किस तरफ जा रही है खाड़ी क्षेत्र की लड़ाई

इस्राइल और ईरान की लड़ाई शुरू हुए अभी हफ्ता भी नहीं गुजरा है लेकिन युद्धों के इतिहास में इसका मुकाम कुछ अलग ढंग का ही लगने लगा है। इस बात को दोनों देशों की सीमाएं दूर-दूर होने से जोड़कर न देखा जाए। ताकतवर देश न जाने कब से बहुत दूर जा-जाकर कमजोर देशों पर हमले करते रहे हैं।

इस युद्ध के अनोखेपन में सीमा न सटने के साथ इसका एकतरफा न होना भी जुड़ा है। हर अर्थ में यह लड़ाई दोतरफा है। आबादी और क्षेत्रफल में ईरान से बहुत छोटा होने के बावजूद इस्राइल का पलड़ा तकनीक, युद्ध कौशल, पूंजी और बाहरी समर्थन की दृष्टि से बहुत भारी है, लेकिन अचानक हमले के सारे फायदे लेकर भी नुकसान उसको इस लड़ाई में बराबर का हो रहा है।

अभी तक के घटनाक्रम को देखते हुए ईरान बासबूत यह दावा कर सकता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। यूरेनियम एनरिचमेंट को लेकर अमेरिका के साथ उसकी बातचीत अभी चल ही रही थी। उसने परमाणु बम बना लिया है या इसके बहुत करीब है, ऐसा कोई सुराग लगातार उसके एटमी ढांचे पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था आईएईए को भी नहीं मिला था।

इससे बड़ी बात यह कि इस्राइल खुद न जाने कब से एटम बमों का जखीरा दबाए बैठा है, जिसके बारे में पूछने पर उसके अधिकारी न कभी हां कहते हैं न ना बोलते हैं। ऐसे में आखिर किस दलील से इस्राइल ने अचानक दो सौ युद्धक विमान लेकर उसपर हमला बोल दिया और उसके कुछ शीर्ष सैन्य अधिकारियों और परमाणु वैज्ञानिकों को उनके परिवार और पड़ोसियों सहित सोते में ही मौत के घाट उतार दिया?

दुर्भाग्यवश, इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही दुनिया का जो हाल हो रखा है, उसमें ऐसे सवालों का जवाब मिलना तो दूर, जिम्मेदार व्यक्तियों से इन्हें पूछने की भी इजाजत नहीं है। ऐसे में लड़ाई के कारणों को छोड़कर ही कुछ कहना हमारी मजबूरी है। यह हमला इस्राइल ने निश्चित रूप से काफी सोच समझ कर किया है और अमेरिका की ओर से उसको इसमें भरपूर मदद हासिल हुई है।

हमले से ठीक पहले अमेरिका ने इस्राइल के त्रि-स्तरीय सुरक्षा ढांचे के लिए मिसाइलों की आपूर्ति की और अपनी ओर से हमले का यह परोक्ष तर्क भी गढ़ा कि ईरान को 60 दिन में अपना एटमी ढांचा बंद करने पर राजी हो जाने का जो अल्टीमेटम उसने दे रखा था, वह अवधि पूरी हो चुकी है।

इस्राइली समझदारी की बुनियाद यह है कि ईरान ने लंबे समय से उसके खिलाफ जिन ताकतों के जरिये प्रॉक्सी-वॉर छेड़ रखा था, पिछले एक साल के अंदर वे सब की सब तबाह हो चुकी हैं। उत्तर में लेबनान पर हमला करके उसने हिज्बुल्ला की कमर तोड़ दी, जिसके चलते ईरान और रूस के लिए सीरिया में अपनी समर्थक बशर अल असद सरकार को बचाना संभव नहीं हुआ।

वहां नई-नई आई सुन्नी कट्टरपंथियों की हुकूमत और चाहे जो करे, ऐसा तो कुछ भी नहीं करेगी, जिससे ईरान के हाथ मजबूत होते हों। दक्षिण में इस्राइल का कष्ट गाजापट्टी के फिलस्तीनियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हमास और यमन के एक हिस्से पर काबिज हूती बागियों से रहा है। इनमें पहला खत्म है और दूसरा कमजोर हो गया है। ऐसे में जमीन पर इस्राइल को उलझाए रखने के लिए ईरान कुछ भी नहीं कर सकता। जाहिर है, लड़ाई का अकेला स्वरूप हवाई युद्ध का ही बचा है, जिसमें ईरान की वायुसेना हमले और बचाव, दोनों दृष्टियों से कुछ खास काम की नहीं है।

दोनों देशों की जमीनी दूरी इतनी ज्यादा है कि युद्धक विमान बीच में ही दोबारा तेल भरे बिना दूसरे देश पर बमबारी करके घरवापसी नहीं कर सकते। ईरानी जहाज यह काम न तो कहीं रुककर कर सकते हैं, न ही उनके पास एयर टैंकरों का इंतजाम है जबकि इस्राइल के पास दोनों सुविधाएं मौजूद हैं।

रही बात हवाई हमलों से बचाव की, तो ईरानी लड़ाकू विमान डॉगफाइट के लिहाज से बहुत पुराने हैं और एंटी-एयरक्राफ्ट बैटरीज का जमीनी ढांचा इस्राइल ने बीते एक साल में अपने दो ऑपरेशनों के जरिये काफी कुछ तबाह कर डाला है। ऐसे में अचानक हमले से तीन मकसद उसे साधने थे और बीच में करारा जवाब मिलने का कोई खौफ भी उसे नहीं था। सेना और एटॉमिक रिसर्च के शीर्ष ढांचे को खत्म करना। बची-खुची एंटी-एयरक्राफ्ट बैटरीज को नष्ट करना। और परमाणु बम बनाने की संभावना वाली सभी जगहों को बम मारकर कुछ साल पीछे धकेल देना।

ध्यान रहे, इराक का काफी आगे बढ़ा परमाणु ढांचा इस्राइल ने सद्दाम हुसैन के उभार वाले दौर में ही तबाह कर डाला था। लेकिन उस घटना ने ईरान को ज्यादा सजग कर दिया और उसके परमाणु वैज्ञानिकों तथा एटमी ठिकानों पर कई हमलों के बावजूद इस पहलू से अबतक उसका कुछ खास नुकसान इस्राइल नहीं कर पाया है। इस बार भी खुला आसमान मिलने के बावजूद ईरान के सभी परमाणु ठिकाने अबतक सुरक्षित रह गए हैं।

दरअसल, इनकी बनावट इतनी मजबूत रखी गई है कि अमेरिका के बी-2 बमवर्षकों से गिराए गए आठ टन वजनी बम ही इनका कुछ बिगाड़ सकते हैं। इस्राइल के दो टन से भी कम वजन वाले कन्वेंशनल वॉरहेड इनके दफ्तरों की टाइलें और शीशे ही झाड़ पाते हैं।

रही बात लड़ाई के भविष्य की, तो ईरान ने जवाबी तौर पर इस्राइल के फौजी और रिहाइशी ठिकानों पर घातक मिसाइलें दागकर और इस्राइल ने ईरान के तेल-गैस ठिकानों पर बम मारकर इसके लंबी खिंचने का इंतजाम कर दिया है। ज्यादा फंसने पर ईरान की ओर से इसका दायरा और बढ़ाने वाला अगला कदम होरमुज जलडमरूमध्य पर कब्जे का हो सकता है, जिससे होकर दुनिया का 20 फीसद फ्यूल गुजरता है।

तेल की कीमतें अभी ही उछाल मार चुकी हैं तो खाड़ी की नाकेबंदी से अमेरिका को विश्वरक्षक सुपरमैन की तरह लड़ाई में कूदने का तर्क मिल जाएगा। इससे लड़ाई पूरी तरह एकतरफा हो जाएगी, लेकिन थमने तक दुनिया का काफी नुकसान हो चुका होगा। बेहतर होगा, पूतिन और ट्रंप इसके पहले ही आग बुझाने की कोशिश करें। उनका आपस का दोस्ताना संवाद फिलहाल दुनिया के लिए अकेली उम्मीद है, हालांकि यूरोपीय संघ को और कुछ हद तक चीन को भी यह बहुत अच्छा नहीं लगेगा।

(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

First Published on: June 17, 2025 8:24 AM
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