अफगानिस्तान-तालिबान-अमेरिका : अचानक आई राजनय की सबसे बड़ी चुनौती


कुछ लोगों का मानना था कि उसकी शक्ति बाहर से मिलने वाले समर्थन में निहित है। खाड़ी देशों से आने वाला भारी-भरकम चंदा और पाकिस्तान से मिलने वाले हथियार तालिबान को कमजोर नहीं पड़ने दे रहे। लेकिन खाड़ी देशों की माली हालत 2008 की मंदी के बाद से ही खस्ता चल रही है और पाकिस्तान के सिर से अमेरिकी हाथ हट जाने के बाद से उसकी स्थिति किसी अनाथ बच्चे जैसी हो गई है।


चंद्रभूषण
मत-विमत Updated On :

कूटनीति के स्तर पर दुनिया की सबसे बड़ी हलचल अभी अफगानिस्तान में देखी जा रही है। अमेरिका में ट्रंप प्रशासन की विदाई के साथ ही यह तय हो गया था कि इस तरफ कुछ बड़ा बवाल मचने वाला है। लेकिन बाइडेन प्रशासन की राजनयिक प्राथमिकताएं अभी स्पष्ट होनी बाकी हैं लिहाजा सब अपनी-अपनी तैयारी करते रहे। जनवरी में एक तालिबान डेलिगेशन रूसी प्रशासन से बातचीत के लिए मॉस्को गया।

फरवरी में अफगानिस्तान मामलों पर अमेरिका के विशेष दूत जल्मे खलीलजाद सघन लिखाई वाला आठ पृष्ठों का एक दस्तावेज लेकर काबुल गए ताकि अशरफ गनी प्रशासन को पिछले साल तालिबान के साथ हुए दोहा समझौते पर पटाया जा सके। बीते शनिवार यानी मार्च के पहले हफ्ते में अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन का अफगान राष्ट्रपति को लिखा तीन पृष्ठों का एक पत्र लीक हुआ और अगले ही दिन अफगानिस्तान पर रूस के विशेष दूत जमीर काबुलोव ने पाकिस्तान का दौरा कर 18 मार्च को मॉस्को में एक अहम बैठक की घोषणा की।

इस गहमागहमी की एक वजह मौसमी है। हम एक जमाने से देखते आ रहे हैं कि फरवरी-मार्च में अफगानिस्तान से आने वाली कूटनीतिक खबरें कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती हैं। इसका कारण है ‘स्प्रिंग ऑफेंसिव’ नाम की भयानक परिघटना। 1980 के दशक में कब्जावर रूसियों के खिलाफ मुजाहिदीन और फिर तालिबान (अपनी सत्ता वाले अंतराल को छोड़कर) अपने मुल्क का भीषण जाड़ा हिंदूकुश की गुफाओं में दुबक कर काटते हैं और बर्फ गलने के साथ ही हल्ला बोलकर सरकारी फौजों के पांव उखाड़ देते हैं।

लिहाजा राज करने वाली ताकतें फरवरी-मार्च में उन्हें ज्यादा से ज्यादा बातों में उलझाए रखने की कोशिश करती हैं ताकि और कुछ नहीं तो थोड़ा समय उन्हें अपने मोर्चे मजबूत करने के लिए ही मिल जाए। लेकिन इस बार मामला उससे आगे का है। फरवरी 2020 में तालिबान से हुए समझौते में ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका और नाटो की समूची फौज की वापसी के लिए 14 महीने का समय तय किया था, जो इसी मई में खत्म हो जाएगा। बाइडेन प्रशासन इसे तोड़ना नहीं चाहता, ताकि वापसी तक उसकी फौजी छावनियां तालिबान हमले से बची रहें।

याद रहे, अमेरिका ने अपनी फौज लगाकर तालिबान की सत्ता पलटने का काम वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुए आतंकी हमलों के तुरंत बाद सन 2001 में ही कर डाला था। तब से अब तक गुजरे 20 वर्षों में अलकायदा की कमर टूट गई और इसके काफी बाद में उभरे इस्लामिक स्टेट के भी अंजर-पंजर ढीले पड़ गए, लेकिन अफगानी तालिबान की ताकत अपने चमत्कारिक नेता मुल्ला उमर की मौत के बावजूद तकरीबन ज्यों की त्यों बनी हुई है।

कुछ लोगों का मानना था कि उसकी शक्ति बाहर से मिलने वाले समर्थन में निहित है। खाड़ी देशों से आने वाला भारी-भरकम चंदा और पाकिस्तान से मिलने वाले हथियार तालिबान को कमजोर नहीं पड़ने दे रहे। लेकिन खाड़ी देशों की माली हालत 2008 की मंदी के बाद से ही खस्ता चल रही है और पाकिस्तान के सिर से अमेरिकी हाथ हट जाने के बाद से उसकी स्थिति किसी अनाथ बच्चे जैसी हो गई है। इसके बावजूद तालिबान मैदान में डटा हुआ है तो इसका कारण अफगान जनता में उसके प्रति मौजूद धार्मिक और राष्ट्रवादी आकर्षण है।

जल्मे खलीलजाद द्वारा प्रस्तुत बाइडेन प्रशासन के अठपेजी दस्तावेज के तीन प्रमुख बिंदु हैं। पहला, अफगान फौजों और तालिबान के बीच स्थायी युद्धविराम कैसे सुनिश्चित किया जाए। दूसरा, देश में शांति बनाए रखने वाली एक मिली-जुली संक्रमणकालीन सरकार कैसे बनाई जाए और उसका स्वरूप कैसा हो। और तीसरा, अफगानिस्तान के लिए एक संविधान की रचना की जाए, लेकिन उसका ढांचा किस तरह का हो और इसके लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाए।

अभी कुछ साल पहले अपने पड़ोसी देश नेपाल में हमने इन्हीं कदमों का अनुपालन होते देखा है, लेकिन इसके पहले चरण यानी संविधान सभा का पहला चुनाव कराने में ही पांच साल लग गए थे। फिर लगभग दस वर्षों में संविधान पर आम सहमति बनी और नए संविधान के तहत जो पहली सरकार चुनी गई, वह फिलहाल आधे रास्ते में ही ढही पड़ी है। इसे ध्यान में रखें तो अफगानिस्तान में यह सब दो महीने में हो जाने की बात खुद में एक खामखयाली ही लगती है। अफगानी इसे ऐसा मानकर कुछ गलत नहीं कर रहे हैं।

दस्तावेज के बारे में तालिबान का कहना है कि बाद में सब कुछ होता रहेगा लेकिन अभी तो दोहा समझौते का पालन करते हुए दस हजार अमेरिकी फौजी यहां से हटें। अब, एक विवाद अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी सैनिकों की संख्या को लेकर भी है, जो अफगान उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह के इस बयान से जाहिर होता है कि ‘अमेरिका अपनी फौज का फैसला कर सकता है, हमारे देश का नहीं। वह चाहे तो अपने ढाई हजार फौजी वापस ले जाए, पर अफगानिस्तान में कोई नई सरकार चुनाव के जरिये ही आएगी, किसी के थोपने से नहीं।’

ट्रंप प्रशासन ने दोहा समझौते पर दस्तखत के 135 दिन के अंदर अपने 5000 सैनिक अफगानिस्तान से हटा लेने की बात कही थी और तब, 2020 की बीतती फरवरी में कुल 12,800 नाटो सैनिक वहां थे। फिर कोविड के हाहाकार और अमेरिकी चुनाव की गहमागहमी में यह पता नहीं चल पाया कि अमेरिका ने मध्य जुलाई तक अपनी बात पर अमल किया या नहीं। किया हो तो अभी कोई आठ हजार विदेशी सैनिक ही वहां होंगे।

एक बड़ा फच्चर संविधान के ढांचे को लेकर फंसना तय है, जिसका स्वरूप तालिबान के मुताबिक शरीयत वाला होना चाहिए, जबकि अमेरिकी प्रस्ताव महिलाओं की आजादी समेत सभी जन-अधिकारों वाले लोकतंत्र का है। लेकिन उससे पहले अफगान मामलों में विदेशी दखल का मसला हल होना है। अमेरिकी प्रस्ताव दो बैठकों का है। एक संयुक्त राष्ट्र के छाते में अमेरिका, चीन, रूस, भारत, पाकिस्तान और ईरान की, जिसमें अफगानिस्तान के भविष्य का खाका तय हो। दूसरी तुर्की में तालिबान और अफगान सरकार की, जिसमें युद्ध विराम और संक्रमणकालीन सरकार को लेकर बात हो।

लेकिन इससे पहले रूस द्वारा इसी 18 मार्च को मॉस्को में बुलाई गई बैठक चर्चा में रहेगी, जिसमें अफगान सरकार और तालिबान तो होंगे, पर विदेशियों को न्यौता अमेरिका की सूची में से भारत का नाम काटकर बांटा गया है। यह हमारे लिए काफी खतरनाक होने जा रहा है क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान को लेकर बनने वाली कोई भी सरकार कश्मीर के लिए हानिकर सिद्ध होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख साभार।)