
प्रो. डॉ. हरिकेश सिंह
भारतीय जीवन पद्धति पूर्णतः प्राकृतिक तथा ग्रामीण रहवास के दृष्टिकोण से विकेंद्रीकरण के सिद्धांत पर आधारित रही है। धीरे-धीरे नगरीकरण के साथ ही साथ ग्रामीण जनमानस का विभिन्न परिस्थितिजन्य कारणों से गांव से नगर की ओर आकर्षण बढ़ता गया और रहवास का भी केंद्रीकरण होता गया। भारतीय ग्रामीणता संपोषी एवं समावेशी रही है, तथा गांव के आम जन सरल, संवेदनशील एवं संघर्षशील। संतोष तथा संयम भी भारतीय सभ्यता के अद्भुत लक्षण। आज भी इस प्रकार के अधिकांश लोग ग्रामीण परिवेश से ही आते हैं चाहे वह कितने भी बड़े पद पर आसीन हों तथा महानगर में लम्बे समय तक रह रहे हों।
पूर्व प्रधानमंत्री स्मृतिशेष चन्द्रशेखर ऐसे ही भारतीय ग्रामीण परिवेश से चलकर भारतीय राजनीति में समाजवादी सोच के साथ संघर्ष करते करते प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुए थे। उनका जन्म 17 अप्रैल 1927 को उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के बलिया जनपद में एक साधारण कृषक क्षत्रिय कुल में हुआ था। कृषक परिवार की कृषि प्रधान संस्कृति में ही रहकर इन्होंने बहुआयामी अनुभवों का अनुभव प्राप्त किया। माध्यमिक शिक्षा बलिया तथा उच्च शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय से प्राप्त किया। संयोग से अध्ययन का विषय भी रहा राजनीति शास्त्र और बाद में तो पूरे जीवन भर राजनीति के विश्वविद्यालयी आचार्य तो नहीं थे, परंतु राजनीति शास्त्र के व्यवहार पक्ष ‘लोकमानस’ के सार्थक एवं सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में एवं श्रेष्ठ समाजवादी विचारक आजीवन बने रहे।
चंद्रशेखर पर पारिवारिक दायित्व का बोझ प्रारम्भ से ही रहा, परन्तु अध्ययन एवं व्यापक सामाजिक सरोकारों के प्रति अटूट लगाव भी बना रहा है। एक छात्र के रूप में जो संघर्षशीलता सीखी उसे जीवन पर्यन्त बिना किसी आरोप या लांछन के उत्तरोत्तर नया तेवर और कलेवर देते रहे। सिद्धांतविहीन समझौता से अलग थे तथा सहयोग के पक्षधर रहे। राजनीति विद्वेष तथा कटुता से दूर समन्वय की राजनीति के समर्थक रहे। घोर विपरीत विचारधारा के प्रति मैत्री भाव रखना उनके बुद्धत्व का परिचायक था। किसी भी शत्रुभाव रखने वाले को भी उसके संकट के समय सबसे क़रीब चन्द्रशेखर जी ही खड़े नज़र आये।
उत्तर प्रदेश के भोजपुरी जनमानस, भोजपुरी भाषा, भोजपुरी वेश-भूषा तथा भोजपुरी भोजन के प्रति उनका अनुरागपूर्ण लगाव था, जिसे उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में छोड़ा नहीं। जिससे वह मिले, या जो कोई उनसे मिला वह आजीवन चंद्रशेखर से अलग नहीं हुआ। वे जितने सरल थे, उतने ही संवेदनशील। भले ही लम्बे समय तक दिल्ली में रहे,परंतु उनका दिल-दिमाग भारत के ग्रामीणजन के निमित्त ही लगा रहा। वह सच्चे अर्थ में अघोरी, वितरागी या अवधूत थे।
चंद्रशेखर की भारतीय वेश-भूषा को देखकर प्रायः लोग यह नहीं समझ पाते थे कि वह कितने बड़े स्वाध्यायी एवं विश्लेषक थे। उनकी बौद्धिकता का आभास उनके आस-पास रहने वाले विद्वतजन, राजनेताओं तथा जनसंचार के सिद्धहस्त संपादकों को अवश्य था। ‘यंग इंडिया’ में उनके संपादकीय आज भी भारतीय लोकतंत्र के संपूर्ण वांगमय के रूप में देखे जा सकते हैं। उनकी राजनीतिक मेधा पर आचार्य नरेंद्र देव जी एवं लोक नायक जय प्रकाश नारायण की पूर्णतः और स्पष्टत: छाप पड़ी थी। आचार्य नरेंद्र जी के संरक्षण में तो चन्द्रशेखर ने अपने राजनीतिक जीवन का आरम्भ काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थित आचार्य जी के कुलपति आवास से ही किया था। यहीं पर चन्द्रशेखर, रामधन तथा बी.पी. कोईराला के भी मित्र बने तथा आजीवन इस सम्बंध को निभाया। मैत्री भाव के तो आप एक सम्पन्न प्रयोगधर्मी थे। विद्वानों को आदर देना तथा समय-समय पर आमंत्रित करके अनौपचारिक रूप से विचार विमर्श करना आपकी विशिष्टता थी। आप सर्वदलीय राजनीतिक समरसता के प्रबल समर्थक थे। आप कृत्रिम आचरण वालों को तिरस्कार के भाव से देखते थे, तथा व्यंगपूर्ण संकेतों से भारतीय संस्कृति के महत्व को समझा दिया करते थे। आप राजनीति के पुरोधा थे, परन्तु ‘राजा संस्कृति’ वाली राजनीति के प्रबल विरोधी।
चंद्रशेखर का आध्यात्मिक जगत कर्मकाण्डी कम तथा कर्मयोगी के रूप में अधिक स्पष्ट था। इसका जीता-जगता उदाहरण था उनके जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल में गोण्डा (उत्तर प्रदेश) में जयप्रभा नामक गांव में भारत के राष्ट्रपति अर्थात् प्रथम नागरिक से लेकर उस गांव के सबसे कम सम्पन्न अंतिम नागरिक को भी ‘अंत्योदक’ दर्शन और कार्यक्रम के आयोजन के द्वारा ज़मीन पर बैठकर एक साथ भजन और भोजन करवाना। इस प्रकार चन्द्रशेखर का ‘सर्वोदयी’ समाजवाद श्रेष्ठतम प्रतिमान ‘अंत्योदयी’ समाजवाद का स्वरूप प्राप्त कर सका। अद्भुत मानववादी संकल्प के राजपुरुष थे चन्द्रशेखर जी।
सौभाग्य से ही सही यह चन्द्रशेखर ही थे जिन्हें लोकनायक जय प्रकाश नारायण जी के संरक्षत्व में भारतवर्ष में आपातकाल के बाद कांग्रेस को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों को एक दल में मिलाकर राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में कार्य करने का अवसर मिला था। स्वतन्त्र भारत की यह पहली राजनीतिक उपलब्धि थी। उसी समय उनके संयोजकत्व में उनके गांव इब्राहीमपट्टी में देश के सभी राष्ट्रीय नेताओं का एक सम्मेलन हुआ जो अविस्मरणीय है। इसी प्रकार जनता पार्टी के टूट जाने पर भी जनता पार्टी के रूप में बची पार्टी का एक सम्मेलन वाराणसी के सारनाथ में आयोजित हुआ था, जिसमें भारतीय राजनीति में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की अवधारणा पर विशद चर्चा हुई थी, तथा एक सैद्धांतिक एजेण्डा भी तय किया गया था जो राजनीतिक विश्लेषकों के लिए एक संग्रहणीय दस्तावेज है। चन्द्रशेखर राजनीतिक जीवन में शुचिता को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। एक बार पुनः उल्लेख करना चाहूंगा कि चन्द्रशेखर की राजनीतिक दृष्टि को सम्पूर्णता के साथ जानना है तो ‘यंग इण्डिया’ के उनके संपादकीय लेखों को वस्तुनिष्ठ ढंग से पुनरावलोकन करना ही समीचीन होगा।
चन्द्रशेखर की राजनीतिक सूझ-बूझ, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय विलक्षणता को जानने के लिए उनके प्रधानमंत्रित्व काल की तीन प्रमुख घटनाओं का स्मरण करना उपयुक्त प्रतीत हो रहा है। पहला कि प्रधानमंत्री होते ही अयोध्या प्रकरण के लिए धर्मगुरुओं का गोलमेज़ सम्मेलन आयोजित करना, और पहले ही सम्मेलन में समस्या का समाधान ठीक उसी मंतव्य के रूप में सर्वसम्मति से उभरा जिसका अंततः निस्तारण माननीय उच्चतम न्यायालय ने अब किया है। दूसरा कि देश की खोखली आर्थिक व्यवस्था के निराकरण हेतु रिज़र्व बैंक में संरक्षित सोने को गिरवी रखना, जिसकी तत्कालिक रूप से कटु आलोचना हुई तथा राष्ट्र को जवाब देते हुए सफलतापूर्वक समझा देना कि यदि घर में बेटी अविवाहित रह जाए और घर में सम्पत्ति पड़ी रह जाए तो ऐसी परिस्थिति में पिता को क्या करना चाहिये। चन्द्रशेखर ने राष्ट्रीय आत्मा को गिरवी नहीं रखा था, सोने को रखा जिसको कभी भी आर्थिक रूप से सम्पन्न होने पर वापस प्राप्त किया जा सकता था। तीसरा कि सार्क देशों के सम्मेलन में सार्क क्षेत्र के राष्ट्रों को दुनिया के सम्पन्न विकसित राष्ट्रों से समान दूरी बनाते हुए अपना विकास का मॉडल (प्रतिमान) तय करने का। नेपाल में कोईराला के नेतृत्व में लोकतंत्र के अभियान को भी और पल्लवित और पुष्पित करते रहे। यह थी, उनकी अंतराष्ट्रीय पहचान।
चन्द्रशेखर एक महान प्रकृति प्रेमी हृदय राजनेता थे। उनके तीन प्रयासों से उनका प्रकृति प्रेम जाना जा सकता है। एक भुवनेश्वर (भोड़सी, हरियाणा) में वृक्षारोपण एवं पक्षियों के साथ मित्रता, दूसरा बसंतपुर (बलिया) को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना, तथा तीसरा सिताबदियारा बलिया में जयप्रकाश ट्रस्ट के अंतर्गत आकर्षक केन्द्र की स्थापना। स्वतंत्र भारत में चन्द्रशेखर ने 4240 किलोमीटर की पदयात्रा करके एक कीर्तिमान स्थापित किया। उनकी पदयात्रा किसी ‘पद’ के लिए नहीं अपितु राष्ट्र को लोकतांत्रिक मूल्यों से अवगत कराने तथा भारतीय लोकमानस को निकट से समझने हेतु आयोजित की गयी थी। वह लोकयात्री थे, लोभयात्री नहीं। भारतमाता की आत्मा को निश्चित रूप से इस लोकयात्री के प्रधानमंत्री के पद पर सुशोभित होने से ख़ुशी हुई होगी क्योंकि गाँव के एक किसान का बेटा पवित्र साधनों और साधनाओं से इस मुक़ाम तक पहुंचा था। यही तो महात्मा गांधी भी चाहते थे। इस महान वीतरागी समाजवादी अवधूत को कोटिश: प्रणाम एवं विनम्र श्रद्धांजलि।
(लेखक प्रो. डॉ. हरिकेश सिंह जयप्रकाश विश्वविद्यालय, बिहार के पूर्व कुलपति हैं। यह लेख पंचायत खबर से साभार लिया गया है।)