंने पोर्क (सूअर का मांस) लाकर रख दिया और कहा खाओ। मैंने खा लिया। तब उन्होंने मुझसे पूछा पता है आपने क्या खाया? मुझे पोर्क के बारे में पता नहीं था। उन्होंने बताया कि आपने सूअर का मांस खा लिया है। तब मुझे लगा कि मैंने यह क्या कर लिया। वे बोले कि लेखक या कवि बनने के लिए एक कंठी धारण करके नहीं रह सकते। मेरी आत्मकथा में यह छोटी सी घटना मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। यह मेरे लिए एक बड़ी सीख थी।

अजित कुमार: आपने आत्मकथा में  पट्टीदार के घर के प्रांगण में दीवार चुनवाना आदि का जिक्र किया है, जिसकी तुलना आपने बर्लिन की दीवार से की है। यह एक बहुत रोचक तुलना है..

प्रेमकुमार मणि: यह तो  निजी अनुभव हैं, आपको अच्छा लगा। यह पूरा जीवन है; आप अपने आसपास के घटनाओं को देखते हैं, सोचते हैं, विचार करते हैं। यह मेरी आदत है, यह मेरे लिखने की आदत में है। कोई छोटी सी घटना को बुद्ध से जोड़ना या किसी बात को बुद्ध या मार्क्स से तौलने की यह मेरी आदत है। कोई भी आदमी कोई दृश्य या घटना को अपने कार्य या जरूरत के हिसाब से जरूर जोड़ता है। जैसे एक भूखा आदमी चांद को रोटी की कल्पना करता है, एक प्रेमी चांद को अपनी प्रेमिका के रूप में कल्पना करता है। यह व्यक्ति की भावना के ऊपर निर्भर करता है।

अजित कुमार: आपके लेखन में कोई ऐसा शब्द जिसे पाठक को समझने में मुश्किल आती है, तो आप उसे ब्रैकेट में लिखकर या एक-दो पंक्तियों में समझा देते हैं। यह गैर-हिंदी भाषा क्षेत्र के पाठकों के लिए काफी आसान हो जाता है। जैसे मैं पूर्वोत्तर के राज्य में रहता हूं, तो यहां के लोगों के लिए यह काफी आसान हो जाता है। जैसे आपने आत्मकथा में बोरसी के बारे में बताया है कि वह मिट्टी से बना हुआ पात्र, जिसमें ठंड के दिनों में आग जलाकर रखा जाता है। ऐसे क्षेत्रीय शब्द बदलते समय में क्या लुप्त हो जाएंगे?

प्रेमकुमार मणि: बहुत सारे शब्द हैं। एक दुनिया से दूसरी दुनिया में बहुत सारे शब्द खत्म हो जाते हैं। एक समय रथ था, अब रथ खत्म हो गया है। कुछ दिनों बाद टमटम और बैलगाड़ी भी खत्म हो जाएंगी। छोटी-छोटी चीजें जैसे कजरौटा भी खत्म हो जाएगा। हल खत्म हो जाएगा, धीरे-धीरे हल बहुत कम चलने लगा है। अब देखिये ओखली और मूसल। इसके बाद की पीढ़ी को ओखली और मूसल के बारे में पता ही नहीं होगा। जैसे मूसलाधार बारिश का अर्थ है मूसल जैसी धार वाला बारिश या बहुत तेज बारिश। लोग मूसल को ही नहीं जानेंगे तो मूसलाधार कैसे समझेंगे। जैसे वैदिक काल के शब्द आज हमारे बीच नहीं हैं। वह समाज भी खत्म हो गया है। पुराने जमाने में जौ को दूध में उबालते थे और देवता लोग खाते थे जिसे खुदस कहते हैं, वह आज लुप्त हो गया है। पहले सोम रस पीया जाता था और अब चाय पी जाती है। आज से सौ साल पहले हमारे दादा-परदादा चाय नहीं पीते थे, परंतु अब हमारे बीच चाय आ गई है। पहले लोग शरबत पीते थे, जो गुड़ और मट्ठा मिलाकर बनता था। अब शरबत पीने से लोग कहते हैं कि शुगर हो जाएगा। अब लोग शरबत के मूल रूप को जानते ही नहीं। सब कुछ बदल रही है, दुनिया बदल रही है। साहित्य का काम है शब्दों को और चीजों को साहित्य में सहेज कर रखना। शब्द तो चलन से बाहर जरूर हो जाएंगे, लेकिन मनुष्य जाति के इतिहास में सब कुछ शामिल रहेगा।

अजित कुमार: आपकी कहानी “कास के फूल” में कथित ऊंची जातियों के अमीर, महाजन साहूकार आदि से कमजोर जातियों के लोग बहुत डरते हैं। जब आपने यह कहानी 2009 में लिखी थी, तब और अब के समाज में बदलाव किस रूप में देखते हैं?

प्रेमकुमार मणि: उस कहानी में आया मूर्तिकार कुम्हार एक सामान्य व्यक्ति है। सामंतवाद और अन्याय को वह अपनी मूर्ति में उकेरता है। वह व्यक्तिगत भाव को प्रदर्शित करता है। वह समाज के कुछ लोगों से गुस्सा है। पूजा का आयोजक ही समाज का बहुत बड़ा खलनायक है। वह मूर्तिकार अपनी मूर्ति के माध्यम से अपने भाव को प्रकट करता है। अगर वह लेखक होता तो लिखकर अपनी भावनाओं को प्रकट करता। लेखक का काम यह है कि वह कमजोर पक्ष और शोषित वर्ग के मुद्दों को प्रकाश में लाए। यह सब कुछ कुम्हार अपनी मूर्ति के माध्यम से दर्शाता है। वह भय से भाग जाता है। लेखक एक मानवता और अच्छाई का प्रस्तावक होता है।

अजित कुमार: वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण पर सरकार द्वारा काफी मुहिम चलाई जा रही है। आपके द्वारा रचित कहानी “इमलिया” में आप पर्यावरण संरक्षण की ओर संकेत कर रहे हैं। मेरा सवाल यह है कि साहित्य द्वारा पर्यावरण संरक्षण में कैसे मददगार हो सकता है?

प्रेमकुमार मणि: यह तो आप लोग सोचेंगे कि कौन-कौन से उपाय हैं जो पर्यावरण को संरक्षित करें। लेखक का काम है उधर इशारा करना। पेड़ के बिना कितना सूना हो सकता है सबकुछ? मनुष्य की पहचान कैसे गुम हो सकती है? बच्चे उसके बारे में क्या सोचेंगे? चिड़िया के बारे में बच्चे क्या सोचेंगे? लेखक का काम है मुद्दे की ओर इंगित करना। पृथ्वी पर खूब विकास होगा, बड़ी-बड़ी सड़के, गगनचुंबी इमारतें, कल-कारखाने, परंतु उसमे चिड़िया, पेड़-पौधे, जीव-जंतु नहीं होंगे, तब कल्पना कीजिए पृथ्वी का दृश्य कैसा होगा? मेरी एक और कहानी है “खोज”, जिसमें एक आदमी सपना देखता है कि वह अपने मित्र के यहाँ गाँव में जाता है और वहाँ बड़े अच्छे मकान बने हुए हैं। लेकिन वहां कोई चिड़िया नहीं है, पेड़-पौधे नहीं हैं, जीव-जंतु नहीं हैं, घरों में ताले लगे हुए हैं। अगर वहाँ मनुष्य नहीं हैं, पेड़-पौधे नहीं हैं, जीव-जंतु नहीं हैं, तो उस सौंदर्य का कोई मतलब नहीं है। हर एक चीज की चेतना होनी चाहिए। अगर चेतना नहीं है, तो वह जगत का क्या मतलब? चेतना नहीं है, तो ब्रह्म का कोई मतलब नहीं है। अगर चांद-सूरज हैं, लेकिन उसे देखने वाला नहीं है, तो चांद-सूरज का क्या मतलब? उसे देखने वाला मनुष्य होना चाहिए। इमली के पेड़ को लोग अच्छा नहीं मानते हैं, सांप से लोग डरते हैं, परंतु सांप का होना भी जरूरी है। सब कुछ का पृथ्वी पर होना महत्वपूर्ण है। अगर लंबे दिन हों और रात न हो, तब भी बुरा लगेगा। दिन और रात एक दूसरे के सापेक्ष हैं। अंधकार के बाजू में प्रकाश होता है और प्रकाश के बाजू में अंधकार होता है। दुनिया में हर एक चीज सुंदर हो या न हो, परन्तु दृष्टि सुंदर बनती है। मोहन राकेश की कहानी “निष्फल” में एक मोटी औरत है जिसे कोई पसंद नहीं करता है। उस मोटी औरत की भावना भी है कि उसे कोई पसंद करे। उसके अंदर भी प्रेम भावना आदि विद्यमान है। लेखक का काम है वहां पहुंचना, जहां सामान्य लोगों की नजर नहीं जाती। लेखक का काम है एक दृष्टिकोण विकसित करना।

अजित कुमार: सर, मैं अभी असम विश्वविद्यालय के दीफू असम कैंपस से पीएचडी के लिए साहित्य पर  शोध कर रहा हूं। मेरे शोध का विषय है कथेतर साहित्य। वर्तमान समय में कथेतर साहित्य का क्या परिदृश्य है?

प्रेमकुमार मणि: अच्छा, कथेतर साहित्य! विषय अच्छा है। कथा मैं जरूर लिखता हूं, लेकिन कथा या उपन्यास ही सब कुछ नहीं है। कथा तो कहने का एक माध्यम है। मैं जीवन भर लेखक रहना चाहता हूं। मैं जीवन को सुंदर बनाना चाहता हूं। इसी रूप में मैं जानना चाहता हूं कि सृष्टि में कितने ग्रह हैं, कितने तारे हैं, कितना बड़ा आकाश है। हमारा जो प्लानेट है, वह एक छोटा सा प्लेनेट है, जस्ट लाइक अ डॉट। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उसी के इर्द-गिर्द साहित्य है।

अजित कुमार: सर, आप अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ बताइए। 

प्रेमकुमार मणि: हम सबको पता है कि  एक दिन हम सबको   मिट जाना है। जब तक मैं हूं तब तक दूसरे का भला कर सकूं जितना हमसे हो पाएगा। हर आदमी की एक सीमा होती है मेरी भी एक सीमा है। मैं बहुत लोगों से मिला जैसे- धर्म से जुड़े लोगों से, राजनीति से संबंध रखने वाले से विज्ञान से संबंधित लोगों से और साहित्य से संबंध रखने वाले लोगों से मिलते ही रहता हूं। मैं किसी से लड़ता नहीं हूं। अगर गलत के विरुद्ध में कुछ बोल देता हूं तो लड़ाई हो जाती है। अगर गलत है तो मैं जरूर कहता हूं यह गलत है। मैं राजनीतिक परिवार से आता हूं। कुछ प्रमुख राजनेताओं, जैसे लालू जी, नीतीश जी और रामविलास जी से मेरी मैत्री रही। अन्य क्षेत्र के लोगों से भी मित्रता रही। गलत को गलत और सही को सही मैं कह देता हूं जो कि मैंने अपने गुरु से पाया है। हजारी प्रसाद जी की उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा जिसमें की एक पंक्ति मुझे सबसे अच्छी लगती है, कि सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं। मैं दुस्साहसी नहीं हूं, निर्भय हूं। सब चीजों की भी अपनी सीमा होती है। संसाधन की भी अपनी सीमा है। भौतिक संसाधन के बारे में मैं कुछ कहना चाहूंगा कि संसाधन की इतनी जरूरत है जिसमें हमारी नाव सुचारू रूप से चले। अगर धन दौलत हमारे लिए जरूरी है जिससे कि जीवन सुचारु रूप से चले जैसे नाव चलने के लिए पानी कि जरुरत है अगर अपनी नाव के भीतर आ जाएगा तब नाव डूब जाएगा, ठीक उसी तरह धन दौलत हमारे पास ज्यादा आ जाए तब यह समझ लीजिये नाव नहीं चलेगा। कबीर की एक पंक्ति है-

 पानी बाढ़े नाव में घर में, घर में बाके दाम। 

दोउ हाथ उलीचिये, यही स्यानो का काम।। 

दाम  यानी धन दौलत। अर्थात जिस तरह नाव में पानी भरने से नाव डूबने का खतरा बढ़ जाता है, उसी  तरह घर में धन बढ़ जाने पर भी हमें दोनों हाथ से दान करना चाहिए। ज्यादा संपत्ति हो जाएगी तब बच्चे पढ़ेंगे नहीं, सोचेंगे नहीं इसलिए अमीर लोगों के परिवार में कोई विचारक नहीं होता है, साहित्यकार नहीं होता है, वैज्ञानिक नहीं होता है क्योंकि उनके पास धन दौलत बहुत ज्यादा है सोचने की जरूरत ही नहीं है। बनते वही हैं, जो छोड़ते हैं, जैसे- बुद्ध को ज्ञान प्राप्त करना था तो अपना राज- पाठ छोड़कर चले गए। नेहरू संपन्न परिवार से संबंध रखते थे। सब कुछ दान करके निर्धनता हासिल की तब जाकर वह नेहरू बने। जब आप मुक्त होइएगा धन दौलत से तब आप ज्ञानवान बन पाएंगे। यह मेरा धर्म भी है, राजनीति भी है। यह मेरी अपनी सोच है। हलांकि इसमें भी अलग से मेरा कुछ नहीं है। मैंने अपने दादाजी से सीखा है, जो अनपढ़ थे।  मां से भी सीखा और गुरुओं से भी सीखा, जो बहुत सारी भाषा के जानकार थे। मैं चीजों के दृश्य से बहुत कुछ सीखता हूं। मैं कभी नहीं सोच पाता हूं कि मैं ज्ञानी हूं। निरंतर  सीखने की प्रक्रिया में रहना चाहिए। आदमी को ज्ञान को निरंतर परिष्कृत करते रहना चाहिए। समय के हिसाब से बदलाव जरूरी है। कुछ नया ज्ञान जोड़ना है जैसे आज आपने स्नान किया  फिर आपको कल भी स्नान करना होगा। एक दिन खूब अच्छी तरह, खूब देर तक स्नान कर लेने से नहीं चलेगा। जैसे खाना कुछ घंटे बाद-बाद  खाना होता है, ठीक उसी तरह ज्ञान भी है।

(प्रेमकुमार मणि से अजित कुमार की बातचीत)

First Published on: January 27, 2025 6:06 PM
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