महाप्राण निराला: जब उदय हुआ छायावाद का चमकता सूर्य

पुत्री सरोज के असामयिक निधन ने निराला को तोड़ कर रख दिया। निराला लिखते हैं " धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित न कर सका! जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।

नई दिल्ली। अनघड़, अक्खड़, बेपरवाह और दूसरों की तकलीफ देखकर व्याकुल हो जाने वाले छायावाद युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का पूरा जीवन संघर्ष से भरा रहा। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कुछ स्मृतियां उनके विराट व्यक्तित्व का परिचय कराती हैं। अगर उन्हें कुछ बुरा लगता तो वे मुंह पर ही बोल देते लेकिन अपने मन में महाप्राण में कभी भी किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं रखी।

सूर्यकांत त्रिपाठी को ऐसे ही निराला नहीं कहा जाता है। निष्पक्ष, निश्छल महाप्राण निराला ने एक बार मातृभाषा हिंदी को लेकर महात्मा गांधी से प्रश्न कर दिया था। ये उस वक्त की बात है महात्मा गांधी से प्रश्न करना वैसे ही था जैसे भगवान से, पर निराला तो निराला थे। कहा जाता है कि एक बार महात्मा गांधी ने किसी अधिवेशन में हिंदी को लेकर टिपण्णी कर दी थी और ये भी कहा था कि रविंद्रनाथ ठाकुर जैसा हिंदी का कोई कवि नहीं।

निराला के बारे कहा जाता है कि वो किसी को दुखी नहीं देख सकते थे। एक बार उन्हें किसी प्रेस से रॉयल्टी के तौर पर एक हार रुपए मिले थे। वे जा रहे थे तभी एक महिला उनसे भीख मांगी और बेटा कहकर बुलाया। बेटा सुनकर निराला रूक गए और कुछ पैसे दिए। इससे भी उनका जब मन नहीं भरा तो उन्होंने महिला से पूछा कि मां मैं तुम्हे एक हजार रुपए देता हूं लेकिन कभी तुम भीख नहीं मांगोगी।

शायद यही बात निराला को लग गई और वे सीधे महात्मा गांधी के पास प्रश्न करने पहुंच गए। निराला ने उनसे पूछा कि अपने ये कहा कि रविंद्र जैसा हिंदी का कोई दूसरा कवि नहीं। निराला यही नहीं रुके और पूछा कि अपने इंदौर अधिवेशन में ये भी कहा कि हिंदी मृत हो रही है। क्या आप अपनी बात पर कायम हैं महात्मा? इस तरह बेबाक होकर उस समय महात्मा गांधी से प्रश्न करना कोई सामान्य बात नहीं थी लेकिन अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वाले निराला तो ईश्वर से भी प्रश्न कर सकते थे।

अपने तन पर कपड़े हो या नहीं लेकिन दूसरों के तन को जरूर ढकते थे। अपने पारितोषिक को कभी भी निराला ने अपने लिए खर्च नहीं किया। हमेशा उसे दूसरों की मदद में लगा देते थे। छायावाद युग की ही महादेवी वर्मा उन्हें अपना भाई कहती थीं। पश्चिम बंगाल में जन्मे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के पिता की पीढ़ी हैजा जैसी महामारी के चलते ख़त्म हो गई तो वे बिल्कुल अकेले रह गए। बचपन में मां चल बसी और जब किशोर हुए तो सिर से पिता का साया उठ गया।

महज 15 साल की अवस्था में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का विवाह 1911 में मनोहरा देवी के साथ हुआ। मनोहरा देवी भी एक अद्भुत महिला थीं। रामचरितमानस की चौपाइयां सुनकर निराला भी मुग्ध हो जाते थे। पहले तो निराला बांग्ला में कविता लिखते थे लेकिन पत्नी मनोहरा के कहने पर उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू कर दिया। निराला ने जो कुछ भी सीखा अपने जीवन के संघर्षों से ही सीखा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उनके जीवन पर ऐसा बज्रपात हुआ जिसने उन्हें तोड़ दिया। महामारी ने उनकी प्राणों से प्रिय पत्नी मनोहरा को भी छीन लिया। अब बचे केवल निराला, उनके बेटे और पुत्री सरोज।

बसंत पंचमी के दिन जन्मे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर मां सरस्वती का आशीर्वाद था। उनकी प्रमुख रचनाओं में सरोज स्मृति, राम की शक्ति पूजा और मां सरस्वती को समर्पित सरस्वती वंदना वर दे वीणा वादिनी। वर दे वीणावादिनी, वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे ! आज भी महाप्राण निराला के इस सरस्वती वंदना के बिना कोई भी साहित्यिक अनुष्ठान पूरा नहीं होता। जीवन के संघर्ष से लड़ते हुए निराला पहले अवध पहुंचे और फिर साहित्य के संगम प्रयागराज और वहीं के होकर रह गए।

पुत्री सरोज के असामयिक निधन पर लिखी गई कविता सरोज स्मृति एक ओर कवि का व्यक्तिगत जीवन और यथार्थ के चित्र अंकित करती है तो दूसरी ओर अपने युग की त्रासदी की गाथा प्रस्तुत करती है। कवि जीवन के कठोर अनुभव हैं तो प्रिया एवं पुत्री की स्मृतियों के चित्र भी चित्रित हैं। यहां एक मध्यवर्गीय निर्धन पिता के अंतर्मन की समूची वेदना अभिव्यक्त हुई है।अर्थ ही अनर्थ का मूल था। पूंजी का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ रहा था। पर निराला ने उससे अपने आपको अछूता रखा।

इस घटना ने निराला को तोड़ कर रख दिया। अपने जीवन के पलों को निराला ने इस सरोज स्मृति में संजो दिया। इसमें निराला लिखते हैं ” धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित न कर सका! जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर हारता रहा मैं स्वार्थ-समर। शुचिते, पहनाकर चीनांशुक रख सका न तुझे अत: दधिमुख। क्षीण का न छीना कभी अन्न, मैं लख न सका वे दृग विपन्न; अपने आँसुओं अत: बिम्बित देखे हैं अपने ही मुख-चित।

First Published on: February 21, 2021 2:18 PM
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