कोरोना : निशाने पर गरीब

इंटरनेशनल रेस्क्यू कमिटी नामक एक वैश्विक संस्था की ताजा रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि दुनिया के अमीर देश चाहे कोरोना वायरस की चपेट में आये हों लेकिन आने वाले समय में कोरोना की असली मार तो दुनिया के उन 34 गरीब देशों को ही झेलनी पड़ेगी जो अपनी गरीबी के चलते इस जानलेवा संक्रमण से बाचाव की लिए अपने नागरिकों की मदद कर पाने में समर्थ नहीं हैं।

एक तरफ तो कोरोना को लेकर यह दावा किया जा रहा है कि दुनिया के चीन और अमेरिका जैसे एक-दो नहीं बल्कि पूरे दो सौ देश कोरोना वायरस की चपेट में हैं। दूसरी तरफ, “इंटरनेशनल रेस्क्यू कमिटी” नामक एक वैश्विक संस्था की ताजा रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि दुनिया के अमीर देश चाहे कोरोना वायरस की चपेट में आये हों लेकिन आने वाले समय में कोरोना की असली मार तो दुनिया के उन 34 गरीब देशों को ही झेलनी पड़ेगी जो अपनी गरीबी के चलते इस जानलेवा संक्रमण से बाचाव की लिए अपने नागरिकों की मदद कर पाने में समर्थ नहीं हैं।

यह भी एक सुखद आश्चर्य ही है कि भारत इन 34 बदकिस्मत देशों की सूची में शामिल नहीं है। लेकिन भारत को अपने पड़ोसी देशों के संक्रमण से खतरा पैदा हो सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत के तीन पड़ोसी देश पाकिस्तान,बांग्लादेश और म्यांमार इस सूची में शामिल हैं। ब्रिटेन के पूर्व विदेश सचिव डेविड मिलिबैंड की अध्यक्षता नें बनी इस राहत समिति ने यह चेतावनी दी है कि दुनिया के 34 सर्वाधिक गरीब देशों पर कोरोना का विनाशकारी असर होगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के करीब एक अरब लोग कोरोना के संक्रमण से इस विनाश का शिकार हो सकते हैं और इस महाविनाश में 30 लाख लोगों की जान भी जा सकती है।

मिलिबैंडकी इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कोरोना को लेकर संक्रमितों और मरने वालों के जो आंकड़े अभी तक सामने आये हैं वो वास्तविक नहीं लगते, इनकी संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है। इस रिपोर्ट की सच्चाई इस तथ्य से भी समझी जा सकती है कि कई देश ऐसे भी हैं जहां गरीब पैसों के अभाव में अपना  इलाज कराने की स्थिति में ही नहीं होते और ऐसे अनेक मरीज बगैर इलाज के ही मर जाते हैं। ये हालत गरीब देशों की ही नहीं अमेरिका जैसे अमीर देश के गरीबों की भी है। अमेरिका की ही एक समिति ने इस बाबत खुद कराये गए एक सर्वेक्षण के बाद यह निष्कर्ष निकाला है।

वाशिंगटन में कराये गए इस गैलप-वेस्ट हेल्थकेयर कास्ट सर्वेक्षण के अनुसार यह समस्या आर्थिक दृष्टि से इतनी विकराल भी हो सकती है कि बढ़ते खर्च के कारण औसतन10 में से एक व्यक्ति इलाज नहीं करा पायेगा। सर्वेक्षण के नतीजे यह भी कहते हैं कि संक्रमण का पता चलने के बावजूद 18 साल और उससे अधिक उम्र के लोग पैसे की तंगी के चलते इलाज कराने से ही इनकार कर देंगे। गौरतलब है कि अमेरिका में तो ट्रम्प प्रशासन ने कोरोना की जांच मुफ्त करने के साथ ही बीमा कंपनियों ने भी जांच में रियायत दी है लेकिन सर्वेक्षण इन उपायों को नाकाफी मानता है।

परस्पर विरोधी तर्क 

बात अजीब सी लगती है कि एक तरफ तो कोरोना को लेकर पूरे विश्व में इस हद दहशत का आलम है कि सर्वेक्षणों के हवाले से तो भविष्य में किसी महाविनाश की ही तस्वीर बनती दिखाई देती है। लेकिन इसके ठीक विपरीत अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पूरे विश्वास के साथ यह कहते दिखाई देते हैं कि अमेरिका में हर चार साल बाद होने वाला राष्ट्रपति चुनाव इस बार भी निर्धारित समय और दिन पर ही होगा। गौरतलब है कि अमेरिका में नवम्बर महीने के पहले सप्ताह के मंगलवार को राष्ट्रपति चुनाव के अंतिम चरण का काम पूरा होता है। इस साल यह तिथि तीन नवम्बर है। गौरतलब यह भी है कि पिछले दिनों जब राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प के संभावित विरोधी उम्मीदवार जो बाईडेन ने एक कार्यक्रम में यह कहा था कि ट्रम्प कोरोना वायरस के संकट को ध्यान में रखते हुए किसी तरह चुनाव की तारीख आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे इस पर ट्रम्प ने कहा कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव टालने की कोई भी संभावना नहीं है, वह तो चुनाव का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं क्योंकि 3 नवम्बर एक अच्छी तारीख है। 

अब अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव समय पर ही होंगे या नहीं, इसका पता तो समय आने पर ही चलेगा लेकिन कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रपति ट्रम्प  समेत इस पद के सभी उम्मीदवार कोरोना वायरस की आड़ में अपना राजनीतिक हित साधने की पूरी कोशिश में लगे जरूर हुए हैं। डोनाल्ड ट्रम्प इसी नीति के चलते कोरोना मामले पर चीन को निशाने में लिए हुए हैं। ट्रम्प की इसी नीति के चलते ही अमेरिका की प्रतिष्ठित फॉरेन पालिसी मैगजीन ने कोरोना के सन्दर्भ में इसके संभावित  जैविक हमले की भयावहता के बारे में बताना भी शुरू कर दिया है। हालांकि अभी तक की वैज्ञानिक कांच से यह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना का यह वायरस प्राकृतिक है किसी तरह से प्रयोगशाला में बना और बनावटी वायरस नहीं है लेकिन ट्रम्प और उनके शुभ चिन्तक वैज्ञानिकों की इस खोज से संतुष्ट नहीं हैं और हर बार घुमा फिरा कर बात चीन के खाते में दाल दी जाती है। इस बाबत अब यह भी कहा जाने लगा है कि इराक समेत कई देशों की तर्ज पर चीन कोरोना वायरस का एक जैविक हथियार के रूप में बड़े पैमाने पर उपयोग कर सकता है। 

इस पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में एक ऐसी स्थिति की कल्पना की गई है जिसमें कहा गया है कि ये सर्वविदित तथ्य है कि दुनिया भर में युद्ध से ज्यादा लोगों की मौत जीवाणुओं की वजह से हुई है। इतना ही नहीं मनुष्य भी इनका इस्तेमाल युद्ध के दौरान करता रहा है। अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा कंबल के द्वारा किये गए जैविक हमलों का इस सन्दर्भ में साक्ष्य के तौर पर इस लेख में उल्लेख भी किया गया है इसी तरह इस लेख के माध्यम से यह बताने की भी पूरी कोशिश की गई है कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के दौरान भी युद्धरत हैं। देशों ने एक दूसरे पर जैविक हमले किये थे। इन्हीं दौरान ऐसे ही एक जापानी जैविक हमले में चीन के 2 लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे।

लेख के अनुसार तब जापान चीन का सबसे बड़ा दुश्मन था लेकिन अब चीन, अमेरिका को वैश्विक बाजार में अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है। लिहाजा उसकी कोशिश किसी भी तरीके से अमेरिका को नुक्सान पहुंचाने की ही है और उसका एक तरीका जैविक हमला भी हो सकता है। इसका एक स्वरुप कोरोना वायरस भी हो सकता है। सबसे खतरनाक बात ये है कि वायरस के बारे में अच्छी जानकारी रखने वाला कोई विशेषज्ञ अकेला ही खतरनाक गतिविधियों को अंजाम दे सकता है। नए वायरस के हमले की स्थिति में सामान्य तौर कोई वैक्सीन या दवा बनाने में सालों का वक्त लग जाता है जिससे लाखों जानें जा सकती हैं। हम कोरोना वायरस के संदर्भ में इसे देख और समझ सकते हैं। कैसे एक अनदेखा दुश्मन पूरी दुनिया के लोगों को उनके घरों में कैद रहने को मजबूर कर सकता है।

First Published on: April 30, 2020 3:01 AM
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