कोरोना का हर्ष गीत है आलोक के सात नाटकों का संग्रह ख़्वाबों के सात रंग

साल 2021 के आखिरी महीने में जबकि कोरोना अभी पूरा गया नहीं और ओमिक्रान का खतरा आसन्न है ऐसे में वरिष्ठ रंगकर्मी, लेखक और निर्देशक आलोक शुक्ला द्वारा लिखित सात छोटे-बड़े नाटकों का संग्रह ख्वाबों के सात रंग, किसी हर्षगीत से कम नही है।

साल 2021 के आखिरी महीने में जबकि कोरोना अभी पूरा गया नहीं और ओमिक्रान का खतरा आसन्न है ऐसे में वरिष्ठ रंगकर्मी, लेखक और निर्देशक आलोक शुक्ला द्वारा लिखित सात छोटे-बड़े नाटकों का संग्रह ख्वाबों के सात रंग, किसी हर्षगीत से कम नही है।

राही पब्लिकेशन, नई दिल्ली, द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक प्रथमदृष्ट्या आकर्षक है। पुस्तक का कवर डिज़ाइन, रंग संयोजन और मुद्रण ख़ूबसूरत है। भीतर के पन्नों की गुणवत्ता और मुद्रण भी उत्कृष्ट है। यूँ कह सकते हैं कि पुस्तक की ख़ूबसूरती पाठक को आकर्षित करती है।

लेखक द्वारा प्रस्तुत ‘भूमिका’ और ‘नाटकों के बारे में’ खण्ड एक नए प्रयोग की तरह लगे जो सराहनीय है। पुस्तक के आरम्भ में ही पाठक को एक सार-संक्षेप मिल जाता है जो उसे बाक़ी पुस्तक पढ़ने के लिए ललचाता है।

नाटकों की पृष्ठभूमि और कथानक लाजवाब है। लगभग सभी नाटक लेखक के व्यक्तिगत अनुभव और आस-पास के वातावरण के प्रति संवेदना और सजगता बयान करते हैं। इसके पात्र हमारे आसपास ही मौजूद हैं। यही इन नाटकों की असली ताक़त है। इसके पात्र आपको कहीं से भी काल्पनिक नहीं लगते हैं। सभी नाटक समाजिक विषमताओं पर लिखे गए हैं जो लेखक की सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करते हैं।

नए नाटकों के साथ प्रयोग करने वाले कलाकार, निर्देशकों के लिए ये बहुत ही अच्छा संकलन साबित हो सकता है।
नाटकों के अलग-अलग प्रारूप एक ही पुस्तक में उपलब्ध कराना एक सराहनीय और दुःसाहासिक कार्य है, इस संग्रह में एक एकल नाट्य, एक नुक्कड़ नाटक, दो लघु नाटिकाएं, दो पूर्णकलिक नाटक और एक ऐसा द्वि पात्रीय नाटक जो बहु पात्रीय है और इसे निर्देशक जैसा चाहे कर सकते हैं।

संवादों के माध्यम से जो संदेश लेखक ने देने का प्रयास किया है ज़्यादातर प्रयासों में सफलता मिलती नज़र आती है। जैसे पहले ही नाटक, ‘ख़्वाब’ और ‘बाप रे बाप’ के अंतिम दृश्य में मुख्यपात्र और अंतरात्मा के बीच संवाद। ‘उसके साथ’ में पीड़ित लड़की के एकल संवाद इत्यादि।

अंतिम नाटक ‘देखोना’ बाक़ी नाटकों के साथ यदि तुलनात्मक रूप से देखें तो लेखक की वरिष्ठ और प्रबुद्ध रचना प्रतीत होती है। यूँ तो प्रारम्भ में यह नाटक एक अलग ही पृष्ठभूमि के साथ प्रारम्भ होता है, लेकिन समापन एक बहुत ही सुंदर और सामयिक विषय के साथ होता है, यह प्रयोग बहुत ही सुंदर बन पड़ा है।

हालंकि प्रूफ की कई गलतियां आपको नज़र आती हैं लेकिन एक अच्छे नाट्य संग्रह के लिए इन्हे नजरंअदाज़ किया जा सकता है, ऐसे ही लगता है कि बाप रे बाप और उसके साथ की अंतिम स्पीच को कुछ अंश थोड़े और संपादित हो सकते थे लेकिन यह कार्य नाटक का निर्देशक बड़ी आसानी से कर सकता है।

ऐसे ही लगता है कि विभिन्न क्षेत्रीय बोलियों/भाषाओं का जो प्रयोग किया गया है वो बेहतर होते हुए भी थोड़ा और न्याय मांगता था। इसका प्रूफ रीडिंग में सुधार किया जा सकता था।

जो भी हो यहां ये ध्यान देना ही होगा कि लेखक पिछले डेढ़ साल से स्वास्थ्य के स्तर पर कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं लेकिन इस सबके बीच जिस प्रकार से उन्होंने अपने नाट्य संग्रह के प्रकाशन के सपने को साकार किया है वो अनुकरणीय है।

उनकी गम्भीर बीमारी और कोरोना की परिस्थितियों को देखते हुए इसे एक बेहद सराहनीय प्रयास कहा जा सकता है, इसके लिए लेखक और प्रकाशक प्रशंसा दोनों ही साधुवाद के हक़दार है।

इसका रंगजगत को भरपूर स्वागत करना चाहिए क्योंकि जो भी मौलिक नाटक हैं, वे हैं तो ज़रूर पर प्रकाशित नहीं हैं और प्रकाशित हैं तो उपलब्ध नहीं हैं। छोटे बड़े कुल सात मौलिक नाटकों का यह संग्रह कुल जमा 159 पृष्ठों का है और अमेज़न पर महज 275/- में उपलब्ध है।

( समीक्षक मनोज श्रीवास्तव, ब्लॉगर और रंगकर्मी हैं)

First Published on: December 28, 2021 10:38 PM
Exit mobile version