डॉ. आकांक्षा
आज संपूर्ण देश कोरोना नामक महामारी के साथ तमाम तरह की संकट की स्थितियों से जूझ रहा है। भारतीय समाज का हर वर्ग अपने-अपने स्तर पर लगातार इस दौर की हर तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। जहां तक मजदूर वर्ग और प्रवासियों का सवाल है, वे महामारी के साथ-साथ भुखमरी से भी लगातार जूझ रहे हैं और जान हथेली पर रखकर किसी तरह से अपने स्थायी निवास तक पहुंचने की कोशिश में लगे हैं । इस क्रम में बहुतों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी। जहां तक स्त्रियों का सवाल है वे किसी भी वर्ग की स्त्री हो, गृहणी हो, समाज-कार्य से जुड़ी हो, कामकाजी हो या फिर मजदूर वर्ग की हो, इनके लिए यह महामारी का दौर बहुत ही चुनौतीपूर्ण साबित हो रहा है।
गर्भवती प्रवासी महिला मजदूर तो इस हालत में भी तमाम परेशानियों का सामना करते हुए बिना किसी अतिरिक्त सुविधा के अपने स्थायी निवास की ओर आगे बढ़ रही हैं तो कुछ ने रास्ते में ही बच्चे को जन्म तक दिया। इसके अलावा महिलाओं को तमाम तरह की प्रत्यक्ष हिंसा (घरेलू हिंसा, यौन हिंसा) झेलने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष हिंसा का भी शिकार होना पड़ रहा और इस तरह की अप्रत्यक्ष हिंसा से छुटकारा पाने के लिए फिलहाल इनके पास किसी तरह के कानून का भी सहारा नहीं है।
खासतौर पर मध्यमवर्गीय कामकाजी महिलाएं जो इस दौर में ‘वर्क-फ्राम होम’ का दायित्व निभा रही हैं यदि उनकी स्थिति पर गौर किया जाए तो उन्हें लगातार ‘मानसिक-प्रताड़ना’ का भी शिकार होना पड़ रहा है। वेतन कटौती के साथ एक तरफ उसे अपनी प्रोफेशनल दायित्वों को भी निभाना पड़ रहा है और साथ में घरेलू सामाजिक संरचना के साथ भी लगातार तालमेल बिठाना पड़ रहा है। स्कूल-कालेज जाने वाली लड़कियों की भी यही स्थिति है क्योंकि, पारंपरिक मानकों पर खरा उतरने की ज़िम्मेदारी सदियों से इन लड़कियों और महिलाओं के कंधों पर ही रही है।
कुछ महिलाओं और लड़कियों ने सोशल-मीडिया के जरिये अपनी आपबीती भी साझा की जिसमें उन्हें आनलाईन क्लासेस करने या लेने में किस तरह की परेशानियों का सामना कर पड़ रहा इसका जिक्र है। कुछ के पास संसाधनों का अभाव है तो कुछ के लिए घरेलू ज़िम्मेदारी ही प्राथमिक ज़िम्मेदारी बताई जा रही है और इन घरेलू जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद ही घर के सदस्यों द्वारा उन्हें अन्य जिम्मेदारियों को पूरा करने की अनुमति दी जा रही है।
छोटे बच्चों की मांओं ने यह भी साझा किया है कि घर से बाहर जाकर काम करने की स्थिति में उनके बच्चों की ज़िम्मेदारी घर के अन्य सदस्य ले लेते थे या फिर ‘क्रेच’ इत्यादि की मदद से उनका काम चल जाता था पर,‘लॉक-डाउन’ की व्यवस्था में उन्हें किसी तरह की मदद ठीक से नहीं मिल पा रही है क्योंकि, घर पर रहने के कारण उन्हें खुद ही सारी जिम्मेदारियां निभानी पड़ रही हैं। यह स्थिति उनके लिए बहुत ही तनाव भरा है और इस नए स्वरूप वाली पितृसत्ता को चुनौती देने के लिए इनके पास कोई ठोस विकल्प भी नहीं है। यदि उन्हें ‘आनलाईन’ पढ़ना या पढ़ाना है या फिर कुछ अन्य जिम्मेदारियों को निभाना है और उसी समय उसका बच्चा रो रहा है तो उस महिला के लिए ये तय कर पाना बहुत ही मुश्किल हो जा रहा है कि उसके लिए कौन सा काम ज्यादा महत्वपूर्ण है।
ऐसी स्थिति में उन्हें अपने घर के अन्य सदस्यों की बहुत ही जरूरत महसूस होती है पर, जैसे-जैसे समय बीत रहा है अपेक्षाकृत उनका सहयोग मिलना मुश्किल होता जा रहा है। क्योंकि, मध्यमवर्गीय समाज इस मानसिकता से आज भी नहीं खुद को नहीं निकाल पाया है कि घरेलू कार्य या बच्चों के परवरिश के बाद ही किसी भी स्त्री के जीवन में नौकरी के लिए जगह होती है और यह एक तरह से उसकी अतिरिक्त ज़िम्मेदारी है। कई बार तो नौकरी को महिलाओं के शौक और स्वतन्त्रता से भी जोड़ कर देखा जाता है पर, इस आधुनिकता के दौर में जब स्तरीय जीवन जीने के लिए अधिक संसाधनों की जरूरत हुई तो स्त्री-पुरुष दोनों को मिलकर आजीविका के संसाधनों को जुटाने का विकल्प भी ढूंढा गया।
इस तरह से जरूरत के अनुसार स्त्रियां आर्थिक गतिविधियों से जुड़ तो गई और आत्मनिर्भरता/आधुनिकता के नाम पर इस स्थिति को महिमामण्डित भी किया गया पर,जैसे ही मानसिकता के स्तर पर बदलाव या फिर उसमें वास्तविक धरातल पर सहयोग करने की बात आती है तो अभी भी बहुत सारी खाईयां दिख जाती हैं जिसे पाटना बहुत ही आवश्यक है तभी सच्चे अर्थों में समानता और स्वतंत्रता संभव है। इस तरह की स्थिति को बनाए रखने में कुछ हद तक महिलाएं भी जिम्मेदार हैं ।
वर्तमान संकट की स्थिति में भी घर से बाहर जाकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाली स्त्री पर बात करें तो उनके सामने कुछ और ही समस्या है। इन महिलाओं में सामाजिक संस्था से जुड़ी, स्वास्थ्य सेवा एवं पुलिस से जुड़ी या फिर इस तरह की अन्य क्षेत्रों से जुड़ी महिलाएं हैं। इन्हें एक साथ कोरोना, सार्वजनिक क्षेत्र की चुनौतियों और पारिवारिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। खासतौर पर पुलिस और स्वास्थय सेवा से जुड़ी महिलाओं के लिए स्थिति बहुत ही गंभीर है। उन्हें कई-कई दिनों तक अपने घर-बच्चों से दूर रहना पड़ रहा है और संक्रमित हो जाने की स्थिति में अपनी जान तक गंवानी पड़ रही है। ऐसे में एकल महिला या फिर जहां सिर्फ पति-पत्नी ही रह रहें हैं उनके लिए बहुत ही गंभीर स्थिति बनती जा रही है।
इस क्षेत्र से जुड़ी कुछ इस तरह की महिलाएं भी हैं जिन्हें सरकार के निर्देशनुशार घर-घर जाकर सर्वे या स्वास्थ्य जांच करने की ज़िम्मेदारी दी गई है जैसे, ‘आशा कार्यकर्ता’,यदि इनकी स्थिति पर विचार करें तो इस दौर में इनपर लगातार काम का दोहरा-तिहरा बोझ बढ़ता जा रहा है। घर की जिम्मेदारियों को पूरा कर, कोरोना से खौफ से जूझते हुए, इन्हें सरकारी दायित्वों को भी पूरा करना पड़ रहा है वो भी न्यूनतम वेतन में। सही अर्थों में तो इन ‘आशा कार्यकर्ताओं’ की समाज में बहुत बड़ी भूमिका होती है पर न ही उन्हें उस स्तर का सम्मान समाज में मिल पाता है और न ही घरों में। इसी तरह की स्थिति सेवा क्षेत्रों से जुड़े अन्य कार्यकर्ताओं की भी है।
सामाजिक और आर्थिक सहभागिता निभाने के बाद भी इन महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करने में बहुत सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हालांकि,हमारे भारतीय समाज की इस सच्चाई को बिल्कुल भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि,आमतौर पर सामान्य स्तर पर कमाने वाली महिलाओं का भी कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है वो,सबसे पहले किसी की बेटी, बहू और पत्नी ही है उसके बाद ही उनके पद को स्वीकार किया जाता है। आर्थिक तौर पर भागीदार होने के बावजूद भी शायद ही किसी महिला को किसी तरह के बड़े निवेश में निर्णायक या भागीदार की भूमिका निभाने का मौका दिया जाता हो पर, सच्चाई यह भी है कि जब भी जरूरत पड़ी है इन महिलाओं ने ही अपने बचत से संकट की घड़ी में घर के सदस्यों को उबारा है।
उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले के नोटबन्दी के दौर को देखा जा सकता है। इसी तरह की अभी के दौर में भी कुछ खबरें आई हैं। कोरोना के खौफ की वजह से कई महिलाओं ने अपने बचत किए हुए पैसों का ही उपयोग किया ताकि, उन्हें या उनके घर के अन्य सदस्यों को बैंक या ए.टी.एम के चक्कर न लगाने पड़ें। अब सवाल यह उठता है कि जब भी संकट की घड़ी आई,महिलाओं द्वारा ही बचत की गई धन पूरे परिवार के काम आया तो यह कैसे माना जा सकता है कि आर्थिक निवेश या बचत जैसे मामलों में महिलाओं की समझ अच्छी नहीं होती है? यदि अपने बचत किए हुए धन का उपयोग ये स्त्रियाँ सिर्फ स्वयं के लिए करतीं तो आज इन महिलाओं से ज्यादा आत्मनिर्भर शायद ही कोई होता? फिर भी उन्हें कमतर आंकना और उसके स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं स्वीकारना एक तरह की हिंसा नहीं है तो और क्या है?
वर्तमान में सरकार द्वारा लगातार आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी जा रही है। पर, जबतक आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों में महिलाओं के योगदान को स्वीकार नहीं किया जाएगा क्या वास्तव में समाज आत्मनिर्भर हो पाएगा? लगातार बहुत बड़ी संख्या में लोग महानगरों से अपने-अपने शहरों, गाँवों और कस्बों की ओर पलायन कर रहें हैं। ऐसी स्थिति में उनकी आजीविका का संकट फिर से बड़े रूप में सामने है और यह भी विचारणीय मुद्दा है कि सरकार द्वारा घोषित पैकेज का यह वर्ग कितना लाभ उठा पाएगा? इस संकट से उबरने के लिए एकबार फिर से स्त्री-पुरुष दोनों को मिलकर लघु एवं कुटीर उद्योग के सहारे खुद को आत्मनिर्भर बनाने का रास्ता ढूँढना होगा और सच्चे अर्थों में परिवार, समाज और अर्थव्यवस्था में स्त्रियों की भागीदारी और भूमिका को स्वीकारना होगा ताकि, वास्तव में विकसित और आत्मनिर्भर समाज की नींव पड़ सके।
(डॉ. आकांक्षा स्त्री एवं सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करती हैं और दिल्ली में रहती हैं।)