देश में सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूरों वाले बिहार का चुनावी परिदृश्य

भारत में भी संभवतः हर पांच साल की अवधि में इस तरह का सर्वेक्षण करवाया जाता है। विगत डेढ़ दशक के दौरान समय-समय पर कराये गए ऐसे सर्वेक्षणों की रिपोर्ट यह बताती है की देश में बिहार एकमात्र ऐसा राज्य है जहां न केवल सबसे ज्यादा बेरोजगारी है बल्कि हर शैक्षिक वर्ग में सबसे ज्यादा बेरोजगार बिहार में ही हैं।

भारत सरकार के श्रम मंत्रालय से सम्बद्ध एक संस्थान द्वारा जारी किये गए ताजा श्रम सामाजिक सर्वेक्षण के मुताबिक़ देश में बिहार एक ऐसा राज्य है जहां से पलायन कर देश के दूसरे इलाकों में जाकर रोजगार करने वाले मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा है। राष्ट्रीय औसत प्रतिशत के आधार पर देश के कुल प्रवासी मजदूरों में बिहार से आने वाले मजदूर 32 प्रतिशत से ज्यादा ही हैं। इसके बाद साढ़े इक्तीस प्रतिशत के साथ उत्तर प्रदेश और ओडिशा का नंबर आता है और लगभग 28 प्रतिशत के साथ असम का नंबर आता है। इस कड़ी में 26 प्रतिशत से कुछ ज्यादा प्रवासी मजदूरों के साथ केरल और पश्चिम बंगाल तथा लगभग 26 प्रतिशत के साथ तमिलनाडू का पांचवा नंबर है।

प्रवासी मजदूरों के मामले में देश के अन्य राज्य इसके बाद ही सामने आते हैं और उनका क्रम इस प्रकार है। छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, पंजाब, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, जम्मू-कश्मीर और सबसे बाद में हरियाणा का नंबर आता है। बिहार में प्रवासी मजदूरों की इस विशिष्ट स्थिति के चलते इस राज्य में बेरोजगारी आज की सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आयी है। इस वजह से ही बिहार विधान सभा के मौजूदा चुनाव प्रचार के दौरान बेरोजगारी का मुद्दा अहम् हो गया है।

पक्ष और विपक्ष दोनों ही चुनाव के बाद नयी सरकार बनने पर राज्य में लाखों की तादाद में रोजगार के साधन उपलब्ध कराने की ऊँचे-ऊँचे दावे कर रहे हैं। शुरुआत विपक्षी महागठबंधन के प्रमुख घटक राष्ट्रीय जनता दल नेता और राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के उस भाषण से हुई जिसमें उन्होंने अपने गठबंधन की सरकार बनने पर राज्य में रोजगार के 10 लाख नए साधन सृजित करने की बात कही थी। तेजस्वी यादव की इस बात का उनके प्रतिद्वंदी भाजपा और जनता दल (यू) के नेताओं ने मजाक उड़ाया।

सत्तारूढ़ राजग के प्रमुख घटक जद (यू) के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो तेजस्वी का अपमान करने के अंदाज में यहाँ तक कह दिया था कि बिहार में इतनी बड़ी तादाद में रोजगार के अतिरिक्त साधन उपलब्ध कराना व्यावहारिक रूप से ही संभव नहीं है पर तेजस्वी के इस बयान के बाद जब विगत गुरूवार 22 अक्टूबर को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के वरिष्ठ सहयोगी घटक भाजपा ने पटना में जारी चुनाव घोषणा पत्र में चुनाव के बाद राज्य में तेजस्वी से दो गुनी तादाद (19लाख) में रोजगार के नए अवसर सृजित करने का वायदा कर दिया तो नीतीश कुमार का चेहरा देखने लायक था।

भाजपा नेत्री और केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पार्टी का बिहार चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा भी था कि राजग सरकार की वापसे पर राज्य में रोजगार के नए अवसर सृजित किये जायेंगे। नीतीश इस मामले में निर्मला की बात की कोई काट नहीं कर सके। दरअसल बिहार का एक कड़वा सच यह है कि जब करीब 15 साल पहले साल 2004 – 05 में नीतीश ने राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की सत्ता हासिल की थी तब बिहार में बेरोजगारी तो थी लेकिन उसका हाल इतना बुरा नहीं था जितना इस डेढ़ दशक के दौरान हो गया है जब से नीतीश की सरकार चल रही है।

तेजस्वी ने इसीलिए यह मुद्दा उठाया है क्योंकि डेढ़ दशक पहले जब राजद की सरकार थी और उनके पिताश्री और माताश्री मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे तब रोजगार की हालत उतनी बुरी नहीं थी लिहाजा उनकी पार्टी की सरकार बनने पर रोजगार के मामले में उसी स्थिति को बहाल किया जा सकता है। एक तो नीतीश के राज में रोजगार कम हुए दूसरा कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन तथा अन्य कारणोंवश। इधर के वर्षों में हालत और खराब हुई है। इन्हीं परिस्थितियों के सन्दर्भ में तेजस्वी ने रोजगार के नए अवसर सृजित करने की बात की थी।

तेजस्वी की यह बात नीतीश की समझ में चाहे न आयी हो लेकिन भाजपा इस दर्द को अच्छी तरह समझ चुकी है। इसीलिए उसके घोषणा पत्र में तेजस्वी से दुगने रोजगार के नए अवसर उपलब्ध कराने की बात की है। चुनाव के बाद कौन क्या करेगा, यह तो बाद में ही पता चल सकेगा लेकिन इस बात में दम है की आज बिहार में ही नहीं पूरे देश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है और इसका हल खोजने की बात करने वाला राजनेता वास्तव में जमीन का नेता ही कहा जाएगा। प्रसंगवश यह जानना भी जरूरी है कि दुनिया की कोई भी सरकार अपने देश में बेरोजगारी की हालत को जानने-समझने के लिए समय-समय पर एक निश्चित अंतराल में श्रमिक सर्वेक्षण करवाती रहती है।

भारत में भी संभवतः हर पांच साल की अवधि में इस तरह का सर्वेक्षण करवाया जाता है। विगत डेढ़ दशक के दौरान समय-समय पर कराये गए ऐसे सर्वेक्षणों की रिपोर्ट यह बताती है की देश में बिहार एकमात्र ऐसा राज्य है जहां न केवल सबसे ज्यादा बेरोजगारी है बल्कि हर शैक्षिक वर्ग में सबसे ज्यादा बेरोजगार बिहार में ही हैं। बेरोजगारी की मार से बचने के लिए ही रोजगार की तलाश में सबसे ज्यादा पलायन भी बिहार से ही होता है। बिहार में पलायन करने वाले मजदूरों की असलियत तो तभी सबके सामने आ गयी थी जब लॉकडाउन के दौरान में अपने घर वापस लौटने वाले प्रवासी मजदूर इसी राज्य के थे।

भारत सरकार के सामाजिक श्रम सर्वेक्षण के मुताबिक साल 2018 – 19 के दौरान बिहार में बेरोजगारी का प्रतिशत 10.2 था। जबकि तब बेरोजगारी का राष्ट्रीय औसत 5 .8 प्रतिशत था। लेकिन साल 2004 – 05 के दौरान बिहार में बेरोजगारी की हालत इतनी खराब नहीं थी, पर उसके बाद तो हर साल हालात बाद से बदतर ही होते चले गए। सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 2004 – 05 में बेरोजगारी के राष्ट्रीय औसत की तुलना में बिहार की बेरोजगारी दर 0.8 गुना ही ज्यादा थी लेकिन बाद के वर्षों में बेरोजगारी का यह औसत 2018-19 तक आते- आते बिहार में 0.8 से लेकर 1.9 गुना तक बढ़ गया।

गौरतलब है कि 2004 – 05 में बेरोजगारी का राष्ट्रीय औसत 2.2 प्रतिशत था जो 2018 – 19 में 1.9 प्रतिशत हो गया। लेकिन इसी अवधि में बिहार का बेरोजगारी औसत क्रमशः 1.9 से बढ़ कर 10.2 प्रतिशत हो गया। गौरतलब यह भी है कि बिहार में नौकरीपेशा लोगों की संख्या बहुत कम है। इस राज्य के कुल रोजगारों में नौकरी करने वाले कुल 10 प्रतिशत ही हैं। 2018 – 19 में नौकरीपेशा लोगों का राष्ट्रीय औसत 23.8 प्रतिशत था जबकि बिहार में यह मात्र 10.4 प्रतिशत था।

नौकरीपेशा रोजगार को एक तरह से स्थायी रोजगार माना जाता है, जिस राज्य में नौकरी करने वालों की संख्या ज्यादा होती है वहाँ स्वरोजगार के साधन कम होते हैं। इसके विपरीत जहां नौकरियाँ कम होती हैं वहाँ स्वरोजगार से जुटे लोगों की संख्या ज्यादा होते है बिहार की स्थिति वैसी ही है। मतलब यह कि बिहार में रोजगार कम और स्वरोजगार ज्यादा है। स्वरोजगार का मतलब बेरोजगारी ही तो है और जब किसी राज्य में बेरोजगारी ज्यादा होती है तब वहाँ से रोजगार की तलाश में पलायन भी ज्यादा होता है।

First Published on: October 25, 2020 7:43 AM
Exit mobile version