आज की परिस्थिति में लोकतन्त्र में आमजन की घटती भूमिका एवं उदासीनता ने एक तरह की अराजकता की ओर जानेवाली स्थिति पैदा कर दी है, जो सही मायनों एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आई है। स्वाभाविक रूप से लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों का होनेवाला नैतिक पतन ही इसका ज़िम्मेवार है। विधायिका एवं कार्यपालिका पर तो स्वतंत्रता के बाद से ही लोगों का विश्वास कम होना प्रारम्भ हो गया था इसलिए उनसे अपेक्षाएँ भी निरंतर रूप से घटती जा रही हैं। लेकिन लोगों के मन में न्यायपालिका एवं स्वतंत्र प्रेस की उत्तरोत्तर बढ़ती भूमिका ने लगातार संबल देने का कार्य करता रहा है। परंतु पिछले कुछ समय से प्रेस की पहुँच आम जनमानस तक बहुत ही सुलभ हो गयी, प्रिंट मीडिया की तुलना में इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बढ़ती एवं प्रभावी भूमिका ने एक तरह से सामान्य जीवन की गतिविधियों को भी प्रभावित करने लगा। व्यापारिक प्रतिस्पर्धी न्यूज़ चैनलों ने आपसी प्रतिद्वंदिता के कारण समाज को विभाजित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है
। अब प्रेस न्यूज़ बताने की बजाय अपने व्यूज बताने में अधिक विश्वास रखने लगा है। अब समाचार को कितनी सनसनीखेज बना दिया जाए इस पर ही इतना काम होने लगा है कि समाचार ही खो जाता है और सनसनी बन जाता है। हिन्दी न्यूज़ चैनलों की स्थिति ऐसीहो गयी है कि उनकी टीआरपी अब मनोरंजन वाले चैनलों के साथ होड़ लेती दिख रही है। पत्रकारिता में रिपोर्टिंग के समाप्त होने कि प्रक्रिया एवं ऐंकर का अपने आपको सर्वगुणसंपन्न साबित करने का प्रयास करना इसका कारण रहा है। जब कमाई पत्रकारों की जगह अभिनेता नुमा ऐंकरों के द्वारा ही हो जाती है तो क्यों कोई न्यूज़ एजेसी अपनी रिपोर्टिंग एवं विशेषज्ञता पर खर्च करे।
परिणामस्वरूप किसी भी समाचार की पूरी जानकारी स्वयं चैनलों को भी ढंग से नहीं हो पाती और न्यूज़ रूम में दिख रहे अन्य न्यूज़ चैनल्स के डिस्प्ले को देखते हुए अपने यहाँ न्यूज़ चला देनी पड़ती हैं। यह सभी चैनलों के द्वारा किया जा रहा है। यही कारण है कि जनता को सभी न्यूज़ चैनल एक से लगने लगते हैं और दर्शक तक पूरी तरह से सही न्यूज़ पहुँच ही नहीं पाती है। अब दर्शक या पाठक की जगह मीडिया के लिए लोग ग्राहक बन गए हैं। अतः यह स्वाभाविक है कि एक व्यापारी जिस तरह से अपने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाता है उसी तरह से ये भी अपनी दुकान चलाने लग गए हैं।
इसका एक कारण तह भी रहा है कि अधिकांश मीडिया हाउस किसी ना किसी उद्योगपति का है या उसमें उनकी भागीदारी है , स्वाभाविक है अपनी व्यापारिक मजबूरी के कारण ये ग्रुप पत्रकारिता को अपने प्रॉडक्ट कि तरह देखते हैं और उनसे लाभ कमाना ही उनका उद्देश्य रह गया है, फलतः जन सरोकार के मुद्दे उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखते। ऐंकर की मजबूरी है कि अगर वह सर्व विषय ज्ञाता के रूप में स्वयं को प्रस्तुत नहीं करेगा तो वह अपने ग्राहक को प्रभावित कैसे कर पाएगा। यही कारण है कि पिछले लंबे समय से ऐंकर कि महत्ता बढ़ती गयी है और जमीनी स्तर की रिपोर्टिंग का स्तर घटता गया है।
ऐंकर एवं रिपोर्टर का संबंध लोक प्रशासन के शब्द सामानज्ञ और विशेषज्ञ की तरह होता है जहां सामानज्ञ का कार्य सभी विशेषज्ञ को संयोजित करना होता है। रिपोर्टर विषय विशेष का जानकार होता था और उसका एक क्षेत्र विशेष था जिसमें उसकी विशेषज्ञता होती थी चाहे वह राजनीति हो या अपराध या कोई अन्य क्षेत्र, इसलिए उनकी रिपोर्टिंग में तथ्य अधिक रहते थे। अब ऐंकर की मजबूरी है कि तथ्य के अभाव में वह समाचार का कथ्य बनाने लगा साथ ही प्रबंधन को भी अपने हिसाब से न्यूज़ को तोड़ने मडोरने एवं किसी दल विशेष या अपनी सुविधानुसार दिखने की स्वतन्त्रता मिल गयी। शुरुआत में दर्शकों के लिए ये नयापन डिबेट शो के माध्यम से आया जिसमें क्षेत्र विशेष के जानकार एवं विशेषज्ञ द्वारा अपनी बात रखी जाने लगी। लेकिन जब सभी चैनलो में इसी तरह इसी तरह के डिबेट शो की भरमार हो गयी एवं हर चैनल प्रतिदिन 5-6 घंटे तक ये शो चलाने लगे तो विशेषज्ञ की जगह पार्टी प्रवक्ता तथा राजनीतिक विश्लेषकों की बाढ़ सी आ गयी जिन्हें बुलाने से इसमें सनसनी बनी और स्तरहीन मनोरंजन बढ़ा।
ऐंकर ही सभी विषयों का ज्ञाता नजर आने लगा । एक ही तरह के सभी चैनलों की फोरमेटिंग से दर्शकों को अब ऊब सी आने लगी जिसके कारण अब ये सोशल मीडिया के अन्य प्लैटफ़ार्म की तरफ आकर्षित होने लगे है। इसका एक बड़ा कारण न्यूज़ चैनलों पर विश्वसनीयता का अभाव दिखना एवं प्रोपेगंडा फैलाना रहा है। अब दर्शक भी न्यूज़ चैनल के काडर की तरह हो गए है। लोग अपनी अपनी विचारधारा से मिलते जुलते चैनल देखने लगे हैं। एक तरह से पूरी पत्रकारिता ही खुले आम खेमे में विभाजित हो गयी है पूर्व में कम से कम एक पर्दा जरुर रहता था जो नैतिकता का था पर अब उसकी आवश्यकता भी समाप्त हो गयी है।
पत्रकारिता का यह नैतिक पतन किसी भी लोकतन्त्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। जिस तरह से लोगों की नजर में इनकी विश्वसनीयता टूट रही है वो आनेवाले समय में मेन स्ट्रीम मीडिया के अस्तित्व के लिए खतरा बन गयी है। लोग तीव्र सूचना के प्रसार के इस युग में कही से भी खबर पा ही लेते हैं इसलिए इनपर निर्भरता दिन ब दिन घटती ही जा रही है। इसलिए अब भी समय है कि मीडिया अपने चरित्र को बदले एवं लोकतन्त्र को मजबूत करने कि दिशा में पूर्व में निभाई गयी अपनी महती भूमिका को याद रखते हुए एक नए कलेवर में अपने को बदलकर देश एवं लोकतन्त्र को मजबूती प्रदान करे। राष्ट्रीय प्रैस दिवस जो प्रतिवर्ष 16 नवम्बर को मनाया जाता है उसका उद्देश्य ही यही था कि पत्रकार भयमुक्त एवं सशक्त बनें जिसे कुछ पत्रकार और मीडिया हाउस भूलते जा रहे हैं परिणामस्वरूप पूरी पत्रकारिता ही सवालों के घेरे में आने लगी है। इसलिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया की विश्वासनीयता बढ़ाने के लिए गंभीर कदम उठा कर निर्णायक दिशा की ओर अग्रसर होना आवश्यक हो गया है।