रविवार की कविता : तुम्हें याद है माँ जब मैं पहली बार विदा ली थी…


संगीता सिंह ‘भावना’ का जन्म 24 फरवरी 1974 को बिहार के गया में जिले में हुआ लेकिन पिछले 30 वर्षों से वह वाराणसी में रह रही हैं। बनारस में ही शिक्षा-दीक्षा और शिक्षा मनोविज्ञान से ऑनर्स तक की पढाई पूरी कीं।एकल काव्य संग्रह-“मेरे हमदम,” तथा एक कहानी संग्रह “मैं ही हूं भावना” प्रकाशित। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित,त्रैमासिक पत्रिका करुणा वती साहित्य धारा का सात वर्षों से निरंतर संपादन।



“विदाई”
तुम्हें याद है माँ ,,
जब मैं पहली बार विदा ली थी
घर के गलियारे से
मैं रोते रोते लिपट पड़ी थी घर की देहरी से
जो पनाहगार थे मेरी अब तक के
खुशनुमा पलों के ……
जहाँ न जाने कितनी अनमोल किस्से
खिलखिलाये थे इन बीते सालों में
मैं नहीं जानती कि,,
ससुराल और मायका में क्या फर्क है
पर,कुछ तो है जो मुझसे छूटा जा रहा
सच सच बतलाना माँ …..
क्या तुम भी महसूस करती हो मेरी मौजूदगी को ,
हर दिन नहीं तो किसी दिन तो सही
जब फुरसत में होती होगी अपनी ऊबी अघाती गृहस्थी से ………
वो कमरा,वो पलंग का एक हिस्सा ,,
जो अब खाली पड़े होंगे मेरी यादों को लपेटे
जो मेरे होने की गवाही थे कभी ,,
कभी कभी मैं अब भी विचलित हो जाती हूँ
यह सोचकर कि कितना मुश्किल होता है अपनी
जड़ों को उखाड़कर दूसरी जगह रोपित करना
मुझे पता है ,तुम भी रोती हो छुप छुपकर ,,
क्योंकि तुमने भी तो कभी उखाड़े होंगे अपनी जड़ों को अन्यत्र जगह लगाने को …..

“भरोसा”

जानती हो मेरी बिटिया ,,
उन दिनों तुम्हारे जाने के बाद
सिसक रही थी मैं और तुम्हारी यादें लपेटे
हर वह चीज जो तुम्हारे टटके उपस्थिति के गवाह थे
तुम विदा जरूर हुई थी इस घर से ,,
पर इस घर की हर कोनों ने तुम्हारी यादों को
बहुत ही बारीकी से सहेजें हैं …..
सच कहती हूँ मेरी बच्ची ,,
जितनी मर्तबा याद करती हूँ तुम्हें ,,
उतनी मर्तबा गहरे तक डूब जाती हूँ खुद में
इन दिनों कुछ भी अच्छा नहीं लगता
एक अजीब सा सन्नाटा मुझे बहुत उदास करता है
अपने भीतर कुछ भारी भारी सा लगता है
निहारती हूँ तुम्हें एकटक ,,
संदूक में रखे पुराने पर बेशकीमती एल्बम में
तुम्हारी आंखों में गजब का आत्मविश्वास दीखता है मुझे …..
तुम्हारी आँखों का यही आत्मविश्वास ,,
भरोसा जगाता है मुझमें ,,
कि अपनी जड़ें जमाने और उस नये घर को सँवारने
की खातिर तुमने अपने कदम बढ़ाने शुरू कर दिए होंगे …….
क्योंकि खुशियों की असली परिभाषा तो ,,
अनजान दीवारों को अपना बनाने में ही है।

“नीड़ का निर्माण”

इन दिनों मैं,,
सोचती हूँ सिर्फ तुम्हारे बारे में
कि कैसे शाखों से जुदा होकर तुम
नये नीड़ के निर्माण में जुटी हो
और तुम्हें लेकर मैं उम्मीदों से भर उठी हूँ
तुमने अपने आस -पास एक बेहद खूबसूरत संसार
का सृजन कर लिया है
जिसमें तुम हो तुम्हारा सुखी घर परिवार है
घर में एक माँ है ,,
जो मुझसे मिलती जुलती सी दिखाई पड़ती है
बिटिया,,उस माँ ने भी देखे होंगे कुछ सपने
मुझे विश्वास है तुम अपने प्रेम से ,आदर भाव से
सिंचित कर रही होगी उन्हें
तभी तो तुम पर गुरुर करती हुई मैं
सिहर उठती हूँ भीतर तक ……
तुम्हारी आँखों में फैले आत्मविश्वास की चमक
आश्वस्त करते हैं मुझे कि
सही सही दौड़ रहा है मेरा रक्त तुम्हारी धमनियों में।



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