हिंदी के जाने-माने साहित्याकर एवं आलोचक प्रोफेसर मैनेजर पांडेय का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। 7 नवंबर, 2022 को दिल्ली के लोधी रोड श्मशान घाट पर भारी हुजूम के बीच उनके पुत्र राहुल पांडेय ने उनका अंतिम संस्कार किया। उनका जाना हिंदी साहित्य के लिए अपूऱणीय क्षति है। वह सच्चे अर्थों में एक लोक बौद्धिक थे। जो ज्ञान को सिर्फ अकदमिक बहसों तक सीमित न रखकर जनता के बीच ले जाने के पक्षधर थे। इसके लिए वह लेखक, साहित्कार और पत्रकारों से जनता की समस्याओं पर भी सार्थक हस्तक्षेप की बात करते थे। बौद्धिकता को वह अपने समाज और बुनियादी मुद्दों से काटने नहीं बल्कि जोड़ने का साधन मानते थे। दो दिन से सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया में उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर लेख प्रकाशित हो रहे है। यह उनके ज्ञान की कोठरी में बंद होने की बजाए आम जनता से जीवंत संपर्क रखने का ही परिणाम है।
मैनेजर पांडेय लंबे समय तक बीमार थे। उन्हें मधुमेह और बुढ़ापे से संबंधित रोग थे। लेकिन रोगग्रस्त होने के बादजूद वह लेखन मे सक्रिय थे। 6 नवंबर, 2022 की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। वह 81 साल के थे।
जन्म एवं परिवार
मैनेजर पांडेय का जन्म 23 सितम्बर, 1941 को बिहार के गोपालगंज जिले के ‘लोहटी’ गांव में सामान्य किसान परिवार में हुआ था। अपने नाम को लेकर वह कहते थे कि, “परिवार में कोई पढ़ा-लिखा नहीं था। पिताजी या जिसने भी मेरा नाम रखा, उनकी यह अभिलाषा रही होगी कि मेरा बेटा मैनेजर की पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करे।” उनकी आरम्भिक शिक्षा गांव में तथा उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई, जहां से उन्होंने एमए और पीएचडी की उपाधियां प्राप्त कीं। आजीविका के लिए अध्यापन का मार्ग चुनने वाले मैनेजर पाण्डेय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे। इसके पूर्व वह बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे।
लोक जीवन में तुलसीदास से प्रेरित व प्रभावित
मैनेजर पांडेय लोक जीवन में तुलसीदास से अधिक प्रेरित व प्रभावित थे। वे युवा लेखकों को मुंशी प्रेमचंद और निराला से सीख लेने की सलाह दिया करते थे और धैर्य रखने की भी सलाह देते थे। वह उन्हें साहित्य को समाज से जोड़ने की सलाह देते थे। साहित्य और साहित्यकारों के लिए होने वाले व्यंग को स्वस्थ परंपरा मानते थे। वे जितना साहित्य के आदमी थे, उससे कहीं अधिक समाज की जीवंत परंपराओं के वारिस थे। समीक्षा और आलोचना के क्षेत्र में मैनेजर पाण्डेय की एक अलग पहचान रही। समकालीन साहित्य के साथ भक्तिकाल और रीतिकाल के साहित्य पर भी उन्होंने नई दृष्टि से विचार किया है और नवीन स्थापनाए दीं हैं। जिस रीतिकाल को राग और रंग का साहित्य कहा जाता है वहाँ भी वह समकालीन चेतना के बीज को तलाश कर सामने रखा।
आलोचना में उनकी दृष्टि एवं योगदान
वह हिंदी में अपनी तरह के वामपंथी आलोचक थे जिन्होंने साहित्य को समाजशास्त्र के आईने में जांचा परखा तथा अपने विचारों पर आजीवन दृढ रहे। उनका मनना था कि साहित्य, साहित्यकार, लेखक और किसी भी सांस्कृतिक संगठन को लेखक और पाठक के बीच पुल का काम करना चाहिए। यह काम यांत्रिक तरीके से नहीं बल्कि सृजनात्मक ढंग से किया जाना चाहिए। इसके लिए एक ओर तो संगठन को साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए कवि सम्मेलन, नाटक और कार्यशालाओं का आयोजन करने की बात करते थे, तो दूसरी तरफ़ निर्देश की शैली में नहीं वरन बहस मुबाहसे के जरिये साहित्य के सामने उपस्थित प्रश्नों पर वैचारिक साफ सफाई की बात करते थे।
उनके जन-समर्थक परिप्रेक्ष्य और प्रगतिशील विचार मध्ययुगीन भक्त कवि सूरदास पर उनकी पुस्तकों और ‘उपन्यास और लोकतंत्र’ नामक हिंदी उपन्यास के अध्ययन में परिलक्षित हुए थे, जो शायद अपनी तरह का एकमात्र अध्ययन है। उनकी अन्य पुस्तकों ने भी उनकी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति स्पष्ट कर दी है। उनके शीर्षक- ‘आलोचना की सामाजिकता’, ‘आलोचना में सहमति-असहमति’ , ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा’, हमें उनके वैचारिक-राजनीतिक समन्वय के बारे में बताने के लिए पर्याप्त है।
आलोचना को उत्तरदायी और सामाजिक बनाना
मैनेजर पांडेय की बुनियादी चिंता का विषय आलोचना को उत्तरदायी और सामाजिक बनाना रहा है। वे इस बात पर चिंतारत दिखाई देते हैं कि पूंजीवाद का मौजूदा दौर सामाजिक की मृत्यु का दौर है। ऐसी स्थिति में सामाजिकता की चिंता आलोचना और आलोचकों के केंद्र में होनी चाहिए। आज जबकि सामाजिकता, सामूहिकता तथा सांस्कृतिक और भाषायी विविधता पर बाजारवाद और पूंजीवादी शक़्तियों के खतरे ज्यादा घनीभूत दिखाई देते हैं, उनकी दृष्टि में आलोचना की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह साहित्य में बेहतर लोकतंत्र की स्थापना के लिए रचना में सामाजिक संघर्षों और मानवीय स्वतंत्रता के लिए की जा रही जद्दोजहद की आगे बढ़ कर पड़ताल करे और सहमतिवाद की गतानुगतिक लीक से अलग हट कर प्रतिरोध का मंच बने।
साहित्यिक एवं अकादमिक कार्य
शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास, दृष्टि, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, अनभै सांचा, संकट के बावजूद और आलोचना की सामाजिकता जैसी उनकी रचनाओं ने हिंदी की आलोचना को अलग मुकाम दिया है। साक्षात्कार विधा में उन्होंने ‘मैं भी मुंह में जबान रखता हूं’, संवाद-परिसंवाद, बतकही और ‘मेरे साक्षात्कार’ जैसी रचनाएं कीं। इन कृतियों के जरिए उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में शोध और आलोचना की नई कड़ियों को जोड़ने का बेहद अहम काम किया।
पुरस्कार और सम्मान
प्रोफेसर मैनेजर पांडेय को उनके आलोचनात्मक लेखन के लिए समय-समय पर कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। इनमें हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा ‘शलाका सम्मान’, राष्ट्रीय दिनकर सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का गोकुल चन्द्र शुक्ल पुरस्कार और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का सुब्रह्मण्य भारती सम्मान आदि शामिल हैं।
उनके जाने से हिंदी के बौद्धिक जगत का एक सितारा और चला गया है। वे मंचों पर दोटूक और सच बोलने वाले इने-गिने आलोचकों में एक थे। मैनेजर पांडेय कहा करते थे, “विचारधारा के बिना आलोचना और साहित्य दिशाहीन होता है। आलोचना में पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग ईमानदारी से होना चाहिए क्योंकि पारिभाषिक शब्द विचार की लम्बी प्रक्रिया से उपजते हैं। साहित्य की सामाजिकता की खोज और सार्थकता की पहचान करना ही आलोचना की सबसे बड़ी चुनौती है।”