
इंसानी वजूद :
यातनाओं के ब्रह्मांड में प्रेम की पृथ्वी सा;
सदियों से संचित यातनाएं
और उनका भार ढोती
वही सुकुमार, निहत्थी, कोमल अस्मिता
तुम आए
इस वजूद के सूरजमुखी को
इसका सूरज दिखा दिया
ब्रह्मांड के बिखरते पिंडों को
गुरुत्वाकर्षण का स्थायित्व दिला दिया
इस अस्मिता के हल्के-भोले बालपन को
उसका साक्षात्कार करा दिया
अरे, तुमने तो इंसानी वजूद की गरिमा को ही
पूज्यनीय बना दिया
तुमने सोच भी कैसे लिया
कि हम हार मान जाएंगे और चुप बैठ जाएंगे
लो हमारी यातनाओं से उपजी कुंठाओं ने
प्रतिघात किया
तुम्हें और तुम्हारे समय को
विस्थापन और त्रासदी के अभूतपूर्व तोहफ़ों से नवाज़ दिया
गांधी बाबा!
हम तुम्हारे लायक नहीं
इसीलिए हमने तुम्हें मार दिया !
हां तुम्हारी हत्या का जश्न ढंग से नहीं मना पाए थे
सो अब मना लेंगे ! …